साँपों के पहरे | रमेश चंद्र पंत
साँपों के पहरे | रमेश चंद्र पंत साँपों के पहरे | रमेश चंद्र पंत लोग यहाँमिलते हैंअंधे हैं बहरे हैं। सोने कीरोज-रोजउगती दीवारें हैं दिखने कोउथले, परदंश बहुत गहरे हैं। बगुलों कीमौन-सधीहर क्षण ही घातें हैंसंशय मेंबीत रहींकैसी ये राते हैं ! सपनों परविषदंती,साँपों के पहरे हैं।