अलग-अलग इंतजार | चंद्रकांता
अलग-अलग इंतजार | चंद्रकांता

अलग-अलग इंतजार | चंद्रकांता – Alag Alag Intajaar

अलग-अलग इंतजार | चंद्रकांता

नाम-पतेवाली तख्ती तो कहीं नजर नहीं आई, हाँ, छोकरे ने उँगली के इशारे से सामने का घर दिखा दिया। डाक्टर जे.सी. का घर। पियराई मेहँदी की बाढ़ अधजले चकत्तोंवाली घास और चूना उखड़ी दीवारों के सिर पर झुकी ठिगनी-सी छत।

गाड़ी की आवाज सुनते ही उजाड़-से लगते इस क्वार्टर के बरामदे में डॉक्टर जे.सी. निकल आए थे। उनकी पीठ पीछे दरवाजे पर टँगा, छिजी हुई तंगाइल की साड़ी का परदा फड़फड़ाने लगा था।

दिए गए पते के मुताबिक सही जगह पहुँचकर भी आशय दो बार गाड़ी वहाँ से मोड़ चुके थे। उन्हें लगा था पते में ही कुछ गड़बड़ है। डॉ. जे.सी. ऐसी जगह? जीवन की चहक से भरपूर नफासत और अनुशासन में जीने के आदी डाक्टर इस बदरंग उपेक्षित माहौल में रह ही नहीं सकते! तब राह चलते छोकरे से डाक्टर का घर पूछने की जरूरत मालूम पड़ी थी लेकिन अब विश्वास की कोई गुंजाइश न थी डाक्टर सामने खड़े थे, सांगोपांग। खादी के सफेद कुर्ते-पायजामे से इकहरे शरीर को ढके! वक्त की धूल-धूप से उनके कसे जबड़ों में नरम-सी हरकत हुई, “वेलकम टु आवर हंबल रेजिडेंस…।”

यानि कि वे वही रह रहे थे, जहाँ आशय ने सोचा था कि जो वे यह ही नहीं सकते थे।

नीचे से ऊपर उठने वाली व्यक्ति की भावदशा जानना आसान होता है। पर जो आदमी ऊपर से गिरकर अपने तमाम अंगों को जिस्म से सही सलामत जोड़े आपके सामने खड़ा मुस्करा रहा हो ऐसा व्यक्ति कुछ विचित्र-से विस्मय और अविश्वास से भर देता है। अनुश्री-आशय दोनों एकदम संजीता हो गए थे। एक अप्रत्याशित अचीन्हा खिंचाव ज्यों कस आया हो बीच में।

इधर बहुत दिनों से अनुश्री-आश्रय ने उन्हें देखा न था। पत्राचार भी करीब डेढ़ वर्ष से बंद ही था। आशय अपने काम में अधिक व्यस्त और अनुश्री परिणामस्वरूप त्रस्त रहने लगे थे। लेकिन कल सुबह बड़े सवेरे अचानक डाक्टर का फोन आ गया।

“हलो, मैं जे.सी. बोल रहा हूँ…।”

“जे.सी…?”

“हाँ, मैं डाक्टर जे.सी.। पहचाना नहीं? घाना में था। अब तो साल-भर से यही हूँ…।”

“ओ, क्षमा करें, मैंने… दरअसल…।” अनुश्री शब्द टटोलते थोड़ा गड़बड़ा गई। शर्म-सी महसूस हुई, पहचाना क्यों नहीं उसने?

“मगर मैंने तो एकदम पहचान लिया। वही प्यारी-सी आवाज…।”

डॉक्टर एकदम आत्मीय हो उठे थे। वर्षों के अंतराल के बाद भी यह आदमी भीतर की तरलता को बनाए रख सका है। दसेक वर्ष तो हो ही गए उसे देखे हुए। पिछली बार तभी तो देखा था जब एक सेमिनार के सिलसिले में घाना से स्वदेश आए थे।

डॉक्टर जे.सी. पद्मश्री एंथोनी सी.के. के बेटे, जिन्होंने ताउम्र लेपरोसी पर काम किया। बहुत पुराने बहुत आत्मीय मित्र लेकिन कुछ भी न लगते डॉक्टर की आवाज में वही शालीन अपनापन था। फोन पर लगा दो नीली-भूरी छोटी आँखें, चेहरे पर कुनकुनी धूप-सी फैलती मुस्कुराहट से अधिक छोटी और ज्यादा चमकदार नजर आने लगी हैं। पक्के रंग के इकहरे शरीर पर चमकदार बुशर्ट पहने डॉक्टर, जिन्होंने बारह वर्ष के घाना-प्रवास के दौरान आशय को एक प्रतिष्ठित पद के लिए आमंत्रित किया था। पर आशय-अनुश्री उन लोगों में से हैं जो देश-विदेश का अनुभव समेटने की ललक रखने के बावजूद अपने देश के किसी कोने में सुरक्षित सरकारी नौकरी और लोगों की दिन-ब-दिन कमजोर पड़ती आत्मीयता से खुद को लपेट रखने में आश्वस्ति का अनुभव करते हैं। वे उनका यह उदार आमंत्रण स्वीकार न कर सके थे। डॉक्टर ने लिखा था – ‘रिसर्च के लिए कुछ अच्छी सुविधाएँ हैं यहाँ। इन लोगों के पास पैसे की कमी भी नहीं। अमरीका-इंग्लैंड भी भेज सकते हैं। और फिर तुम चाहो तो तीन-चार साल बाद भारत वापस लौट सकते हो।’

उन्होंने आशय की हिचकिचाहट भाँपकर एक लंबा पत्र लिख दिया था, जिसमें इंस्टीट्यूट के पूरे विवरण रिसर्च की सुविधाओं देश-विदेश के विद्वान प्रोफेसरों आदि की जानकारी देने के साथ अंत में जोड़ दिया था – ‘फिर मैं भी तो यही हूँ। यानी मेरे रहते तुम्हें आशंकित रहने की क्या जरूरत?’

आशय अभिभूत हो उठे थे। वे डॉक्टर जे.सी. के शब्दों की गहराई से अच्छी तरह वाकिफ थे। यूनिवर्सिटी के अध्यापन काल में वे आशय के विभागाध्यक्ष रह चुके थे। शुरू-शुरू में जो कठिनाइयाँ युवा अध्यापकों के सामने आती हैं, चाहे वे विद्यार्थियों के संबंध में हो या अकादमी की राजनीति से जुड़ी हों आशय के सामने भी आई थी। लेकिन डॉक्टर ने कभी उसे निरुत्साहित न होने दिया। हर मुश्किल आसान करने को वे तैयार रहते थे।

डॉक्टर को देखते ही आशय को इंस्टीट्यूट के दिन याद आ गए। याद आया उनका असीम धैर्य और कार्यक्षमता। कभी न थकने वाले डॉक्टर इस वक्त जाने क्यों थके-थके से नजर आए। डॉक्टर से ज्यादा शायद उनका पूरा माहौल थका-ऊबा लग रहा था।

डॉक्टर के पीछे-पीछे आशय-अनुश्री कमरे में दाखिल हुए। दरवाजे पर टँगे परदे से मेल खाते आए परदे खिड़कियों पर भी टँगे थे, जो हवा के थपेड़ों से बाहर लहरा रहे थे और आँगन की गर्दभरी बाढ़ और नारियल के एक अकेले पेड़ को फोकस में ले आते थे।

यों डॉक्टर की आँखों में स्वागत की वही चमक थी। मिसेज जे.सी. भी उनके साथ-साथ कमरे में चली आई। उनसे मिलने की अनुश्री को बड़ी उत्सुकता थी। वह उनसे बेहद प्रभावित रही हैं। इस बीच में कई देश-विदेशों में घूम आई थी। उनके पास नए अनुभव भी, जाहिर है होंगे ही।

कमरे में चार अधपुरानी कुर्सियाँ थी, जिनके तार जगह-जगह उधड़ आए थे। यह बात अनुश्री-आशय ने हल्के धक्के के साथ नोट की। लेकिन डॉक्टर और मिसेज जे.सी. छिटपुट बातें करते रहे उन सबसे बेखबर जैसे वे हमेशा इसी घर में इसी तरह रहते आए हों। अनुश्री-आशय को अचानक बीस साल पहले का उनका इंस्टीट्यूट वाला क्वार्टर याद आ गया। सलीके और ‘लेडी टच’ का आभास देता, कश्मीरी कार्पेट से सजा उनका ड्राइंग रूम, दीवारों के रंग से मेल खाते हैंडलूम के भारी परदे, बोनचाइना की कलात्मा क्रॉकरी, बेकतरीन क्यूरोज मेज पर किश्तीनुमा फूलदान में सजी फूलों की इकेबाना सजावट।

बातें इंस्टीट्यूट की होती रहीं, बीस वर्ष पहले साथ बिताए दिनों की। वार्षिक उत्सव, कालेज फेस्टिवल, सेमिनार कहाँ नहीं थे डॉक्टर? प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, अध्यापकों के मिले-जुले प्रोग्राम में डॉक्टर सबसे आगे रहते। अपनी पर्सनैलिटी पर आप ही फिदा मिस्टर बेदी कह भी देते कभी खुंदक में आकर – ‘इस काले कौव्वे में जाने क्या जादू है कि मार-तमाम फेयर सेक्स उधर ही गुड़ की मक्खी बना हुआ है। हमें कोई घास ही नहीं डालता, सरासर ज्यादती नहीं हुई यह?’

‘लड़कियों की तो बात छोड़ो यार उन्हें तो ऊपर वाला भी नहीं समझ पाया। पर इन फाइनल इयर के दादों को तो देखो, हमारी नाक में दम कर रखा है। आधे से ज्यादा विद्यार्थी लेक्चर के वक्त कैफेटेरिया में घुसे रहते हैं। इनके सामने देखो क्या मासूम बच्चे बने आगे-पीछे घूम रहे हैं। वे कौन-सा जादू कर देते हैं मालूम नहीं…।’

डॉक्टर दयाल भी उनके जादुई असर से कम कुढ़ते नहीं थे। सच भी था जो दादे विद्यार्थी जरा-सा उकसाए जाने पर मेज-कुर्सियाँ तोड़ने लगते थे और अध्यापकगण उनके गुस्से से खौफ खाकर कॉरीडोर से गुजरते अपनी गर्दनों पर अकारण छुरे, चाकुओं की तेज धार महसूस करने लगते वहीं धाकड़ विद्यार्थी डॉक्टर जे.सी. के सामने निहायत सीधे व आज्ञाकारी बने रहते। पूछे जाने पर डॉक्टर अपने इस जादू का कारण हँसकर समझाते – ‘बच्चों को शिक्षा देने से पहले उनके मनों को तैयार करना पड़ता है। जो आप उन्हें सिखाते हैं उसे ग्रहण करने के लिए वे तैयार भी होने चाहिए। यों तो रटने से तोता भी राम-राम रटता है…।’

लेकिन तमाम कुढ़न के बावजूद, क्रिसमस, ईद की पार्टी पर, उनसे खुंदक खाने वाले सहकर्मी भी सपरिवार उनकी पार्टी में गर्मजोशी से शामिल हो जाते। बड़ी रौनक होती उन पार्टियों में। हरे दूबिया लॉन पर राजरानी और मधुमालती की लताओं में सजे रंग-बिरंगे बल्बों की रंगीन परछाइयाँ और स्त्री-पुरुषों की मिली-जुली चहक। मुँहलगे विद्यार्थी तो रहते ही। डॉक्टर सभी के चहेते जो बन गए थे।

डॉक्टर आशय के अनुभवों के बारे में पूछते रहे –

“अध्यापकों से इंड्रस्ट्री में जाने का अनुभव कैसा रहा तुम्हारा? दो-एक साल बाद ही तुम एम.एस. के लिए अमरीका गए थे। ठीक याद है न मुझे?”

“हाँ, दो साल बाद लौटकर आया था, तभी से इंडस्ट्री में हूँ। उन दिनों युवा था। अध्यापकी, लगा था, ज्यादा मैच्योर उम्र के लिए है।”

“दरअसल दो-तीन वर्ष पढ़ाते हो ये खुद को बूढ़ा महसूस करने लगे,” अनुश्री ने जोड़ दिया, “कुछ नया जोश भी था मन में कुछ ठोस करके दिखाना है…।”

“ठोस?”

“मतलब कोई परिवर्तन। इंड्रस्ट्री की कार्य-व्यवस्था में, मालिक-मजदूर संबंध में, ज्यादा उत्पादन के तरीकों पर रिसर्च, वगैरह।”

“यह तो अच्छी बात है। आशय बड़े मेहनती रहे हैं।” डॉक्टर ने प्रशंसा की।

आशय कुछ झेंप-से गए, “करना तो बहुत कुछ चाहता है आदमी, पर हो कहाँ पाता है?”

“कोशिश भी करे आदमी तो बहुत है,” डॉक्टर ने कुछ सोचते हुए सिर हिलाया, “यों समस्याएँ हैं बहुत।”

“मुझे से लगता है डॉक्टर, कहीं गहरे में कुछ गलत है, हमारे सोच में हमारे काम करने के ढंग में…।”

आशय के पास कारण थे। उनकी फैक्ट्री में मजदूरों को टेरीकॉट के ड्रेसेज दिए जाते हैं, टैबलेट सेक्शन में काम करने के लिए। वे हर दूसरे महीने ब्लेड-कील लगाकर फटे ड्रेस दिखाते हैं। उन्हें मालूम है फटे ड्रेस पहनकर वहाँ काम करने की इजाजत नहीं है। पर उन्हें क्या ले देंगे नए ड्रेस। माँगों का कोई अंत नहीं। हर चार महीने बाद इन्क्रीमेंट चाहिए। हम जानते हैं महँगाई दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है; पर यारो, काम भी तो करो ईमानदारी से। फैक्ट्री को कोई फायदा भी हो। यह बात उनसे कहो तो घेराव शुरू। डिस्गस्टिंग।

आशय तैश में आ गए। डॉक्टर के साथ महिलाएँ भी बहस में शामिल हो गई। सामाजिक चरित्र से लेकर राजनीतिक चरित्र तक का पोस्टमार्टम। विशाल देश, समस्याएँ। “सदियों की गुलामी के बाद मिली आजादी सुधार होते-होते भी तो समय लगेगा। कोई जादू की छड़ी तो नहीं है हमारे पास कि फेर दो और देश खुशहाल हो गया।” अनुश्री ज्यादा आशावादी है।

“जादू की छड़ी होती है उनके पास जोलगन और ईमानदारी से काम के प्रति समर्पित होते हैं। समस्याएँ किसके पास नहीं होते? रूस ने कम सहा? नेपोलियन, हिटलर, युद्ध की विभीषिकाएँ। उनके मुकाबले में तो गाँधी बाबा की कृपा से, बिना खून-खराबे आजादी मिली हमें। पर हमने उसका कोई फायदा उठाया?”

“ठीक है,” डॉक्टर ने अनुमोदन में सिर हिलाया, “ए नेशन नीड्स कैरेक्टर।”

“येस, कैरेक्टर! इसकी मिसाल है जापान। दूसरे महायुद्ध के बाद क्या बचा था वहाँ? खंडहर! पैसा तो अब बनाया उन्होंने। आज देखो अमरीका-रूस के लिए चुनौती बन गया है वह…।”

डेढ़ बज गया तो मिसेज जे.सी. ने क्षमा-याचना करते याद दिलाया कि खाने का वक्त हो गया है।

खाने में कुल तीन चीजें थीं। मेलमोवियर की सादी क्रॉकरी धुले मेजपोश पर जमा दी गई थी। मिसेज जे.सी. ने स्टोव पर पुलाव गर्म कर दिया। घर में गैस भी नहीं थी। नौकर कोई नजर नहीं आया।

मेज पर पकवानों के बारे में बातें हुई, छिटपुट।

“मछली बहुत जायकेदार है।”

“फ्लेवर कुछ अलग लग रहा है न?”

“छौंक में कलौंजी डाली है और खूब-से टमाटर।” मिसेज जे.सी. ने घाना स्पेशल फिश की रेसीपी बताई। डॉक्टर अपने हाथ से गांगूराम के स्पेशल संदेश और पुहाल के रसगुल्ले खिलाते रहे।

पिछवाड़े के बरामदे में गुलाब के कुछ गमले रखे थे। यौवन से भरपूर, कँटीली डालों पर झुके-झुके लजीले गुलाब। कुछ तो उचक-उचककर आसमान ताक रहे थे।

“बहुत सुंदर।” अनुश्री खुशी से ज्यों चीख पड़ी।

“कौन देखता है इन्हें?” अनुश्री प्रशंसा किए बिना नहीं रही, “मेरे यहाँ तो गुलाब में कीड़ा लग जाता है। दवाई वगैरह भी डालूँ तो पत्तियाँ कुछ बिखरी-बिखरी रहती हैं। बीमार-सी। आपके ते बोड़े गठे हुए हेल्दी गुलाब हैं…।”

“मैं आप ही देखती हूँ। पानी में भिगोए गोबर का घोल और चाय की पत्ती की खाद फायदा करती है। गुलाबों को।”

पिछवाड़े के आँगन में साफ-सुथरी चद्दर पर बारीक छलनी से ढँकी मुगौड़ियाँ सूख रही थी जिन्हें मिसेज जे.सी. ने खुद बनाया था।

“थोड़ा वक्त लगता है यह बड़ियाँ बनाने में। इसमें हम पेठा मिलाते हैं।”

“आप खुद करती हैं ये सब?”

“हाँ मुझे करना भी क्या रहता है दिन भर! खाली रहती हूँ।”

क्या-क्या काम करती हैं मिसेज जे.सी.?

घाना में अध्यापिका रहीं। उम्र-भर पढ़ने-पढ़ाने का काम किया। फिर बच्चे भी पास थे। हजार शौक थे अब अकेले हैं। अकेले में जितना काम करो उतना मन लगा रहता है।

वे लोग फिर ड्राइंग रूम में आ गए थे। आशय ने जाने क्यों फिर से अपनी फैक्ट्री और अनुशासनहीनता की बात शुरू कर दी। इधर उन्हें आए दिन घेराव और नारों का सामना करना पड़ रहा है, जायज-नाजायज माँगों के लिए। “हमारे हाथों में सीमित शक्ति है, इस बात को कोई समझने की कोशिश नहीं करता…।”

क्या आशय यह चाहते थे कि डॉक्टर उन्हें समस्या का समाधान सुझाएँ – उन दिनों की तरह जब वे समस्याओं के उगने से पहले ही उन्हें दफन करने का गुर जानते हैं?

लेकिन इस बीच कितना पानी पुलों के नीचे से बह गया था। डॉक्टर खामोशी से सुन रहे थे। मिसेज जे.सी. के भीतर कभी-कभा दबा-दबा-सा आक्रोश सिर उठाता, पर तत्काल ही दुबारा भीतर डुबकी लगा देता, “गुंडाइज्म! इस गुंडाइज्म में कोई ईमानदार आदमी काम कैसे करेगा?”

डॉक्टर ने क्षण भर के लिए पत्नी को देखा और नजरें खिड़की के बाहर नारियल के पेड़ पर जमा दी। कमरा एकदम चुप हो गया ज्यों कोई उदास बच्चा मुँह पर उँगली रखकर चुप हो गया हो। बाहर आँगन का उजाड़ फैलाव ज्यों भीतर घुस आया और नंगे फर्श पर टीकवुड की छोटी-सी मेज ज्यादा छोटी दिखाई देने लगी।

डॉक्टर के माथे पर हल्के बल पड़ गए थे। किसी अप्रिय सोच में आधी बंद आँखें खोलते वे कमरे की अचानक चुप्पी से चौंकते-से बोल उठे, “अब इधर काम करना मुश्किल हो गया है। सब ऐसा ही है। ऊपर से नीचे तक!”

अनुश्री-आशय ने एक साथ डॉक्टर को देखा। यह आदमी, जिसे वे अजेय समझते थे, अचानक इस तरह के वाक्य कैसे बोल गया? इतना हारा हुआ क्यों दिखाई दे रहा है डॉक्टर?

मिसेज जे.सी. ने गंभीर होते माहौल को सहज बनाने की गरज से बात का सूत्र अपने हाथ में ले लिया। वे बच्चों के बारे में बात करने लगी। अलमारी में फोटो-अलबम निकाल अनुश्री-आशय को चित्र दिखाने में व्यस्त हो गईं।

“यह मेरी बड़ी बेटी प्रीति! शादी करके अमरीका में बस गई है।”

“ये धोती-कुर्ता पहने कौन?”

“राहुल, इसके पति। बंगाली है। शौक से धोती-कुर्ता पहनते हैं कभी-कभी।”

“नाइस बॉय! बेटी इंटेलीजेंट। आई.बी.एम. में इंजीनियर है” डॉक्टर भी बच्चों के चित्र देखते संवाद में शामिल हो गए।

“ये बड़ा बेटा है न दीपू? तब तो छोटा-सा था। बीसेक साल पहले। माई गॉड! कितना वक्त निकल गया।” अनुश्री ने दीपू को पहचान लिया।

“हाँ, यह रही इसकी दुल्हिन रीता। पंजाबी लड़की से शादी की है इसने।”

“हूँ। प्यार-व्यार का चक्कर?”

“और नहीं तो।” मिसेज जे.सी. मुस्कराई, “यह नन्हा इज्जक, हमारा पोता। आजकल नाइजीरिया में है।”

“बहुत प्यारा है न? पानी से खेलता कितना खुश दिखाई दे रहा है? ये-ये इधर कौन है, फ्रॉक पहने?”

“यह लिल्ली है। आपने देखी नहीं। थोड़ी देर से हुई।” छोटी बेटी की बात करते मिसेज जे.सी. के कपोलों में हरकत हुई। आँखों में जो निस्पृह भाव झलकता था, वह बेटी को देखते ज्यों धुलकर बह गया। होठों पर पिघलाव बड़ा भला लगा।

“ये बेबी सिटिंग कर रही है आजकल। अमरीका में बहन के पास। वेकेशंस है न?”

अलबम देखने के दौरान उन्होंने विभिन्न चित्र देखे, फेरी में नियागरा फाल्स देखती प्रीति किसी अँग्रेज के गुलगुले बेटे को सीरियल खिलाती लिल्ली। डिज्नीलैंड के डोनाल्ड डक और मिकी माउस के साथ बच्चों की तस्वीरें। अनुश्री-आशय चित्रों को देखते कहीं वाह, कहीं सुंदर, कहीं ‘क्यूट’ शब्दों से तारीफ करते जाते। तभी अलबम में रखे एक छोटे-से फोटो पैकेट पर उनकी नजर पड़ी। अनुश्री ने सहज उत्सुकता से पैकेट खोला। क्षणांश के लिए उसे लगा कि मिसेज जे.सी. का हाथ पैकेट लेने बढ़ा, पर उन्होंने अनुश्री तक पहुँचने से पहले ही हाथ वापस गोद में रख लिए।

लिफाफे में कुछ ब्लैक एंड व्हाइट चित्र रखे थे। अचानक एक चित्र पर उसकी नजर ठिठक गई। वह एक सोए हुए लड़के की तस्वीर थी। सफेद चादर से ढका शरीर। सिर के इर्द-गिर्द फूलों का ताज और चादर पर बिखरे गुलाब के ढेर सारे फूल। अनुश्री को समझ न आया कि यह कैसा चित्र है। आशय ने उसे मिसेज जे.सी. की तरफ प्रश्नाकुल आँखें उठाते देखा – “ये…।”

“चीकू!” मिसेज जे.सी. ने अब हाथ आगे बढ़ाकर लिफाफा वापस ले लिया। उनके चेहरे पर परछाई-सी डोली, ज्यों अचानक उनका कोई निजी सच अनावृत हो गया हो।

“ओह!” अनुश्री के चुस्त हाथ एकदम ढीले पड़ गए। कहा था आशय ने, चीकू नहीं रहा। डॉ. दंपति का जख्म अभी भरा नहीं होगा। उसे देखा था अनुश्री ने, माँ की गोद में किलकते, ठुनक-ठुनक कर चलते, गिरते-पड़ते, फुदने वाली सफेद टोप से ढका उसका गुलाब-सा चेहरा आँखों के आगे घूम गया। विश्वास नहीं आया। वह नहीं रहा। लेकिन मौत क्या अविश्वसनीय होती है?

बाद में कितने चित्र देखे। हँसते, खिलखिलाते। लेकिन कुछ याद नहीं रहा। एक ही चेहरा आँखों के आगे घूमता रहा, गहरी मीठी नींद में सोया चेहरा। अनुश्री उसे भूलने की कोशिश में संवाद में शामिल होती रही। पता नहीं डॉ. दंपति के भीतर क्या घुमड़ता रहा। वे पहले की तरह ही छिटपुट बातें करते रहे। लगा, वे उस स्थिति में हैं जहाँ सर्द-गर्म का आभास यकसाँ है, या स्वाद-स्पर्श का संवेदन ही शून्य हो गया है। पता नहीं बुद्ध को बुद्धत्व प्राप्त होने पर कैसी अनुभूति हुई होगी। संसार के सुख-दुख में तो कोई अंतर नहीं आया था।

अनुश्री के गले में कुछ फँसा जा रहा था, लेकिन वे दोनों अपने-अपने तूफानों को थामे शांत नजर आ रहे थे।

अलबम देखने से पहले उन्होंने जन्म-मरण पर बातें की थी। अनुश्री ने अपना डर उन्हें ताया था, “सोचती हूँ किसी दिन मैं न रही तो?”

वे दोनों उसकी बातें सुनते जा रहे थे, ज्यों बुजुर्ग बच्चों की बातें सुन रहे हों। अनुश्री भावुक होने लगी थी, “मुझे अपनी मौत से डर लगता है। बड़ी उदासी घिर जाती है। एक प्रश्न बार-बार कोंचता है, क्या किसी दिन सचमुच मैं उफनते सागर के चुंबन लेती सूर्य-किरणों को नहीं देख पाऊँगी? क्या गुगी, कोयल, नन्हीं पिड़कुल आम और अशोक की फुनगियों पर बैठी गाएँगी और मैं वह सदा सुन न पाऊँगी?”

डॉक्टर जे.सी. धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। काम से वैज्ञानिक और मन से पादरी। उनके भीतर का संत जाग उठा था, “मौत का डर उन्हें होता है श्री जिन्हें गॉड में फेथ नहीं। उनके कथन में विश्वास नहीं। मौत क्या है? एक नींद ही तो। एक मीठी नींद क्राइस्ट ने कहा है…।”

डॉक्टर का प्रवचन जारी हो गया था –

“डे ऑफ रिजरेक्शन! उस दिन, जब यह दुनिया नष्ट हो जाएगी, कब्रों में सोए सभी इनसान जाग उठेंगे। तब गॉड उनका फैसला करेगा। न्याय। पुण्यात्मा स्वर्ग में निवास करेंगे, गॉड के पास; और पापी…।”

अनुश्री को लगा था कि वह चर्च में बैठी फादर का सर्मन सुन रही है। मिसेज जे.सी. भी पति की ओर टकटकी बाँधे जाने कहाँ खो गई थी…।

…एक दिन आएगा, कब्रों में सोए इनसान जाग जाएँगे। जाग जाएगा उसका लाल। बीसेक साल का चीकू जिसके कोमल चेहरे पर मुलायम दूब-सी नन्हीं मूझें निकल आई थी और आँखों में सूर्य-किरणों का प्रतिबिंब झलक रहा था, जो इंजीनियरिंग कालेज के छात्रों की पाशविक रैगिंग का शिकार हो गया था कॉलेज-कैंपस में ही! ‘टेंपल ऑफ लरनिंग’ में हादसा! हत्या! नहीं, यह सब डॉक्टर ने नहीं कहा। उन्होंने कोई शिकायत नहीं की। ‘मृत्यु शब्द गलत है। आदमी मरता नहीं, सोया रहता है चिर निद्रा में’ यानी कि जाग जाएगा एक दिन उनका लाल। अभी सोया है वह गहरी नींद।

अनुश्री की देह में आतंक की पसीना-नहाई लहर उठी और रीढ़ की हड्डी कँपा गई। कितना उथला लगा होगा उसका डर उन लोगों के विश्वास के सामने?

“फेथ फेज इज दि ओली सेवियर!” डॉक्टर ने जोड़ा और अलमारी की ओर मुड़े। शायद कोई उद्धरण याद आते-आते रह गया। मिसेज जे.सी. ने प्रसंग को लंबा होते इशारा किया, “डॉक्टर साहब का प्रिय विषय है यह।” वे इस प्रसंग को बंद करना चाहती थी।

डॉक्टर एकदम आधी खाली अलमारी बंद कर आए। नहीं, जे.सी. उतना ही कहेंगे, जितना दूसरे सुनना चाहेंगे। वे अभी इतने बूढ़े नहीं हुए कि दूसरों को सुनने की ताब खो गए हों।

कॉफी पीने के बाद आशय विदा लेने के लिए उठे तो डॉक्टर बोले, “मैं कई दिनों से चाहता था तुम लोग आ जाओ। दिन-भर तुम्हारे साथ गुजारने की इच्छा थी। हम लोग शायद अब यहाँ से चले जाएँ…।”

आशय-अनुश्री चौंक गए। कही बुरा भी लगा। सालों बाद फिर से जुदा। आत्मीयता का सूत्र ज्यों किसी ने झटककर तोड़ना चाहा, “अचानक?”

“अचानक तो नहीं कई दिनों से महसूस कर रहा हूँ कि अब मैं यहाँ काम नहीं कर पा रहा।”

“मैं दीपू के पास नाइजीरिया जाना चाहती हूँ। ये शायद बरहमपुर चले जाएँ। वहाँ की यूनिवर्सिटी से ऑफर आया है। यों अभी कुछ तय नहीं हुआ?” मिसेज जे.सी. ने स्थिति को थोड़ा स्पष्ट कर दिया।

“पर आप अभी-अभी तो इस जगह पर आए हैं…।”

आशय डॉक्टर के हथियार डालने का कारण जानना चाहते थे, जोकि जानना इतना कठिन भी न था। डॉक्टर जिस प्रशासनिक व्यवस्था में फँस गए थे, उससे लाख कोशिश करने पर भी उबर न पा रहे थे। यों उन्हें डायरेक्टर का सम्मानजनक पद मिला था कुर्सी मेज, चपरासी, कुछेक क्लर्क व अन्य तामझाम। पर काम करने-करवाने का अधिकार नहीं। छोटी से छोटी जरूरत के लिए कमेटी के सामने हाजिर होना पड़ता था। इसमें भी उन्हें ऐतराज न था, “पर ये जो ‘अंडर हैंड मीन्स’ अपनाए जा रहे हैं हर जगह इसे सहना ही मुश्किल है। मैं इसका आदी नहीं रहा।”

बहुत खुलकर न बोलने पर भी उनका कष्ट समझ में आ गया। भाई-भतीजावाद की व्यवस्था में माल-पानी के विरोधी डॉक्टर, छोटे-छोटे अधिकारियों के हाथों में कठपुतली बनकर रह गए थे। उनकी फाइलें महीनों इस-उस मेंज पर पड़ी रहती उनके असिस्टेंट दबी जुबान से कह देते कभी, ‘सर कुछ नहीं तो फाइव स्टार में एक डिनर ही दें उन्हें। काम हो जाएगा?’ लेकिन डॉक्टर के गले नहीं उतरता उम्र-भर जो काम उन्होंने नहीं किया वह काम इस ढलती बेला में कैसे करें? वे अपने उसूलों के मारे थे।

वे धर्म का काम समझकर ब्लड-बैंक की दशा सुधारना चाहते थे। रद्दी, कामचोर स्टाफ की छँटनी कर कुछ काम करने वाले उत्साही लोगों को मौका देना चाहते थे पर इधर छोटे-से पद के लिए भी ऊपर से मिनिस्टरों के रुक्के आ जाते थे। अब आप ही कहो, मिनिस्टर के आदमी से काम करने की उम्मीद रख सकता है कोई?

मतलब डॉक्टर जे.सी. हारने लगे थे, गोकि उन्होंने कहा, “मैं तो अपने बारे में निश्चित हूँ। साठ का हो गया…।”

“उम्र की बात कहाँ से आई?” पत्नी ने पहली बार टोका। यह तो डॉक्टर का अंदाज नहीं है बात करने का। मिसेज जे.सी. जानती हैं, और ये भी तेजी से महसूस करने लगी हैं कि पिछले साल से वे एकदम बूढ़ा महसूस करने लगे हैं।

“बच्चे लिखते हैं – पापा, तमाम उम्र काम किया, अब थोड़ा आराम करो हमारे साथ कुछ अच्छे दिन गुजारो, लेकिन ये जाने क्यों मानते नहीं। उनके स्वर में ठंडी उदासी थी।”

डॉक्टर जे.सी. को, लेकिन, आराम की जरूरत नहीं। काम कितना पड़ा है करने को और जीवन कितना छोटा। और वे चाहते थे, अपना आखिरी वक्त वे अपनी जगह को दें। इस तरह उनके इंतजार का वक्त भी तो भर जाता था।

आशय चाहते थे कि डॉक्टर रहें। उनके रहते ब्लड-बैंक में काफी सुधार आ गया था। कुछ भी हो, काम को समर्पित एक व्यक्ति था वहाँ। लेकिन आशय क्या सुझाव देते? डॉक्टर, ज्यादा जानते थे।

“यों मिनिस्ट्री में मैंने अपनी बात भेज दी है। जबाव का इंतजार कर रहा हूँ। देखो, उन्हें मेरी सेवा की जरूरत होगी तो…।”

ये बात डॉक्टर के व्यक्तित्व के अनुरूप लगी। तो अभी पूरी हार नहीं मानी थी उन्होंने। यद्यपि उनके लिए एक और इंतजार की शुरुआत हो गई थी, ज्यादा अनिश्चित, ज्यादा तकलीफदेह, क्योंकि इस व्यवस्था में उनका विश्वास डगमगाने लगा था।

कुल मिलाकर डॉक्टर इंतजार कर रहे थे। काम करने को उतावला आदमी जब इंतजार करता है तो बड़ा निरीह लगता है। पर पति-पत्नी दोनों के अलग-अलग इंतजार में एक भीतर व्यस्तता थी, जो उन्हें शायद जिंदा रखे थी। नहीं तो सुविधाओं के अभ्यस्त डॉक्टर संपन्न बच्चों के साथ शेष दिन गुजार लेते, चूना उखड़ी दीवारों में न रहते। यदि रहते भी तो बाइबिल पढ़ने, प्रवचन देने, गुलाब उगाने और कभी-कभार मित्रों को घाना स्पेशल लंच खिलाने के अल्वा कुछ बदलने का इंतजार न करते।

आखिर नींद टूटने का इंतजार एकाध दिन-मास का इंतजार तो नहीं? फिर कुर्सियों की कब्र में सोए हुओं की नींद का क्या भरोसा? लेकिन विकल्प भी क्या था? फैसले की सुनवाई तो नींद टूटने पर ही होगी न?

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अलग-अलग इंतजार – Alag Alag Intajaar

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