और कितना सो सकेंगे | मालिनी गौतम
और कितना सो सकेंगे | मालिनी गौतम
आँज आँखों में तिमिर हम
और कितना सो सकेंगे ।
रेत पर हम उन निशानों को
नहीं हैं देख पाते
ज्वार जिनको लहर पर रख
मन मुताबिक फेंक जाते
स्वाति-जल को सीप में
ऐसे भला क्या बो सकेंगे ।
गली, नुक्कड़, गाँव क्या
सब प्रश्न हमसे पूछते हैं
चेतना के पट उठाकर
मौन से सब जूझते हैं
मुस्कराना दूर हम क्या
चैन से कुछ रो सकेंगे ।
छल-कपट के छंद रचते
सिर्फ निज सुर के पुजारी
आचरण में दुर्गुणों की
हर तरफ जिनके खुमारी
हो चले मोहरे उन्हीं के
और क्या अब हो सकेंगे ।
सब हड़पने की अबुझ-सी
प्यास ही सबको लगी है
रात की मत बात करिए
दिन दहाड़े ही ठगी है