इधर-उधर सतर्कता से निगाहें डालकर, उस छोटे-से खत को उन्‍होंने मेरी मुट्ठी में ठूंस दिया। एक क्षण के लिए तो मैं सिहर उठा। इस खत में क्‍या लिखा होगा! मेरे विवर्ण पड़ते चेहरे को देखकर वह अकारण खांसने लगीं, और उठते हुए बोलीं, ”आप जरा उस निबन्‍ध को देखिये, जो मैंने कल रात लिखा है। मैं समझ गया कि वह क्‍यों उठकर जा रही हैं। शायद वह मुझे अवसर देना चाहती हैं, कि मैं उनके पत्र को एकान्‍त पाकर पढ़ लूं। उनके जाने के बाद थोड़ी देर तक मैं महसूस करता रहा, कि मेरी सांस ठीक नहीं चल रही है। मैंने कभी उम्‍मीद नहीं की थी, कि वह मुझे इस प्रकार चोरी से कोई खत लिखकर देंगी। और फिर इस शुरूआत के लिए कोई गुंजाइश भी कहां थी?

बात दरआसल यह है कि एम. ए. पास करने के बाद अभी तक मुझे कोई ढंग का काम नहीं मिला। इधर-उधर खासी दौड़-धूप की, लेकिन आप जानते हैं कि इस जमाने में छोटी-मोटी डिग्रियों के भी कोई मानी नहीं हैं। आप बगल में अपनी श्रेष्‍ठता के बंडल लिये घूमते रहिये, कोई दो कौड़ी के लिए भी आपको नहीं पूछेगा। मेरी हालत से दुखी होकर मेरे एक मित्र ने शहर के एक पुराने रईस श्री गोपीनाथ जी से मुझे मिलवाकर किसी नौकरी की सिफारिश करने के लिए कहा। उन साहब ने मेरी बात बड़ी हमदर्दी से सुनी, और मेरे विषय में सारी बातें पूछने के बाद बोले, ”फिलहाल जब तक कोई नौकरी नहीं मिलती, आप हमारी रमा को पढ़ाते रहिये। आपको सौ रूपया माहवार मिलेगा। लड़की स्‍मार्ट है, और बी. ए. में पढ़ती है। लेकिन खुद से पढ़ने नहीं बैठती। इस बहाने उसकी स्‍टडी बंधे हुए ढंग से चल निकलेगी।”

शुरू में गोपीनाथ का यह प्रस्‍ताव मुझे बहुत अटपटा लगा, और महसूस हुआ कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि वह मेरी सहायता करने के बहाने ही यह तजवीज पेश कर रहे हों। मेरे कुछ कहने से पहले ही नौकर को बुलाकर उन्‍होंने कहा, ”जाओं, रमा को बुलाकर लाओ।” चार-पांच मिनट बाद सिर झुकाये हुए, एक लम्‍बी-सी लड़की कमरे में आयी। अब छिपाने में क्‍या रखा है? सच लड़की को देखकर मुझे लगा कि ऐसी सुन्‍दर लड़की अगर पढ़ाने को मिल जाय, तो उसे पढ़ाते रहकर मैं जिन्‍दगी काट सकता हूं। तीखे नाक-नक्‍श और गौर-वर्ण की उस लड़की ने जब आंखे ऊपर करके हम लोगों की ओर देखा, तो मैं देशकाल की सुध भूल गया। उसने हम लोगों को हाथ जोड़कर नमस्‍कार किया, और सिर झुकाकर खड़ी हो गयी। लड़की के पिता उससे हंसकर बोले, ”शर्म की क्‍या बात है? अजय अंकल (मेरा दोस्‍त) के मित्र कल से तुम्‍हें पढ़ाने आया करेंगे।”

लड़की ने एक बार फिर मेरी ओर आंखें उठायीं और गर्दन को थोड़ा-सा हिलाकर स्‍वीकार की मुद्रा प्र‍दर्शित की। उसके खुले हुए बाल कन्‍धों पर बिखरकर अत्‍यन्‍त आकर्षक लग रहे थे। लड़की स्‍वभाव से गम्‍भीर और कुछ हठी लगती थी। दरअसल पहली बार उसे देखकर मुझे जहां अदम्‍य आकर्षण का अनुभव हुआ, वहीं साथ ही साथ एक अनाम-सा भय भी मेरे भीतर व्‍याप गया।

उसके बाद वह चली गयी। मैं और अजय गोपीनाथजी के साथ इधर-उधर की बातें करते हुए चाय पीते रहे। गोपीनाथ जी बड़े सुरूचिसम्‍पन्‍न और पढ़ने-लिखने के शौकीन मालूम हुए। उनका मकान बहुत लम्‍बा-चौड़ा था, और उनका कहना था कि परिवार के प्रत्‍येक सदस्‍य के लिए उस मकान में अलग-अलग कमरे हैं। जमींदारी खत्‍म होने से पहले ही उन्‍होंने अपना फार्म बना लिया था, और उनके भाई-भतीजे उसे देखते थे। शहर में भी उनके पास कई मकान थे, और अपनी मोटर थी। मैं अगले दिन पहुंचने की बात कहकर उनके यहां से बहुत आश्‍वस्‍त होकर लौटा। रास्‍ते में मेरा दोस्‍त हंसते हुए बोला, ”देख बे हौलू, एक बात पहले से कहे देता हूं, छोकरी बहुत हसीन है। कालेज के लौंडे उसके लिए आहें भरते हुए घूमते हैं। जरा बचकर जिम्‍मेदारी से काम करना।…और हां, एक बात का खास ख्‍याल रखना। रमा जरा जिद्दी किस्‍म की है। उससे ज्‍यादा अकड़-फूं भी मत दिखाना।” अजय ने मेरा कंधा थपथपाया और एक आंख थोड़ी दबाकर बोला, ”हालांकि सौ रुपये तेरे लिए कम हैं, लेकिन थोड़ी सब्र कर। आगे कुछ चांस बनेंगे। और फिर इस बेकारी के जमाने में इतनी खूबसूरत लड़की भी तो देखने को मिलेगी। तेरा पेट तो बातों से ही भर जाएगा।”

मैंने अपना मनोभाव छिपाते हुए कहा, ”मुझे उसकी खूबसूरती से क्‍या मतलब? उससे मुझे शादी-ब्‍याह थोड़े ही रचाना है। अरे भाई, पढ़ाने की बात है। और पढ़ाना भी क्‍या है? रईसों के चोचले हैं, नहीं तो जब अच्‍छी-खासी चल रही है, तो ट्यूशन के झंझट की क्‍या जरूरत है?”

”अबे उल्‍लू की दुम, यह क्‍यों भूल जाता है कि राजा, रईस कलाकारों को हमेशा पनाह देते आये हैं। उन्‍होंने सोचा, चलो, इसी बहाने देश के एक भावी कलाकार की परवरिश हो जायेगी।”

अजय की बात से मुझे ठेस लगी। तो यह भी हो सकता है कि मुझे कवि समझकर रमा के पिता यह गुमनाम-सी मदद कर रहे हों मैंने अजय को तो नहीं बताया, लेकिन फैसला कर लिया कि मैं इस ट्यूशन को हाथ में नहीं लूंगा।

अगले दिन मैं गोपीनाथ जी के यहां नहीं पहुंचा, तो तीसरे दिन गालियां बकता हुआ अजय आ पहुंचा ”आप इतने लाट साहब हो गये हैं? रमा दो दिन से बराबर किताबें लेकर बैठती है, और आपने वायदा करने के बाद भी सूरत तक नहीं दिखायी।”

मैंने अजय से अपने मन की बात कही तो वह हो-हो करके हंसने लगा। हंसी का दौरा थमने के बाद कहने लगा, ”ओफ! कमाल कर दिया! तो यह आपका स्‍वाभिमान प्रकरण चल रहा है। चल बे मरकट, आया बड़ी शान वाला! सीधे-सीधे पहुंच, नहीं तो रईस साहब मुश्‍कें बंधवाकर मंगवा लेंगे।”

किस्‍सा कोताह यह, कि मैं अजय की धींगामुश्‍ती से गोपीनाथ जी के यहां जा पहुंचा। गोपीनाथ जी को सच बात मालूम नहीं हो पायी कि मैं उनके यहां क्‍यों नहीं गया था। रमा बहुत-सी कापी-किताबें मेज पर रखे मेरा इन्‍तजार कर रही थी। गोपीनाथ जी के पूछने पर मैंने बताया कि मेरी तबीयत अचानक खराब हो गयी थी। तबीयत खराब होने की बात सुनकर रमा ने सहसा अपनी आंखें मेरी ओर उठा दीं। एक पल के लिए हम दोनों की आंखें टकराईं, और मैं उनकी गहराइयों में दूर तक डूब गया। मुझे लगा कि अपनी कुर्सी पर मैं जमकर न बैठा तो शायद गिर पड़ूंगा। गोपीनाथ जी से बातें करते हुए मेरे होंठ सूख रहे थे, और गले में एक गोला-सा अटक गया था। मैंने सोचा कि इस तरह इस लड़की को कैसे पढ़ाया जा सकेगा? लेकिन उसने बड़े वक्‍त पर मेरी सहायता की। पहले का लिखा हुआ अपना एक प्रश्‍न मेरे सामने रख दिया। चेहरे पर भरसक गम्‍भीरता का नकाब ओढ़कर मैं उसकी लिखी हुई पंक्तियों पर नजर दौड़ाने लगा। बड़े यत्‍न से लिखा हुआ सुलेख देखकर मुझे अपने लेख की याद आ गयी। मेरे लेख का यह हाल है कि कागज पर एक या दो पंक्तियों तक तो मैं मजमून लिखता हूं, उसके बाद मुझे स्‍वयं लगने लगता है कि ऐसी घसीट सिर्फ मरते हुए आदमी का हाथ खिंच जाने से ही लिखी जा सकती है।

पढ़ाई-लिखाई बाकायदा शुरू हो गयी। रमा का कमरा बाहर सड़क पर ही पड़ता था। सड़क से तीन-चार सीढियां चढ़ने के बाद चिक हटाकर कमरे में घुसा जा सकता था, और इसके लिए मकान के बरामदे में भी जाने की जरूरत नहीं थी। मुझे यह व्‍यवस्‍था सुविधाजनक लगी, क्‍योंकि पहले एक सप्‍ताह में मेरी खासी शामत रही थी। रमा गोपीनाथ जी वाले कमरे में पढ़ने बैठती थी, तो थोड़ी देर में ही गोपीनाथ जी आ जाते थे। और फिर खाने-पीने का जो सिलसिला शुरू होता था उसमें पढ़ाई के लिए ज्‍यादा गुंजाइश नहीं रह जाती थी। वह अत्‍यन्‍त शालीन और सहृदय किस्‍म के व्‍यक्ति थे। उन्‍हें इस बात की रत्ती-भर परवाह नहीं थी कि जिस आदमी को महीने में रुपये पढ़ाने के लिए दिये जाते हैं, उससे कसकर काम लिया जाना चाहिए। वह मनमौजी और बातूनी आदमी थे, इसलिए जैसे ही मैं उनकी पकड़ में आता, वह रमा की पढ़ाई भूलकर दुनिया भर की बातें करने लगते। हालांकि रमा कुछ नहीं कहती थी, चुपचाप सिर झुकाकर कुछ लिखती-पढ़ती रहती थी, लेकिन मुझे बराबर एहसास होता रहता था कि लड़की बेचारी बोर हो रही है।

रमा की पढ़ाई-लिखाई में मैं विशेष मददगार साबित नहीं हो सका। वह अपना सब काम ठीक-ठाक कर लेती थी। मुझसे एक-दो प्रश्‍न अलबत्ता पूछ लेती थी, और घंटे-डेढ़ घंटे तक किताबों में नोट्स तैयार करती रहती थी। बहुत होता था तो मैं उसके लिए एकाध प्रश्‍न स्‍वयं लिखकर ला देता था। गोपीनाथ जी से बातें करते हुए उसने मुझे कई बार देखा था, इसलिए वह जान गयी थी कि मैं कुछ कविता वगैरह भी लिखता हूं। रमा के अध्‍ययन-कक्ष में हर तरह की सुविधा थी। और गोपीनाथ जी के कमरे से मुझे यह इसलिए भी बेहतर मालूम हुआ, कि यहां खाने-पीने का कोई तकल्‍लुफ नहीं था। चाय आती थी और मैं अपनी मर्जी से जो चाहता था, ले लेता था।

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एक शाम मैं कुछ देर से पहुंचा। रमा की स्‍टडी का दरवाजा खुला हुआ था, लेकिन वह अपनी कुर्सी पर नहीं थी। मैं अपनी कुर्सी पर जाकर बैठ गया और रमा की किताबें देखने लगा, तभी चिक के बाहर कोई द्वार पर आकर खड़ा हो गया। मैंने उधर आंखें कीं, तो देखा कि एक गठीले बदन का एक खिलाड़ी किस्‍म का लड़का एक हाथ में रैकेट और दूसरे हाथ में एक पुस्‍तक लिये खड़ा है। मैं उठकर दरवाजे पर गया, तो उसने लरजती आवाज में बड़ी सभ्‍यता से पूछा, ”रमा नहीं है क्‍या?”

मैंने जवाब दिया, ”रमा अन्‍दर होगी। बैठिए, मैं बुलवाता हूं।”

वह जल्‍दी दिखाते हुए बोला, ”नहीं, बुलाने की जरूरत नहीं । रमा ने एक किताब मंगाई थी। मैं वही देने आया था। आप उन्‍हें दे दीजियेगा।”

क्षण तक इधर-उधर करके वह फिर बोला, ”आप ही रमा के ट्यूटर हैं?”

मैंने स्‍वीकार की मुद्रा में सिर हिलाया, और उसके हाथ से पुस्‍तक ले ली। पुस्‍तक मेरे हाथ में देकर वह भोलेपन से मुस्‍कराया और सीढियों से सड़क पर छलांग लगाकर ओझल हो गया। मैं किताब हाथ में लिये लौट पड़ा, और आकर कुर्सी पर बैठ गया। मैंने सोचा कि गोपीनाथ जी के किसी मित्र या परिचित का लड़का होगा या हो सकता है कि रमा की किसी सहेली का भाई हो, रमा ने कोई किताब मंगाई होगी। खेलने जाते हुए रास्‍ते में देकर चला गया। बिना किसी विशेष उत्‍सुकता के मैंने किताब खोल ली। लेकिन पुस्‍तक का नाम देखकर मुझे थोड़ा आश्‍चर्य हुआ। पुस्‍तक बच्‍चन की कविताओं का संग्रह ‘आकुल अन्‍तर’ था। एक कविता के साथ छोटी-सी कोरी चिट भी लगी थी। इस कोरी चिट ने कविता को रेखांकित भी कर दिया था, कैसे आंसू नयन संभालें।’ न जाने क्‍यों, मैं यकायक हतप्रभ हो गया। शायद अपने अनुमान के विपरीत मुझे यह जानकर निराशा हुई कि यह लड़का निश्‍चय ही रमा का प्रेमी है। मैंने रमा और उसके साथ की कल्‍पना की, तो मैं दोनों की जोड़ी को किसी प्रकार नकार नहीं सका। थोड़ी देर बाद रमा लौटी, तो मैंने बिना एक शब्‍द भी बोले, चेहरे पर अत्‍यधि‍क व्‍यस्‍तता का भाव लाकर उस लड़के द्वारा दी गयी पुस्‍तक रमा के हाथ में थमा दी। रमा ने बड़े सहज ढंग से वह किताब देखी। उसने समझा कि उसके लिए मैं कोई सहायक पुस्‍तक लाया हूं। लेकिन जैसे ही उसने पुस्‍तक खोलकर ‘आकुल अन्‍तर’ देखा, विस्‍मय से मेरा मुंह देखने लगी। हालांकि उसकी दृष्टि के भाव को मैं बहुत गोपन ढंग से देख रहा था, परन्‍तु मैंने अपने चेहरे को और भी अधिक सख्‍त और तटस्‍थ बना लिया। रमा के चेहरे पर उभरती परेशानी और प्रश्‍नात्‍मकता देखकर मैं बड़ी गम्‍भीरता से बोला, ”आपके लिए कोई साहब अभी-अभी दे गये हैं।” मेरे शब्‍द सुनते ही रमा ठठाकर अवज्ञा से हंस पड़ी, ”अच्‍छा तो यह बात है।”

अभी तक रमा को मैंने इतना खुलकर हंसते नहीं देखा था। उसके ‘अच्‍छा तो यह बात है’ कहने में व्‍यंग्‍य था या निश्‍चय ही इसका उस समय मुझे कुछ आभास नहीं हुआ। मैं स्‍वयं में सिमटकर बैठ गया। मेरे मुख पर शायद अनायास ही यह भाव आ गया होगा। मुझे क्‍या मतलब? मैं यह जानने की कोशिश ही क्‍यों करूं, कि आपको कौन-कौन प्‍यार करते हैं, या प्रेम इजहार कविता की पुस्‍तकें देकर करते हैं?

आगे चलकर मैंने देखा कि वह लड़का बीच-बीच में मेरे पढ़ाते समय ही आता और चिक के बाहर खड़ा हो जाता। उसने कमरे के भीतर घुसने की कभी चेष्‍टा नहीं की। उसके आने पर रमा उठती और उससे पुस्‍तक लेकर शान्‍त मन से अपनी कुर्सी पर आ बैठती। पहले दिन रमा को देखकर मैं यह कल्‍पना भी नहीं कर सकता था कि वह एक दिन मेरी उपस्थिति में ही रोमांस का यह प्रकरण शुरू कर देगी। कुछ हो, इस लड़के की क्रियाओं ने मेरे उड़ते मन को एक सन्‍तुलन दे दिया। अब अपनी ओर उसकी स्थिर दृष्टि पाकर मैं अनमना होकर आंखें इधर-उधर कर लेता या उठकर दीवार पर लगी पेंटिंग्‍स देखने लगता। मुझे ऐसा करते देखकर रमा बड़े रहस्‍यमय तरीके से मुस्‍कराने लगती। उसकी ऐसी मुस्‍कराहट काफी तंग करने वाली साबित होती थी। इसका क्‍या मतलब है? क्‍या रमा मेरे मन का भाव जानती है कि मुझे उसमें दिलचस्‍पी है? और व‍ह मुस्‍कराहट मेरी भावनाओं का उपहास कर रही है, कि ‘जरा इन्‍हें भी देखिए! यह भी मुझे प्‍यार करने का सपना देखते हैं!’

प्रायः एक महीने के बाद मैंने पाया, कि रमा को पढ़ा पाना मेरे लिए बड़ी कठिन परीक्षा है। गोपीनाथ जी ने महीना पूरा होने के कई दिन पहले एक लिफाफे में सौ रुपये का नोट रखकर मुझे दे दिया। वह लिफाफा लेते हुए मुझे एक अजीब‍-सी अनुभूति हुई। और इस पारिश्र‍मिक को पाने के बाद रमा के चेहरे की ओर आंखें उठाना भी मेरे लिए असम्‍भव हो गया।…

एक शाम जब मैं रमा को पढ़ाने पहुंचा, तो कमरे की झाड़पोंछ करता हुआ गोपीनाथ जी का नौकर रामकरन बोला, ”मास्‍टर साब, रमा बहन जी तो अभी-अभी किसी सहेली के साथ गयी हैं।”

मुझे उसकी बात सुनकर एक अजीब-सी निराशा हुई। होना तो यह चाहिए था कि मैं प्रसन्‍न होता कि चलो, एक शाम खाली मिल गयी। लेकिन मेरी समझ में बिल्‍कुल नहीं आया, कि इस समय मैं क्‍या करूं। मेरे बहुत-से मित्र थे जिनसे जाकर गप लड़ा सकता था। और कुछ नहीं तो सिनेमा देखने ही जा सकता था। पर मैं वहीं सोचता खड़ा रह गया। जीवन में पहली बार भयंकर उखड़ेपन का एहसास हुआ। रमा ने यह क्‍या कर डाला? नौकर मेरे अन्‍तर्द्वन्‍द्व की झलक न पा जाय, इसलिए मैंने पूछा, ”कै बजे लौटेंगी?”

नौ‍कर ने संक्षिप्‍त-सा उत्तर दिया, ”मालूम नहीं, मास्‍टर जी, कि कब आयेंगी।”

मैं मुड़कर जाने ही बाला था कि रमा की छोटी बहन प्रतिभा आ गयी। मुझे जाते देखकर बोली, ”सर, आपको पापा जी बुलाते हैं।”

मैं रमा के कमरे से बाहर निकला और सड़क पर उतरकर बरामदे से होता हुआ गोपीनाथ जी के कमरे में दाखिल हो गया। गोपीनाथ जी आंखों पर चश्‍मा चढ़ाये सामने फैले हुए टाइप किये गये पृष्‍ट पढ़ने में तल्‍लीन थे। गोरे रंग की भूरी-भूरी देह वाली एक सुन्‍दर महिला सोफे पर बैठी एक मोटी-सी किताब पढ़ रही थीं। उन्‍होंने मुझे देखकर अपने सिर पर साड़ी का पल्‍ला खींच लिया और मुंह थोड़ा दूसरी ओर घुमा लिया। इन महिला को मैंने कभी नहीं देखा था। वह गोपीनाथ जी की पत्‍नी तो किसी भी तरह नहीं लगती थीं। गोपीनाथ जी की उम्र देखते हुए वह बहुत कम अवस्‍था की थीं। मैंने समझा कोई मेहमान होंगी। मुझे आया देखकर गोपीनाथ जी कुर्सी से खड़े होकर बोले, ”आइए, आइए, माधव बाबू, बैठिए। रमा तो आज अपनी सहेलियों के साथ फिल्‍म देखने गयी है।” फिर उन्‍होंने महिला की ओर हाथ करके कहा, ”इन्‍हें भी पढ़ने का बड़ा शौक है। देखिए, कितना मोटा उपन्‍यास पढ़ रही हैं। कल रात इन्‍होंने जब से यह उपन्‍यास हाथ में लिया है, किसी और शै में इनका मन ही नहीं लग रहा है। शादी से पहले कविता भी लिखती थीं।” यह कहकर वह जोर से हंस पड़े।

उनके कविता वाले प्रसंग से वह महिला एकदम अस्‍तव्‍यस्‍त हो उठीं, और उनका चेहरा रक्तिम हो गया। मेरे लिए यह एक बड़ी उलझन-भरी पहेली हो गयी। मैं उन महिला से परिचित नहीं था, और यह भी नहीं समझ पा रहा था कि उनकी उपस्थिति में मैं क्‍या आचरण करूं। हंसने के बाद गोपीनाथ जी संयत हुए, तो उनकी ओर देखकर बोले, ”भाई माधव बाबू, शादी के वक्‍त यह बेचारी बी.ए. में थीं। शादी के बाद कुछ ऐसा सिलसिला हुआ कि बी.ए. का इम्‍तहान दे ही नहीं पायीं। सोचती हैं कि अब यह भी प्राइबेट तरीके से बी.ए. की परीक्षा दे दें।”

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सिर हिलाकर मैंने उनकी बात का समर्थन किया ”बेटर लेट दैन नेवर।”

मेरी बात पर वह पुलकित होकर बोले, ”यस, हीयर यू आर! अच्‍छा, एक बात तो बतलाइए, क्‍या आपके लिए यह मुममकिन होगा कि आप थोड़ा वक्‍त इन्दिरा को भी दे दें?”

बात इतने सीधे ढंग से पूछी गयी थी कि मैं नकारात्‍मक उत्तर न दे सका। और फिर न जाने कौन-सी प्रतिक्रिया मेरे मन में रमा के प्रति आक्रोश उत्‍पन्‍न कर रही थी कि मैंने बड़े उत्‍साह से श्रीमती गोपीनाथ को पढ़ाने की स्‍वी‍कृति दे दी।

इन्दिरा जी गोपीनाथ जी की दूसरी पत्‍नी थीं। हालांकि इस विवाह को हुए सात वर्ष व्‍य‍तीत हो चुके थे, लेकिन इनसे अभी तक कोई सन्‍तान नहीं हुई थी। रमा और प्रतिभा दोनों लड़कियां पहली पत्‍नी से थीं, और उनका देहावसान हुए दस वर्ष बीत चुके थे। रमा को पढ़ाने के बाद मैं उन्‍हें पढ़ाने बैठता था। और वह बड़े उत्‍साह से अपनी पढ़ाई-लिखाई का काम करती थीं। कई बार कमरे में वह बिल्‍कुल अकेली होती थीं। गोपीनाथ जी बीच-बीच में आ जाते थे, और कार्यवश बाहर भी चले जाते थे। पढ़ाई के प्रति उनकी लगन रमा से कहीं अधिक थी। उनकी निष्‍ठा देखकर मैंने उन्‍हें पूरी सहायता देंनी शुरू कर दी। लेकिन इस शुरुआत से रमा कहीं बहुत आहत हो गयी। प्रकट रूप में यह बात मुझे प्रारम्‍भ में मालूम नहीं हुई पर मुझे अपने पास से अपेक्षाकृत जल्‍दी उठते देखकर उसने जो कुछ कहा, उससे बात गम्‍भीर हो गई। वह बोली, ”आप मौसी को पढ़ाने जा रहे हैं न ?” और मेरे हां कहने पर उसने टिप्‍पणी की, ”तो आप पहले उन्‍हें ही पढ़ा दिया कीजिए। आपको मेरे पास से उठने की बहुत जल्‍दी रहती है।”

रमा ने अपनी पूरी बात मेरी आंखों में स्थिरता से देखते हुए कही। कुछ देर के लिए तो मैं उसकी जलती हुई आंखों में संज्ञाहीन होकर खो गया। इस बात का क्‍या अर्थ हो सकता है? मुझे कहां जाने की जल्‍दी रहती है? क्‍या रमा यह समझती है कि मुझे रमा की विमाता को पढ़ाने में खास रूचि है? पता नहीं, उसकी बात से मुझे क्‍या हुआ, कि मैंने कह दिया, ”आपको बहुत देर तक पढ़ाते रहने की जरूरत भी क्‍या है? आप कालेज में पढ़ती हैं। मेरे पढ़ाने का आपके लिए महत्व ही क्‍या है? और इसके अलावा…”मेरे मुंह से निकलने वाला था कि ‘आपके लिए दूसरे आकर्षण भी हैं, सिनेमा है, प्रेमोपहार हैं’ लेकिन रमा के चेहरे पर उभरती विषण्‍णता और कष्‍ट को देखकर मैंने अपनी बात बीच में रोक दी।

वह गम्‍भीर होकर बोली, ”ठीक है। आप समझते हैं कि मुझे पढ़ाने का कोई अर्थ नहीं है तो मुझे छोडिये, मौसी को ही पढ़ाइए।”

बात बिना कारण तूल पकड़ती‍ दिखाई दी, तो मैं भी थोड़ी गरमा गया, ”तो इसका मतलब यह समझा जाय कि मैं कल से इधर न आऊं? अच्‍छा, तो नहीं आऊंगा।”

यह कहकर, मै तैश में उठकर जाने लगा, तो रमा ने यकायक मेरे कुरते का छोर पकड़ लिया और उसकी आंखों से बेतरह आंसू गिरने लगे। वह बड़ी कठिनाई से कह सकी, ”आप मेरा अपमान करके जा रहे हैं।”

रमा का यह अनोखा व्‍यवहार मेरी समझ में एकदम नहीं आया। मैं उसका अपमान करके जा रहा था, या वह मेरा अपमान कर रही थी? मैं अगर उसे पढ़ाने नहीं आऊंगा, तो इसमें उसका क्‍या बिगड़ जायगा? वह कालेज में पढ़ने वाली लड़की है। उसे जब-तब प्रेम का संदेशा पहुंचाने वाला एक लड़का भी है। मैं उसके जीवन में आता ही कहां हूं? रमा आखिर किस चीज के लिए रो रही है? मैंने यह सोचकर ऐसे वक्‍त घर का कोई आदमी या नौकर आ गया तो स्थिति संकटपूर्ण हो जायेगी, उसे समझा-बुझाकर शान्‍त किया, और पढ़ाते रहने का वायदा कर लिया। पर मेरे मन में यह कसक बराबर उठती रही कि रमा किसी और को प्‍यार करती है। मैं कई बार सोचता कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैं मात्र एक माध्‍यम हूं, जिसकी उपस्थिति में प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे से निरापद रहकर साक्षात्‍कार कर लेते हैं, और शक भी पैदा नहीं होता। लेकिन यह बात भी समझ के परे थी। कालेज में पढ़ने वाली लड़की क्‍या अपने प्रेमी से कहीं बाहर नहीं मिल सकती थी? लम्‍बे मानसिक द्वन्‍द्व के बाद रमा के रोने का कारण मेरी समझ में यही आया कि मेरे कठोर व्‍यवहार से उसने स्‍वयं को अपमानित अनुभव किया था, और इसी वजह से दुखी हो उठी थी।…

श्रीमती इन्दिरा गोपीनाथ पढ़ाई के अलावा भी बहुत-सी बातें करती रहती थीं। मुझसे कभी-कभी वह परिहास भी कर बैठती थीं, ”मास्‍टर बाबू, आपके बाल हमेशा माथे पर ही क्‍यों रहते हैं? क्‍या शायरी में आने वाली जुल्‍फें इन्‍हीं को कहा गया है?” मैं कभी मात्र उनका चेहरा देख लेता, या लजा जाता। लेकिन वह इतने पर ही बस न करतीं। कहने लगतीं, ”आपने तो बी.ए, एम.ए. सब कर डाला। अब कोई सुन्‍दर-सी लड़की खोजकर शादी क्‍यों नहीं कर डालते?” इस बात का उत्तर देते हुए मैं उनकी किताबों से भरी रैक की ओर संकेत करता, और कहता, ”देखती हैं, इनसे मेरी शादी हो चुकी है।” मेरी बात पर ठहाका लगाकर हंसतीं, और कहतीं, ”ओहो, तो इतनी सारी पत्नियां है आपकी! गोया, यहां भी आप ईर्ष्‍या जगाने का काम करते हैं।” उनके साथ वार्तालाप करते हुए घनिष्‍ठता जिस अनजान तरीके से बढ़ी, वह केवल वही लोग जान सकते हैं, जो किसी रईस की हंसोड़ और बेफिक्र बीवी के सम्‍पर्क में आये हों। लड़कियों से घनिष्‍ठता बरसों तक भी उस सीमा और प्रामाणिकता को नहीं पहुंचती, जितना कि किसी अनुभवी और शादीशुदा औरत के अल्‍पकालीन संसर्ग से पहुंच जाती है। और मजे की बात की य‍ह है कि आदमीं अपने-आपकों संकट से हमेशा दूर समझता रहता है।

इन्दिरा जी बड़े उत्‍साह से मेरा स्‍वागत करती थीं, और मिठाई वगैरह खिलाकर हमेशा मेरा पेट भर देती थीं। और ऐसे कार्यक्रम के बीच स्‍वाभाविक ही था कि मेरा अधिकांश समय उनके साथ ही बीतता। कई बार रात के नौ तक बज जाते, और मेरा खाना भी चुपके से वह वहीं मंगा लेतीं। मेरा विरोध कुछ काम न आता। गोपीनाथ जी कभी-कभी रात को देर से लौटकर मुझे वहां पाते और किताबें इधर-उधर बिखरी देखते, तो पुलकित होकर कहते, ”वेरी गुड! वेरी गुड! गुरू और शिष्‍या दोनों विकट जीव हैं। मैं तो समझता हूं कि इस वर्ष यह यूनिवर्सिटी के सारे प्रीवियस रेकार्ड तोड़ देंगी।” उनकी बात पर इन्दिरा जी बनावटी तरीके से गुस्‍सा दिखातीं, तो वह व्‍यस्‍तता से कहते, ”गुस्‍सा तो ठीक है। लेकिन मास्‍टर साहब को कुछ खिलाओगी-पिलाओगी भी या यों ही मुफ्त में ज्ञान-दान का सिलसिला चलता रहेगा?” मेरे यह कहने से पहले ही कि मैं भरपेट भोजन कर चुका हूं, इन्दिरा जी ताब दिखाते हुए चली जातीं, और गोपीनाथ जी से कह जाती, ”मास्‍टर बाबू इस मामले में कितने अड़ियल हैं, आप ही समझिए। हमसे काबू में नहीं आते।” कहना बेकार है कि फिर बाबू गोपीनाथ जी के हाथों मेरी बुरी गत बनती, और मेरा पेट बोरे की माफिक भर जाता।

लेकिन इसी बीच एक ऐसी घटना हो गयी, कि फिर इन्दिरा जी को पढ़ाना मेरे लिए प्रायः असम्‍भव हो गया। यही वह क्षण था, ज‍ब रमा का मनोभाव अनजाने ही मेरे सामने खुल गया। एक शाम मैं बहुत हल्‍के मूड में रमा को इतिहास की एक पुस्‍तक देने के लिए घर से निकला, तो गली के मोड़ पर शाम की डाक लिये पोस्‍टमैन मिल गया। उसने मेरे हाथ में एक लिफाफा थमा दिया। यह‍ लिफाफा एक मासिक पत्रिका के कार्यालय से आया था, मैंने उतावली में उसे फाड़कर देखा, तो मैं धक से रह गया। कोई ऐसी अनहोनी बात नहीं हुई थी। शायद वही कुछ हुआ था जो अकसर होता रहता था और जिसके लिए मैं हफ्तों तैयारी करता रहता था। सम्‍पादक महोदय ने इस बार भी मेरी कविताएं अस्‍वीकृत करके वापस कर दी थी, और कविताओं पर छपी हुई चिट लगी थी-‘सधन्‍यवाद वापस’। इसके बाद एक पंक्ति महीने टाइप में छपी थी, ”कृपया इसे किसी प्रकार का अनादर न समझें। इनका उपयोग अन्‍यत्र कर लें।” बेखबरी में अस्‍वीकृत कविताओं का लिफाफा मैंने इतिहास की पुस्‍तक में रख दिया, और रमा के यहां जा पहुंचा। रमा कमरे में अभी नहीं आयी थी। किताब को मेज पर रखकर मैं अपनी असफलताओं के विषय में न जाने क्‍या-क्‍या सोचने लगा। उदासी में भी कितनी बड़ी एकाग्रता होती है, इस बात का एहसास मुझे उसी दिन हुआ। मुझे उसके आ जाने और किताब से कविताएं निकालकर पढ़ लेने का पता बिलकुल नहीं चला। वह तो जब उसने दुष्‍टता से चेहरे पर नाटकीय ढंग से दुख का भाव लाकर कुछ कहा, तो मुझे होश आया। वह मेरी ओर देखकर कह रही थी, ”चच्‍च! हाय बेचारों की कविताएं सम्‍पादक ने वापस कर दीं। कितनी अच्‍छी तो हैं। ये सम्‍पादक भी कितने पत्‍थरदिल होते हैं। कवि का सुकुमार हृदय तोड़ते हुए इन्‍हे जरा भी दया नहीं आती।”

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हालांकि कविताओं की इस वापसी से भी अपने अन्‍तर्मन में मैं कहीं बहुत अपमानित और व्‍यथित था, लेकिन रमा के नाटकीय लहजे पर मुझे बेसाख्‍ता हंसी आ गयी। रमा भी हंस पड़ी, और हंसी थमने पर बोली, ”अगर आपको एतराज न हो, तो ये कविताएं मैं अपने पास रख लूं।”

मैंने कहा, ”हां, इन्‍हें तुम जरूर रख लो, ताकि अपनी सहेलियों के बीच गाती फिरो कि बेचारे मास्‍टर की कविताएं सभी सम्‍पादक धन्‍यवाद दे-देकर वापस लौटा रहे हैं।”

रमा मेरी बात सुनकर एकदम गम्‍भीर हो गयी। ”आप ऐसा क्‍यों समझते हैं? मैं कविताओं की निर्णायक नहीं हूं। और न शायद मेरे अच्‍छा कहने से आप संतुष्‍ट हो जायेंगे। लेकिन काश, मेरी प्रशंसा आपको राहत दे सकती! मैं सच्‍चे दिल से कहती हूं, कि आपकी कविताएं बहुत प्‍यारी और मन को पकड़ने वाली हैं।” वह क्षण-भर रुकी, और फिर मेरे चेहरे की ओर मार्मिक दृष्टि से देखकर बोली, ”लेकिन क्‍या किया जाय? मजबूरी है। किसी कवि को आज तक शायद किसी लड़की की प्रशंसा से सुख नहीं मिला। पहले सभी कवि सम्‍पादक की स्‍वीकृति से गदगद होते हैं, क्‍योंकि सम्‍पादक का स्‍वीकार्य ही उनके कैरियर की स्‍वीकृति है।”

इतना कहकर, वह तेजी से उठकर चली गयी। जब वह वापस आयी, तो उसके हाथ में एक नोटबुक थी, जिसे उसने मुझे दे दिया। उसमें सारे पन्‍ने कवियों की रचनाओं से रंगे पड़े थे। उसने मेरी ओर प्रश्‍नसूचक दृष्टि से देखा, तो मैं लाचारी की हंसी हंस पड़ा, और बोला, ”अब मैं क्‍या कहूं? तुमने स्‍वयं ही अपनी बात की पुष्टि कर दी। तुम्‍हारी डायरी में वही सब कविताएं हैं, जो अखबारों में छपती हैं, और जिन्‍हें सम्‍पादकों ने स्‍वीकृत करके प्रकाशित करने योग्‍य ठहराया है। तुम ही बताओ, क्‍या किसी अनाम या अप्रकाशित कवि की कोई कविता तुम्‍हारी इस डायरी में है?”

उसने जोर देकर कहा, ”हां, मेरे पास ऐसी कविताएं हैं, जो डायरी में चली जायेंगी, और जो अभी तक केवल मेरे पास ही हैं।” यह कहकर, उसनें मेरी कविताएं मुझे दिखा दीं।

मैंने उस दिन कविता-प्रसंग पर और अधिक बातें नहीं कीं, लेकिन अगले दिन जब रमा को पढ़ाने पहुंचा, तो मैंने उसे बच्‍चन और दूसरे कवियों की प्रेम-विषयक कविताओं की बहुत-सी छोटी-छोटी स्लिपें तरतीब से लगाते देखा। बिना कुछ समझे मैं उसके काव्‍य-चयन को देखता रहा। कुछ पुर्जे ऐसे भी थे, जिनपर महज दो पंक्तियां ही अंकित थीं। सारे पुर्जे और स्लिपें एकत्रित हो जाने पर रमा ने सम्‍पादक द्वारा वापस की हुई मेरी कविताएं निकालीं और उनपर से ‘सधन्‍यवाद वापस’ वाली चिट निकाल कर कविताओं के बंडल पर पिन कर दीं। उसने उन कविताओं को एक लम्‍बे-से लिफाफे में डालकर मेज के किनारे रख दिया, और इत्‍मीनान की सांस लेकर मुझसे बोली, ”यह तो हो गया। अब बाकायदा पढ़ाई शुरू हो।”

मैंने किताब खोलकर पढ़ाना शुरू कर दिया, और थो‍ड़ी देर में पढ़ाई का सिलसिला व्‍यस्‍ततापूर्वक चल निकला। कोई आध घंटे के बाद वह लड़का हस्‍बेमामूल आया, और चिक के बाहर खड़ा हो गया। रमा ने उसे देखा, और बड़े सहज ढंग से लिफाफा हाथ में उठाकर मुझसे बोली, ”प्‍लीज, इसे उन्‍हें दे देंगे क्‍या?”

मैं मशीनी ढंग से बिना कुछ समझे-बूझे उठा, और लिफाफा चिक से बाहर खड़े लड़के के हाथ में थमा आया। वह लिफाफा लेकर तेजी से चला गया। लेकिन उसके जाते ही मुझे खयाल आया, कि यह तो वही लिफाफा था, जिसमें रमा ने कविताओं का बंडल रखा था, और ऊपर से मेरी कविताओं की ‘सधन्‍यवाद वापस’ वाली चिट नत्‍थी कर दी थी। यह क्‍या? गजब हो गया! क्‍या रमा इस युवक को प्‍यार नहीं करती? रमा ने बेचारे लड़के के प्रणय-निवेदन को इस तरह क्‍यों दुत्‍कार दिया? प्‍यार के समर्पण का इतना निर्मम परिहास! आखिर रमा को यह हुआ क्‍या? विचारों के तूफान में भटकते हुए, मैं न जाने क्‍या-क्‍या सोचता रहा। बहुत देर बाद यकायक मेरा ध्‍यान टूटा, तौ मैंने रमा का चेहरा देखा। वह एकटक मेरी ओर देख रही थी। उसके चेहरे पर मुझे साफ लिखा नजर आ रहा था, कि मैं उसकी दुनिया से बहिष्‍कृत नहीं हूं, मेरे प्रवेश पर वहां वर्जना नहीं है।

उस शाम मैं रमा के पास बहुत देर तक बैठा रहा, और मुझे समय बड़ी तेजी से भागता दिखाई दिया। रमा के प्‍यार की अभिव्‍यक्ति का ढंग बिलकुल अनोखा था। बिना एक शब्‍द कहे उसने अपना मर्म मुझपर प्रकट कर दिया था, कि वह न केवल मेरे प्रति समर्पिता है, बल्कि दूसरे का प्रणय-निवेदन कठोरता से ठुकरा भी सकती है। संसार में मेरे लिए इतनी बड़ी उपलब्धि कल्‍पना से भी परे थी। बेरोजगार और दूसरों की नजरों में एक निठल्‍ला आदमी रमा जैसी सुन्‍दरी का स्‍वप्‍न भी लेने से डरता था। उसकी आत्‍महीनता शायद अपने मन की बात कभी भी स्‍पष्‍ट न होने देती। ले‍‍किन रमा ने संकेत में ही सब कुछ कह दिया।

मेरा मन रमा की निकटता में उस शाम इतना रम गया कि मैं इन्दिरा जी के पास जाने से बचना चाहने लगा। रमा ने मेरे मन की बात समझकर जोर-जबरदस्‍ती करके मुझे भेजा। वह कहने लगी, ”मौसी को इस तरह बीच में पढ़ाना मत छोडिए, वर्ना वह बेचारी मंझधार में ही रह जायेंगी।”

मैं रमा की बात के औचित्‍य का ख्‍याल करके इन्दिरा जी को पढ़ाने गया। वह मेरी प्रतीक्षा कर रही थीं। गोपीनाथ जी इस वक्‍त प्रायः नहीं होते थे। इसलिए मुझे आज अकेले में उनसे साक्षात्‍कार करने में थोड़ी झिझक हुई। उन्‍होंने पढ़ाई-लिखाई की भी विशेष चर्चा नहीं की। बस, अपनी आंखों में मादकता भरकर मुझे देखती रहीं। उनकी मुद्राओं के कहर से बचने के लिए मैं संकुचित होकर आंखें बचाने लगा, तो उन्‍होंने सतर्कता से इधर-उधर देखकर एक कागज कहीं से निकाला, और मेरी मुठ्टी में ठूंस दिया। और यह कहते हुए कमरे से बाहर चली गयीं, ”आप जरा उस निबन्‍ध को देखिये, जो मैंने कल रात लिखा है। मैं अभी आती हूं।”

इस खत की बाबत मैं आपको शुरू में ही बता चुका हूं।

एक सप्‍ताह से ऊपर हो चुका है, जब रमा ने उस लड़के का दिल उसके खत वापस करके तोड़ा था, और उसके प्रेम की सारी निशानियां यकायक लौटाकर उसे प्रताडित किया था। उसी शाम मेरे जीवन में दो परस्‍पर विरोधी चाजें आयी थीं-रमा का प्रेम, जिसकी मैंने कल्‍पना नहीं की थी, और श्रीमती इन्दिरा गोपीनाथ का समर्पण, जिसकी मैंने वांछा नहीं की थी। उस अभिशप्त महिला के उत्‍सर्ग-भरे पत्र को लेकर मैं इतना उद्भ्रान्‍त हो गया हूं, कि मेरी समझ कुछ भी काम नहीं करती। मैं रमा और इन्दिरा जी को रोज पढ़ाने जा रहा हूं। वह लड़का उस शाम के बाद फिर दिखाई नहीं दिया। रमा हर शाम मेरे चेहरे पर कोई ऐसा भाव खोजती है, जिसमें कहीं मधुरता-भरी विकलता हो। लेकिन मेरा चेहरा बराबर सख्‍त और गम्‍भीर रहता है। इसी प्रकार जब मैं इन्दिरा जी के पास होता हूं, तो वह बीच-बीच में उत्‍सुकता से मेरा मुंह देखती है और मुझे प्रत्‍येक क्षण डर लगा रहता है, कि वह कोई कोमल प्रसंग न छोड़ बैठें। मैं नहीं जान पाता, कि इन कोमल और स्‍वाभाविक आग्रहों के बीच किस तरह ताल-मेल बिठाऊं कि सबके दिलों के तकाजे पूरे हो जायं। अगर यह महज एक कहानी की स्थिति होती, तो मैं इसे कहीं तक भी खींचकर ले जा सकता था। लेकिन जीवन की विसंगतियों का विद्रूप बहुत टेढ़ा होता है। आप यानी इस कहानी से गुजरने वाले पाठक इस संकट की घड़ी में मुझे कोई सला‍ह दे सकते हैं? हालांकि मेरे मित्र अजय ने शुरू-शुरू में मजा‍क करते हुए मुझे एक गम्‍भीर चेतावनी दी थी, जिसका ध्‍यान रखते हुए भी मैं एक अजीब संघर्ष में फंस गया हूं। और मेरा मरण य‍ह है, कि मैं अजय को भी अपनी इस हास्‍यास्‍पद स्थिति का आभास नहीं दे सकता। मुझे मर्मी पाठकों की बुद्धि पर भरोसा है। देखूं, आप क्‍या कहते हैं!

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