साँपों के पहरे | रमेश चंद्र पंत

साँपों के पहरे | रमेश चंद्र पंत

साँपों के पहरे | रमेश चंद्र पंत साँपों के पहरे | रमेश चंद्र पंत लोग यहाँमिलते हैंअंधे हैं बहरे हैं। सोने कीरोज-रोजउगती दीवारें हैं दिखने कोउथले, परदंश बहुत गहरे हैं। बगुलों कीमौन-सधीहर क्षण ही घातें हैंसंशय मेंबीत रहींकैसी ये राते हैं ! सपनों परविषदंती,साँपों के पहरे हैं।

विश्व ग्राम में | रमेश चंद्र पंत

विश्व ग्राम में | रमेश चंद्र पंत

विश्व ग्राम में | रमेश चंद्र पंत विश्व ग्राम में | रमेश चंद्र पंत निकल ग्राम से,आ पहुँचे हम विश्वग्राम में। चकाचौंध कुछ ऐसी कुछ भीनहीं दिख रहामूल्यवान है जो कुछ अपनाअर्थ खो रहा भौतिकता तकसीमित सब-कुछ विश्वग्राम में। बस चीजों की हाट यहाँ परसजी हुई है।नागफनी ही सबके मन मेंबसी हुई हैनदी नेह कीसूखी … Read more

मौन हैं आकाश | रमेश चंद्र पंत

मौन हैं आकाश | रमेश चंद्र पंत

मौन हैं आकाश | रमेश चंद्र पंत मौन हैं आकाश | रमेश चंद्र पंत बंधु मेरेयातना यहऔर सब कब तक सहें। चतुर्दिक व्याप्तगीदड़-भेड़िएमांस के भुक्खड़ठसाठसभर चुके नुक्कड़, बंद दरवाजेसभी की खिड़कियाँकब तक रहें। सूर्य-पथ पररोज ही दमतोड़ते अहसासगुमसुममौन है आकाश उफ ! सहमतीइस हवा के साथसब कब तक बहें।

मौन में बातें हुई | रमेश चंद्र पंत

मौन में बातें हुई | रमेश चंद्र पंत

मौन में बातें हुई | रमेश चंद्र पंत मौन में बातें हुई | रमेश चंद्र पंत हाँ, दरख्तों नेनए फिर वस्त्र हैं पहने। गंधपूरितहैं हवाएँचंदनी साँसें हुईंमूक हैवाणी हृदय कीमौन में बातें हुईं, डालियों पर फिर,वही हैं पुष्प के गहने। रंग कीजादूगरी हर ओरहै दिखने लगीखुशबुएँअनुबंध अपनेफिर नए लिखने लगीं जड़ हों या चेतनसभी के … Read more

थे स्वार्थ अंधे | रमेश चंद्र पंत

थे स्वार्थ अंधे | रमेश चंद्र पंत

थे स्वार्थ अंधे | रमेश चंद्र पंत थे स्वार्थ अंधे | रमेश चंद्र पंत पुल हमेंथा जोड़ता जोढह गया। बात थीकुछ भी नहींथे स्वार्थ अंधेव्यग्र थेउद्धत बहुतहाँ, उठे कंधे एक सूनापनहै मन में,गड़ गया। थे गलतकोई नहींपर कौन सुनताबर्छियाँताने सभीथे, कौन झुकता मन कहींसूखी नदी-साहो गया।

छोड़कर घर-गाँव | रमेश चंद्र पंत

छोड़कर घर-गाँव | रमेश चंद्र पंत

छोड़कर घर-गाँव | रमेश चंद्र पंत छोड़कर घर-गाँव | रमेश चंद्र पंत छोड़कर घर-गाँव आएइस नगर में। खनक सिक्कों की हमेंहै खींच लाईऔर कुछ देता नहींहै अब दिखाईलग रहा अपना न कोईइस नगर में। समय ने ऐसे दिए हैंफेंक पासेभागते दिन-रात भूखेऔर प्यासेहै रचा संसार निर्ममइस नगर में। डोर रिश्तों की बचापाए कहाँ हैंबस बिखरते … Read more

खुशबू कहाँ गई | रमेश चंद्र पंत

खुशबू कहाँ गई | रमेश चंद्र पंत

खुशबू कहाँ गई | रमेश चंद्र पंत खुशबू कहाँ गई | रमेश चंद्र पंत फूलों-से नाजुक रिश्तों कीखुशबू कहाँ गई ? न जाने क्यों हर कोई हीबचकर निकल रहाअर्थहीन सन्नाटों के हैंभीतर उतर रहा हवा चली कुछ ऐसी है किनीदें उड़ा गई। भाई ही भाई से अपनीनजरें चुरा रहानागफनी के काँटे जैसेमन में उगा रहा … Read more

आँसू की एक नदी | रमेश चंद्र पंत

आँसू की एक नदी | रमेश चंद्र पंत

आँसू की एक नदी | रमेश चंद्र पंत आँसू की एक नदी | रमेश चंद्र पंत चिड़िया हैएक रोजसपनों में आती है। बदहवासलगती हैछाँव नहीं पेड़ों की बढ़ती हीरोज गईदुनिया है मेड़ों की रिश्तों केघाव खोलरोज ही दिखाती है। हरियालीमन की जोऊसर में ठूँठ हुईसोने सेमढ़ी आजजंग लगी मूँठ हुईवैभव कीक्षरित कथा,मौन हो सुनाती है। … Read more