खुशबू कहाँ गई | रमेश चंद्र पंत

खुशबू कहाँ गई | रमेश चंद्र पंत

फूलों-से नाजुक रिश्तों की
खुशबू कहाँ गई ?

न जाने क्यों हर कोई ही
बचकर निकल रहा
अर्थहीन सन्नाटों के हैं
भीतर उतर रहा

हवा चली कुछ ऐसी है कि
नीदें उड़ा गई।

भाई ही भाई से अपनी
नजरें चुरा रहा
नागफनी के काँटे जैसे
मन में उगा रहा

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सदी आज यह सच में कैसी
किरिचें चुभा गई।

एक अदद घर के भीतर हैं
चीजें सजी हुई
फिर भी जाने उथल-पुथल है
कैसी मची हुई

चली स्वार्थ की आँधी सबको
ठेंगा दिखा गई।