उदासीनता का अभिशाप
उदासीनता का अभिशाप

मैं जहाँ भी प्रकृति देखता हूँ
मुझे वह भुसभरी नजर आती है।
प्राणों के महीन स्पंदन की जगह
उसमें ठोस बुरादा है सही आकार के लिए।
मैं हर जिंदा जान पड़ती वस्तु
को छूता हूँ कि गलत साबित होऊँ
वह मुझसे चाहे पीछे हटे, लिपट जाए
या फिर मुझे लपक कर काट ही ले
मगर ऐसा कुछ भी नहीं घटता आमने-सामने
खड़ी रह जाती है वह एक जड़ आकार-सी वहीं
और मैं उसके इस पार से उस पार निकल जाता हूँ।
यह किसी क्रिया की प्रतिकिया खो जाने सा है
यह मेरे जीवन की निर्दय निष्क्रियता की घड़ी है
यह एक संवाद का इकतरफा बोझिल स्थापन है
यह उस नास्तिकता से घिर कर पागल हो जाना है
जहाँ सबकुछ इतना देवमय है कि शैतान खो गया है
प्यार में देवता-सा उदासीन हो जाना सबसे बड़ा शाप कहलाता है
जो मौन ही मौन में तन तोड़कर मन मार देता है
और मैं आँखों को पर्दों-सा ताने ढूँढ़ता हूँ
कि कुछ अँधेरा ही मिले तो, न सही कोई रंग!
कि संदर्भों की भीड़ में टकराए तो कोई प्रसंग!

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *