उस स्त्री का नाम | इला प्रसाद
उस स्त्री का नाम | इला प्रसाद

उस स्त्री का नाम | इला प्रसाद – Us Stree Ka Naam

उस स्त्री का नाम | इला प्रसाद

फिल्म सचमुच बहुत अच्छी थी।

‘इतनी छोटी-सी फिल्म और इतनी बड़ी बात कह डाली, वो भी कितने खूबसूरत तरीके से; मानो फिल्म न हुई कविता हो गई।’ शालिनी बोल ही पड़ी।

‘अब घर जाकर तुम भी कोई कविता लिख लेना।’ राजेश मुसकराया।

भीड़ छँट रही थी।

सहसा एक स्त्री सामने आ गई, ‘तुम लोग किधर जा रहे हो?’

‘हमें नार्थ जाना है, नार्थवेस्ट।’ राजेश ने स्पष्ट किया।

‘तो फिर इन्हें राइड दे दो। इनको पता नहीं था कि फिल्म इतनी छोटी है। इन्होंने मेट्रो को साढ़े नौ बजे का टाइम दे दिया था।’

शालिनी ने मुड़कर देखा। बगल में एक वृद्धा चमकती हुई काली छड़ी का सहारा लिए खड़ी थी।

राजेश ने हामी भर दी। न कहना यूँ भी अनुचित होता और लोगों की सहायता करना तो राजेश की आदतों में शुमार है।

‘आप कहाँ से हैं? दिल्ली से?’ अब वह वृद्धा, शालिनी के बगल में चल रही थी।

‘नहीं, मैं तो पटने की हूँ। मेरे पति दिल्ली से हैं।’

‘तब तो दिल्ली आना जाना होता होगा।’

‘हाँ, बिल्कुल।’

‘मेरी बेटी के लिए लड़का बताना, बेटी। शादी ही नहीं करती। कहती है मेरा भाई अमेरिका में है। मुझे तो वहीं जाना है।’

‘हाँ, और आप भी तो यहाँ हैं। अमेरिका में।’ शालिनी मुसकराई। इन वृद्धों को सारे समय बाल-बच्चों की पड़ी रहती है। चाहे वे परवाह करें न करें। मिलते ही शुरू हो गईं।

उसने कार का पीछे का दरवाजा खोल दिया।

वृद्धा अंदर जा बैठी।

राजेश जैसे इंतजार ही कर रहा था। शालिनी के बैठते ही उसने कार स्टार्ट कर दी।

‘बहुत अच्छी फिल्म थी। मैं भी ऐसी ही थी। अपने बच्चों के लिए किसी से भी जाकर लड़ लेती। मेरे बच्चे हैं भी बहुत प्यारे। मैं तो दिल्ली में नौकरी कर रही थी। पढ़ाती थी स्कूल में। वहाँ तो रिटायरमेंट 58 साल में हो जाती है।’

‘हाँ, हाँ, जानती हूँ मैं।’ अगली सीट से शालिनी ने हामी भरी।

‘आपके पास सेल फोन होगा। मैं मेट्रो को इन्फार्म कर दूँ कि मेरी राइड कैन्सिल कर दे। अरे, आपका नाम तो पूछा ही नहीं।’

‘मैं शालिनी हूँ और यह राजेश।’ शालिनी ने अपना सेल फोन पीछे हाथ बढ़ाकर दे दिया।

‘बड़ा अच्छा नाम है। आपके पति हैं भी बड़े सुंदर। नाम तो आपका भी बड़ा सुंदर है।’

‘शालिनी ने राजेश को देखा। आँखों ही आँखों में बोली, ‘मस्का लगा रही हैं।’ राजेश ने उसका हाथ दबा दिया। शालिनी ने आँखों ही आँखों और इशारों से नाराजगी व्यक्त की, ‘तुम सुंदर हो, मैं नहीं।’ राजेश ने मुश्किल से हँसी रोकी।

वृद्धा व्यस्त थी, ‘यस, माई नंबर इज एट वन थी टू एट सिक्स नाइन। यस। आइ हैव गौट अ राइड। प्लीज कैन्सल माई नेम। थैंक यू। थैंक यू।’

सेल फोन शालिनी को वापस हो गया।

यह सुविधा है अमेरिका में। बूढ़े, बीमार-अपाहिज लोगों के लिए अलग बस सर्विस है। बस, पहले से बुक करना होता है। बस आपको आपके बतलाए गए स्थान तक आकर ले जाएगी और फिर नियत समय पर, जो आपने तय किया है, आपके घर वापस छोड़ जाएगी। वैसे अपने कई वृद्ध परिचितों के अनुभव से शालिनी जानती है कि यह हमेशा सच नहीं होता। कई बार घंटों का इंतजार भी इस व्यवस्था में शामिल है। अंततः थक हार कर न जाने का फैसला भी। ऐसे में कई बार राजेश ने सहायता की है। कई लोगों की। कभी हास्पिटल जैसी जरूरी जगहों तक ले जाना, ले आना भी हुआ है और घर पर बैठी शालिनी अपनी अनभिज्ञता में कुढ़ती रही है। जब राजेश का स्वतंत्र व्यवसाय नहीं था, तब वह खुद भी समस्या के इस पहलू से अनभिज्ञ था। तब न वे ज्यादा मंदिर जाते थे, न पिक्चर। राजेश सप्ताह के पाँच दिन सुबह सात बजे घर से बाहर हो जाता और रात आठ बजे ड्राइव वे में कार की रोशनी शालिनी को देखने को मिलती। उन पाँच दिनों में शालिनी घर के काम देखती। बच्चों को घर पर ट्यूशन पढ़ाती और घर-बाजार के बीच समय निकल जाता। सप्ताहांत में राजेश सोना चाहता। यह कुछ गलत भी नहीं था। फिर किसी का जन्मदिन, किसी की कोई और पार्टी। समय बस यूँ… निकल रहा था।

लेकिन अब उनके पास अपने लिए वक्त है।

‘तुम्हारे बच्चे कितने हैं?’ कार की पिछली सीट से सवाल उभरा।

‘हमारे बच्चे नहीं हैं।’ शालिनी ने जवाब दिया।

‘कितने बरस हो गए शादी को?’

‘तीन साल।’

‘अभी ज्यादा समय नहीं हुआ। हो जाएँगे। शुरू में सब लाइफ इन्ज्वाय करते हैं।’

शालिनी को कुछ अच्छा नहीं लगा। दूसरों के फटे में पैर अड़ाना इन बूढ़ियों की आदत होती है। वह चुप रही।

‘मैं आशीर्वाद देती हूँ। तुम्हारे बच्चे हों।’ वे अब आशीर्वाद पर उतर आई थीं।

‘थैंक यू।’ – और क्या कहे कोई!

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शायद राजेश को जरूरी लगा कि वह भी इनका हिसाब करे।

‘आपका बेटा यहाँ रहता है?’ राजेश ने पूछा।

‘हाँ, हाँ, मेरे दो बेटे हैं। दोनों यहीं सैन ऐंटोनियो में। तुमने सोमेंद्र कपूर का नाम सुना है?’

‘नहीं।’

‘अरे बहुत बड़ा बिजनेस है उसका। रियल इस्टेट का। सँभाल नहीं पाता। सारे वक्त उसी में लगा रहता है। कहता है, माँ इतना काम मुझसे सँभाले नहीं सँभलता।’

तुम भी तो रियल इस्टेट बिजनेस में हो न? नहीं जानते?’

‘नहीं।’ राजेश ने ईमानदारी से स्वीकार किया।

‘बहुत बड़ा बिजनेस है।’

शालिनी ने सिर घुमा कर पीछे नहीं देखा किंतु आवाज में तृप्ति का भाव स्पष्ट था। उसे यह बहुत सहज लगा। भारत में माता-पिता बच्चों के लिए ही तो जीते हैं और उनकी सफलता/समृद्धि में सुखी होते हैं। सुखी हैं यह भी…!

‘अरे, मैं तो भारत में थी। वालंटरी रिटायरमेंट लिया। सोमेंद्र रोने लगा। माँ, तू यहीं आ जा मेरे पास।’

‘अच्छा।’

शालिनी को फिर से फिल्म याद आने लगी थी। बेटा स्कूल से पिट कर आया है। अपने कमरे में जाकर रो रहा है। माँ देखती है, बेटे ने खाना नहीं खाया। जाकर पूछती है। नहीं बतलाता। वह उसके चेहरे को देखकर समझ जाती है और फिर निकल पड़ती है, बेटे के साथ हुए अन्याय का प्रतिकार करने।

नादिरा बब्बर ने क्या खूब ऐक्टिंग की है।

क्या तेवर थे। लगता था सारी दुनिया को आग लगा देगी। काली माँ !

आँखों के आगे फिल्म की माँ नादिरा बब्बर का चेहरा घूम गया।

‘सोमेंद्र को फुरसत ही नहीं। सारे वक्त लगा रहता है। कारोबार तो जितनी मेहनत करोगे, बढ़ेगा। आक्शन में घर खरीदता है, फिर रेनोवेट करके बेच देता है। मुझे भी ले गया कई बार आक्शन में। बोली लगाने। फिर मैंने कहा, मैं नहीं जाने वाली। तू ही जाया कर।’

शालिनी समझ गई। रियल इस्टेट उसकी समझ में आता है। उसने भी यहाँ अमेरिका आने के बाद एक कोर्स किया ताकि राजेश का काम समझ सके बल्कि टाँग अड़ा सके। कमसे कम राजेश यही कहता है। ‘करती-धरती तो हो नहीं कुछ, बिना माँगे सलाह देनी है बस। जब मन आया टाँग अड़ा दी।’

तो इनका बेटा बड़ा बिजनेसमैन है। शादीशुदा? बाल-बच्चों वाला? इस क्षेत्र में जो जमे हुए लोग हैं कई सालों से, वे सचमुच अमीर हैं। टेक्सास, जो अमेरिका का सबसे बड़ा राज्य है, में अब भी खाली जमीन बहुत है और जैसे-जैसे आबादी बढ़ रही है, विभिन्न व्यवसायों से जुड़े लोग यहाँ आकर बस रहे हैं, पूरे राज्य में ही छोटी-बड़ी इमारतों की संख्या बढ़ रही है। इस शहर में भी बड़ी तेजी से जंगल कट रहे हैं और उनकी जगह ईंट गारे के जंगल उग रहे हैं। लेकिन इतना फर्क तो तब भी है कि सबकुछ बड़े सुनियोजित तरीके से होता है यहाँ। कोई नया सबडिवीजन बनता है तो हरियाली बनाए रखने के लिए हर घर के सामने एक पेड़ होता है। सड़क के किनारे पेड़ होते हैं। यानी कि कुछ ऐसा कि पेड़ों को भी तब इनसान की मर्जी से उगना होता है। वे यूँ ही अपनी मर्जी से कहीं भी नहीं उग सकते। नहीं रोक सकते आपके हिस्से की धूप या रोशनी बल्कि उसके हिस्से की धूप या रोशनी आप तय कर रहे हैं। सिर्फ उनके हिस्से की ही नहीं, सबके हिस्से की। इनसान खुदा हो गया है यहाँ। तब भी कितना असंतुष्ट है अपने अंदर!

‘पैसे का क्या है बेटा। जितना भी कमा लो। क्या फायदा। लाइफ इन्जाय भी करनी चाहिए।’ वे कह रही थीं।

‘हाँ, ये तो है।’

‘तुम तो घर पर ही रहती हो। कभी मुझे भी कॉल कर लिया करना।’ वह शालिनी से कहने लगीं।

इस बीच राजेश ने वालमार्ट में कार रोक दी थी। गैस लेनी थी। वे कार्ड बनवाने अंदर चले गए थे।

‘नहीं, मैं बहुत व्यस्त रहती हूँ। एक आनलाइन कोर्स कर रही हूँ। फिर योगा क्लासेज लेती हूँ। घर के काम। यहाँ तो कोई हेल्प नहीं होती। सबकुछ आपको ही करना है।’

‘तुम योगा सिखाती हो। तुममें क्वालिटी है। बड़ी अच्छी लड़की हो तुम।’

शालिनी ने सोचा, राजेश को वापस आने पर चिढ़ाएगी। तुम देखने में अच्छे हो। क्वालिटी तो मुझमें है!

‘आराम से, आराम से। मुझे कोई हड़बड़ी नहीं है। जितनी देर, जहाँ रुकना हो, रुक सकते हो।’ वे राजेश से वापस आने पर बोलीं।

‘नहीं, बस हो गया। कार में गैस लेनी थी। आपको शुगरलैंड की तरफ जाना है न?

‘हाँ, मैं रास्ता बताती चलूँगी। हमेशा आती-जाती हूँ न। इतने सालों से इधर हूँ। सोमेंद्र ने कहा, जब मैं नई अमेरिका आई तो बहुत बार कहा, माँ तुम कार चलाना सीख लो। मैं तुमको नई कार खरीद कर दूँगा। तुम सीखो तो। लेकिन मैं नहीं कर पाई।’

‘हाँ, एक उम्र के बाद मुश्किल होती है।’

‘लेकिन मैं नौकरी करती थी। एक बार गिर गई आफिस में। तो जाँच हुई। फिर पता चला कि खड़ी नहीं हो सकती। तो तब से रिटायर हो गई। यही एक बीमारी है। लगातार खड़ी नहीं रह सकती देर तक।’

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शालिनी चुप रही। लेकिन उन्हें जैसे बोलने का मर्ज था। फिर शुरू हो गईं – ‘बेटी, तू मेरी बेटी के लिए लड़का बतलाना।’

‘हाँ, जरूर।’

‘किसी को बहुत सुंदर लड़की चाहिए तो मेरी बेटी से शादी करे। दिल्ली में अच्छी नौकरी है उसकी। बाइस हजार कमाती है। बहुत अच्छा गाती भी है। घर के सारे काम आते हैं। बस एक ही बात है पाँच फुट एक इंच की हाइट है। पैंतालिस साल की हो गई। कोई लड़का ही पसंद ना आए उसे।’

‘आप इंडिया अब्रोड या भारत मैट्रीमोनियल में विज्ञापन दे दीजिए। हमारी शादी भी विज्ञापन से ही हुई थी।’

‘अरे दिया था न। बहुत रिश्ते आए। उसको कोई लड़का ही पसंद नहीं आया।’

तो शालिनी का सुझाया लड़का पसंद आ जाएगा, इसकी क्या गारंटी। वह क्यों इस पचड़े में पड़े। मुँह से बोली, ‘हाँ जरूर।’

मन में सोच रही थी। एक उम्र के बाद शायद सब ऐसे ही हो जाते हैं। वह भी बूढ़ी होने पर क्या इसी तरह हर किसी से बोलती रहेगी। इतना अकेलापन लगेगा कि किसी को जाने बिना, पहली मुलाकात में ही अपनी कहानी सुनाने लगेगी! भगवान न करे, ऐसा हो। या कि शायद वह कुछ ज्यादा ही आत्मकेंद्रित है जो इस तरह सोच रही है। यहाँ आकर असामाजिक हो गई है। वरना, अगर बेटी अधिक उम्र तक बिन ब्याही रहे तो हर माँ-बाप को चिंता होती है! हो सकता है, बेटे लापरवाह हों इस बारे में। कुछ भी हो सकता है। उसे क्या? इन्हें इनके घर तक छोड़ दो, छुट्टी पाओ। कायदे से तो इनके बेटे को आना चाहिए था इन्हें लेने…!

किधर टर्न लेना है? राइट या लेफ्ट? फॉंड्रेन ड्राइव तो आ गया। सिगनल पर गाड़ी रोक कर राजेश ने पूछा।

‘राइट ले लेना, बेटा।’

सिगनल अभी लाल ही था।

‘तुम पत्रिकाएँ पढ़ती हो?

‘हाँ, मैं पत्रिकाएँ बहुत पढ़ती हूँ।’ शालिनी ने स्वीकार किया।

‘मेरे पास ढेरों पड़ी हैं सरिता, मनोहर कहानियाँ। मैं बहुत पढ़ती हूँ। मुझसे ले लेना।’

‘मेरे पास भी कई पत्रिकाएँ आती हैं। भारत से, दूसरे देशों से भी।’

‘अच्छा।’

‘आपके बेटे की उम्र कितनी है? राजेश की उत्सुकता उनके बेटे में बनी हुई थी।

‘वह पचपन का हो गया। अब तो उसके बच्चे भी बड़े हो गए। कॉलेज में पढ़ते हैं सब। बड़ा बेटा डाक्टर है। बहू भी डाक्टर। इन डाक्टरों की भी क्या लाइफ है। डाक्टर को तो डाक्टर से ही शादी करनी ठीक है। समय ही नहीं होता इनके पास किसी के लिए।

‘हाँ, ये तो है।’

‘पैसा कमाने की मशीन बन जाते हैं। कोई लाइफ ही नहीं।’

फिर रुककर बोली, ‘मेरी शादी तो चौदह साल की उम्र में हो गई थी। ससुराल में सब बड़ा लाड़ करते। नाम लेकर तो कोई बुलाता ही नहीं था। राणो ही बुलाते। मेरे पति बहुत सुंदर थे। एक्दम गोरे। रशियन लगते थे। बहुत बड़ी नौकरी थी। रेलवे में।’

‘आप अमेरिका कब आईं?

‘बताया न, बेटे ने बुला लिया। मैं तो उनकी मौत के बाद भी दिल्ली में नौकरी कर रही थी। अब बस बेटी है वहाँ। उसी के लिए चिंता है। शादी हो जाए तो वो भी यहीं आ जाए।

‘हाँ, सो तो है।’

उनका घर पास आने लगा था।

‘मुझे बेटा डिप्रेशन की बीमारी है। योगा करने से ठीक होता है क्या? लेकिन मैं तो खड़ी नहीं रह सकती। देर तक बैठ नहीं पाऊँगी। आसन लगाना होगा नहीं।’

‘सत्संग में जाया कीजिए।

‘हर सप्ताह जाती हूँ। मेट्रो से।’

‘आपका बेटा नहीं आता?

उसको कहाँ फुरसत है। काम ही काम है।

‘तब भी, बहू होगी न?’

‘अरे नहीं। सब बिजी हैं। ये अमेरिका की लाइफ ही ऐसी है।’

शालिनी ने मन ही मन समर्थन किया। किंतु, बहू-बेटा कभी-कभी तो साथ दे ही सकते हैं। कौन जाने उन्हें मंदिर जाना ही पसंद न हो। बहुत सारे नास्तिक भरे पड़े हैं दुनिया में। खुद वह भी ऐसी कोई ईश्वर भक्त नहीं है। मंदिर में मित्रों से मिलना-जुलना हो जाता है और दर्शन-प्रसाद पाकर संतुष्ट हुए लोग घर लौटकर भोजन बनाने की चिंता से भी मुक्त रहते हैं। आए दिन एक एक मित्र से उसके घर जाकर मिलना संभव होता नहीं, न ही हर सप्ताहांत में वह ही सबको अपने घर बुला सकती है। तो मंदिर मिलन- स्थल है। लेकिन इनके बहू-बेटे के लिए शायद ऐसा कोई कारण भी न हो!

अमेरिका ही ऐसा देश है जहाँ अपनी मर्जी से जीता है हर कोई। इन्हें देखो, मेट्रो लेकर कहाँ कहाँ चली जाती हैं। सत्संग, सिनेमा। इनके बेटे-बहू को तो क्या फर्क पड़ता होगा? वे अपनी दुनिया में। माता जी अपनी दुनिया में। और राजेश तो सीधे-सीधे कहता है, ‘हम यंग हैं, हम आशा भोंसले शो में जाएँगे। इन बूढ़ों को मंदिर जाने दो।’ वही प्लान बनाती है दोस्तों के साथ तो कभी-कभी मंदिर जाना भी हो जाता है।

सेल फोन की घंटी बजी। शालिनी ने देखा, रेडियो शो के प्रायोजक का फोन था।

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‘नहीं, इस सप्ताह तो मैं व्यस्त रहूँगी।’

संक्षिप्त बातचीत और उसने फोन बंद कर दिया।

‘बेटा, तुम रेडियो में प्रोग्राम देती हो?’

तो ये सुन रही थीं। समझ गईं। शालिनी मन में मुसकराई।

‘हाँ देती हूँ, कभी-कभी।’

‘मुझे भी बताया कर। मैं भी सुन सकती हूँ, तुम्हारा प्रोग्राम।’

‘जरूर।’

मन में सोचा, जबरदस्ती दोस्ती लगाने की कोशिश में हैं। शायद कोई बात करने को नहीं मिलता। राजेश फिर रुका, अगला दिशा निर्देश पाने के लिए।

‘बस इसी गली में। वो जो ऊँची बिल्डिंग देख रहे हो ना बेटा, पता है वो एक वकील की है। सारे दिन कारों की भीड़ लगी रहती है। पार्किंग को जगह नहीं होती तो लोग सड़क पर पार्क करते हैं। बहुत कमाता होगा। क्या करेगा इतना कमा कर!’

‘बहुत कमाता है या फ्री कंसल्टिंग देता है?’ राजेश हँसा, ‘हो सकता है, फ्री एडवाइज देता हो, इसी लिए सब चले आते हों।’

‘अरे नहीं। मेरी बिल्डिंग ठीक इसके पीछे है ना। मेरी खिड़की से दीखता है। मैं जानती हूँ। फ्री कुछ नहीं।’

‘अच्छा।’

‘इतना कमाता है। क्या करेगा इतना कमा कर। पैसा कमाने की मशीन हैं सब।’

बुड्ढों की यही प्राब्लम है। सारी दुनिया का हिसाब रखेंगे। इन्हें क्या पड़ी है? कुछ भी करे वकील। कोई लाइफ इन्जाय करे न करे, आपको क्या। आपने तो अपनी जिंदगी जी ली न। अब बुढ़ापे में भगवान का नाम लो। शांति से जियो। नाती-पोते भरा संसार है आपका। शालिनी ने भन्नाकर सोचा।

‘बस इधर गेट से अंदर ले लेना। छह माले की बिल्डिंग है ना वो सामने। उसी में।’ वह कह रही थीं।

शालिनी ने चौंक कर देखा। यह किसी के घर जैसा तो नहीं लगता। अपार्टमेंट हैं। इनका अमीर बेटा अपार्टमेंट में रहता है!

‘कोंडो हैं। गवर्नमेंट सारा खर्चा देती है। रिटायर हुई जब नौकरी से तब से यहीं रहती हूँ। बस 33% मुझे भरना है। बिजली, पानी सब फ्री। ओल्ड एज लोगों का जो रिटायरमेंट होम होता है न। वही है। यहीं रहती हूँ। यहाँ सामने किनारे करके रोक दो।’ वे बतला रही थीं।

शालिनी जैसे किसी रहस्यलोक से वापस आई।

‘आप ऊपर कैसे जाएँगी? राजेश ने पूछा।

‘लिफ्ट है। तुम लोग भी आओ। थोड़ा साथ बैठेंगे।

‘नहीं, फिर कभी। आज देर हो गई है।’ राजेश ने थोड़ी आजिजी से कहा।

‘माफ करना, मैंने तुम लोगों को देर करा दी।’

‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। हमें फियेस्टा जाना है। ग्रोसरी करनी है।’ शालिनी ने बात सँभाली।

अब इतनी रात गए सप्ताहांत में फियेस्टा के सिवा कुछ और तो खुला होगा नहीं। सब्जियों के लिए वह वालमार्ट जाना पसंद नहीं करती, भले ही वह चौबीस घंटे खुला रहता हो। शालिनी ने झूठ नहीं बोला था। और अपने बारे में यही बात उसे पसंद है। वह कभी भी झूठ नहीं बोलती।

बिल्डिंग के नीचे पोर्टिको में कुछ स्पैनिश, चाइनीज, मेक्सिकन वृद्धाएँ बैठी थीं। एक युवा लड़का भी जो शायद उनमें से किसी से मिलने आया था। उन्हें कार से उतरते देख वे मुसकराईं। शालिनी ने उनकी छड़ी उन्हें पकड़ा दी। सहारा दिया और पोर्टिको तक छोड़ आई।

वापस आकर राजेश से बोली, ‘ये यहाँ रहती हैं!’

‘इसीलिए तो तुम्हें कॉल करने को कह रही थीं।’

‘लेकिन मैंने तो उनका फोन नंबर लिया ही नहीं।’

‘दिया तो है न अपना।’

‘लेकिन मुझे भी कहाँ समय है कि सबका दुख बाँटूँ। इनके बेटे बहू ने जब बुलाया तो खयाल रखें।’

‘होगा कुछ, खुद ही आई होंगी।’

‘क्या पता …आकर तो नौकरी कर रही थीं।’

‘कब शुरू की नौकरी, तुम्हें क्या पता।’

लौटते हुए शालिनी सोच रही थी। जिंदगी और कहानी के बीच की सीमा रेखा कहाँ है? फिल्म अच्छी थी। सच्ची लगी। माँ का संतान के प्रति सुरक्षात्मक रवैया, उसकी सुख- सुविधा की चिंता करती माँ। कभी काली, कभी अन्न्पूर्णा! …लेकिन उसके बाद? जब बच्चे बड़े हो जाते हैं, अपनी दुनिया बसा लेते हैं, उसके बाद की कहानी तो कही ही नहीं गई। बहुत छोटी थी फिल्म। कितना कुछ तो अनकहा रह गया उस फिल्म में।

उस फिल्म का आखिरी दृश्य शालिनी लिखेगी। फिर से। उस फिल्म को वहाँ पर खतम नहीं होना चाहिए था। वह एक बड़ी फिल्म बनाएगी। कितने नाम नारी के। सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा, काली… क्षमा, स्वाहा, स्वधा… लेकिन बुढ़ापे में बच्चों को सारी सुख- सुविधा देने के लिए ओल्ड एज होम चली जाने वाली/भेज दी जाने वाली स्त्री के इस रूप का नाम क्या है? उसे डिप्रेशन की बीमारी है। वह खड़ी नहीं रह सकती देर तक। असहाय, लाचार वह अपनी खिड़की से वकील को पैसे कमाते देखती है। बेटे के फोन का इंतजार करती है। परिचित-अपरिचित की सहायता लेती है और बतला भी नहीं पाती कायदे से अपनी कहानी। देवी के इस रूप का नाम क्या है? दुर्गा सप्तशती में कहीं लिखा है क्या? शालिनी ढूँढ़ेगी।

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