सुरों की नन्हीं-नन्हीं, मीठी-मीठी, ऊँची-नीची लहरियाँ फिजाओं में तैर रहीं थीं। दस बरस की सुरीली अपने रियाज में तल्लीन थी। उसकी मीठी, सुरीली आवाज में डूबती-उतरती नेहा की आँखें नम हो गईं। आज रविवार था। आज बिना उसके उठाए ही सुरीली अलसुबह ही उठकर अपने संगीत के अभ्यास में मशगूल थी। ऐसे में नेहा की आँखें नम होना स्वाभाविक था। कितने दिनों बाद सुरीली की बेफिक्र, मीठी, सुरों में भीगी आवाज घर की दरोदिवार में छन-छनकर हर कोना खुशगवार बना रही थी। मानो उसके ही नहीं, घर के कोने-कोने से चिंता और तनाव की रेखाएँ झर-झरकर महीनों की उदासी मिटा रही थी। सुरीली की आवाज के जादू से हर इक शै मुसकरा रही थी जैसे। नेहा की सुकून और राहत से भीगी आँखें भी मुसकरा रहीं थीं।

छोटी सी सुरीली के गले में साक्षात सरस्वती का वास था। सब कहते थे। वह भी मानती थी। पैदा होते ही वह रोई भी तो सुर में ही थी। दर्द से टूटते तन में उसके चौकन्ने कान उसके मीठे रुदन से निहाल हो गए थे। वह जान गई थी उसकी संतान में उसी के गुणसूत्र (जींस) आए थे। सुरीला गला उसका पहला प्रमाण था। नेहा को उसी पल अपना बरसों से अधूरा पड़ा सपना पूरा होता दिख गया था। उसी पल से ख्वाबों के अनंत पंख समेट वह सपनीली दुनिया में तैरने लगी थी। ये सपना कभी आँखों से ओझल न हो, ये सोचते हुए ही अपनी नवजात बेटी का नाम उसने सुरीली रख दिया था।

तालियों की गड़गड़ाहट, आत्मविभोर कर देने वाली संगीत के दिग्गजों की प्रशंसा, करोड़ों दर्शकों की मुग्ध निगाहें और टीवी चैनल के प्राइम शो में इठलाती उसकी सुरीली। यही तो उसका सपना था जो उसने धीरे-धीरे कब नन्हीं सुरीली के जेहन में रोप दिया था, किसी को पता ही नहीं चला। नेहा ने ये सपना सिर्फ रोपा ही नहीं था बल्कि रात-दिन इसमें खाद-पानी डालकर इसे पाला-पोसा भी था।

खुद उसे संगीत की अच्छी समझ थी। संगीत गायन विषय से उसने एम.ए. किया था। गाती बहुत अच्छा थी वह। टीवी पर नए-नए शुरू हुए रंगीन संगीत प्रतियोगिताओं से अभिभूत रहती थी। कितनी इच्छा होती थी उसकी इनमें भाग लेने की पर उसके पारंपरिक परिवार में ऐसी बातों कि लिए सख्त मनाही थी। नेहा की माँ को तो यह किसी तमाशे से कम नहीं लगता था। वह कह उठतीं,

‘नेहा संगीत एक साधना है, इक तपस्या है बेटी। मिनटों में किसी तमाशे का हिस्सा बन पल भर को चमक कर बुझ जाने का नाम नहीं है। संगीत में सच में रुचि है तो तपस्या कर इसे साधने की।’

नेहा मन मसोस कर रह जाती थी। माँ समझती ही नहीं थीं, कितना बड़ा प्लेटफार्म था ये, किस्मत चमक गई जिन्हें भी एक ब्रेक मिल गया। पल भर में सिर्फ गाँव और शहर ही नहीं पूरी देश-दुनिया जानने और पहचानने लगी उन्हें। सेलिब्रिटी बन गए। कौन समझाए इन्हें ‘अरे जब कोई गुण है तो जब तक चार लोगों के बीच गुणगान न हो तो क्या फायदा? ऐसी तपस्या से क्या लाभ जो कोई जान ही न पाए?’

पर कौन भिड़े इनसे। वह खुद भी तो कितना अच्छा गाती थीं। किसी जमाने में उन्हें रेडियो से बुलावा आता था गाने के लिए। उनका गायन रेडियो से प्रसारित भी हुआ था कई बार पर वह कभी इन बातों को तूल नहीं देती थीं। यहाँ-वहाँ से ही नेहा को पता चला था इन बातों के बारे में। अब ऐसे विचारों वाले घर में नेहा की इन बातों को कौन तवज्जो देता भला। नेहा की इन इच्छाओं पर परिवार की ऐसी सोच ने जड़ पर ही मट्ठा डाल दिया था।

संगीत में रुचि थी तो वह पढ़ाई पूरी कर एक कॉलेज में संगीत की शिक्षिका बन गई।

पर उसकी इच्छाएँ जड़सहित कभी नष्ट नहीं हुई थीं। सुरीली के जन्म से ही वे नए सिरे से चाहतों की धरती का सीना चीरकर नए-नए अंकुर बन फूट पड़ी थीं। मामा, दादा बोलने से पहले ही वह सुरीली में सा, रे, गा, मा के बीज बोने लगी थी। टीवी पर आने वाले संगीत के कार्यक्रम सुरीली को दिखाती और उसके कान में मंत्र फूँकती जाती,

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‘सुनो सुरीली, एक दिन तुम्हें भी वहीं होना है। उसी चमकते मंच पर, जज के रूप में बैठे फिल्मी जगत के सफल संगीतज्ञों को अचंभे में डालते हुए।’

नन्हीं सुरीली को कितना समझ में आता था यह तो किसी को नहीं पता पर जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई, यह चमकीला जादू उस पर भी पूरी शिद्दत से चढ़ता गया। नेहा की आँखों का सपना उसकी आँखों में उतरता गया। नेहा उस नन्हीं वय में सुरीली को संगीत की जितनी बारीकियाँ सिखा सकती थी सब का सब जल्द से जल्द सिखा देना चाहती थी। सुरीली भी उसे अचंभित करती सीखती जा रही थी। सुरीली के सीखने की रफ्तार में नेहा को अपने सपने पूरी होने की राह दिखाई दे रही थी।

जल्द ही उसका सपना हकीकत का चोला पहन उनके शहर के गली-कूँचों में डोलने लगा। टेलीविजन में बच्चों की संगीत प्रतियोगिता के कार्यक्रम का प्रचार-प्रसार जोर-शोर से चल रहा था। सेमी फाइनल और फाइनल के पहले प्रतियोगी बच्चे देश के अलग-अलग शहरों से चुने जाने थे।

नेहा की मुँह माँगी मुराद पूरी हो रही थी। सुबह पाँच बजे से सुरीली को उठाकर रियाज करने बैठा देती, ऊँघती आठ बरस की सुरीली रियाज में लग जाती। उसे भी टी.वी. पर सुंदर कपड़े पहन कर खूब-खूब अच्छा गाना था। इतना अच्छा की इस प्रतियोगिता का पहला पुरस्कार जीतना ही था, हर हाल में।

‘माँ कहती है कि फिर मेरी फोटो से सजा बड़ा सा होर्डिंग हमारे शहर के मेन चौराहे पर लगेगा। सारी दुनिया कहेगी कि वह है सुरीली, देखो वही है सुरीली’ यह सोचकर वह भी रोमांचित हो जाती आखिर बिल्कुल ऐसे ही तो उसकी मम्मा भी रोमांचित होती थी। ‘वह ही यह प्रतियोगिता जीतेगी, आखिर इतनी मेहनत का फल तो उसे मिलेगा ही।’ माँ की पिलाई घुट्टी मन ही मन दोहराती वह रियाज में लगी रहती, स्कूल जाने के पहले, स्कूल से आने के बाद। बाकी बच्चों की तरह उसका खेलने का, टीवी पर कार्टून देखने का मन करता पर मम्मा की बात याद आते ही वह अपनी इच्छा दबा लेती। रियाज… रियाज बस रियाज। उसे यह प्रतियोगिता सबसे छोटी उम्र की प्रतिभागी के रूप में जो जीतना था और नन्हीं सी सुरीली माँ के अरमानों से भीगा बड़ा सा ख्वाब अपने मासूम कंधों पर उठाए रहती।

जैसाकि उम्मीद थी अपने शहर से सुरीली का चयन पहले राउंड में हो गया था। नेहा को थोड़ी हैरानी हुई थी, सुरीली का चयन तो हो गया था पर चयनकर्ताओं के सामने वह वैसा नहीं गा पाई थी जो वह सामान्य रूप से गाती थी। ‘बच्ची है दबाव में आ गई होगी’ यह सोचकर नेहा ने चिंतित मन को शांत किया था। अगले राउंड के लिए चयन तो हो ही गया था। सुरीली की वीडियो फुटेज देश भर में टीवी पर टेलीकास्ट हुई थी। जान-पहचान के लोगों के बधाइयों का ताँता लग गया था। नेहा फूली नहीं समा रही थी। बरसों से पल रहा सपना पककर उसकी झोली में बस गिरने को तैयार था, बस गिनती के ही दिन थे।

अगले कई राउंड में भी सुरीली जैसे-तैसे चयनित होकर अंतिम पंद्रह प्रतिभागियों में स्थान बनाने में सफल रही थी पर नेहा थोड़ी निराश थी, सुरीली चयनित तो हुई थी पर उस स्तर के प्रदर्शन के साथ नहीं जैसी वह थी। नेहा समझ नहीं पा रही थी कारण क्या था। सुरीली बीच-बीच में इतनी बेसुरी कैसे हो जा रही थी?

आठ साल की सुरीली अपनी ओर से कोशिश पूरी कर रही थी पर बिना किसी चिंता और दबाव के रियाज करना दूसरी बात थी और इतने बड़े दिग्गजों के सामने चयनित होने के लिए गाना दूसरी बात। तिस पर प्रतियोगिता में आए उम्र में उससे कहीं बड़े और जबरदस्त तैयारी के साथ आए बच्चों के साथ मुकाबला करना भी क्या आसान था? सच तो यह था सुरीली दबाव में थी, बहुत गहरे दबाव में और इस दबाव में बहुत कोशिश के बाद भी उससे बार-बार गलतियाँ हो रही थीं। वह हारना नहीं चाहती थी उसकी मम्मा को बहुत दुख होगा पर सच तो ये था उसे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा था। उसकी मर्जी पूछी जाए तो वह यह सब छोड़कर भाग जाए। कितनी घुटन थी इस माहौल में। सिर्फ जीतने के लिए रियाज कैसे हो सकता था पर यहाँ हो तो यही रहा था। सुरीली बेहद डर रही थी हार से, नतीजा उसका मासूम गला हार रहा था ऐन मौके पर। चयनकर्ता उसकी कम उम्र की रियायत दे रहे थे बीच-बीच में पर कब तक?

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सुरीली से बाकी बच्चे बहुत बेहतर गा रहे थे। इस राउंड में तो चयनकर्ताओं के साथ जनता की ऑनलाइन वोटिंग पर प्रतियोगी प्रतियोगिता से बाहर हो रहे थे। ऐसे में दूसरी ही बार में जनता और चयनकर्ताओं की मिली-जुली राय से वह प्रतियोगिता से बाहर हो गई। इसकी उम्मीद न नेहा को थी, न सुरीली को। इस तरह हार स्वीकार करना सुरीली के लिए सहज नहीं था। वह स्टेज पर ही बहुत रोई, फूट-फूटकर रोई। वह बार-बार इतनी बेसुरी क्यों हो रही थी? क्या उसे गाना ही नहीं आता था? इतने आसान सुर भी उससे क्यों नहीं सध रहे थे। क्या हो गया था उसे?

नेहा सुरीली के ऐसे बेसुरेपन पर अपनी हैरानी छुपाकर उसे समझाती रही,

‘कोई बात नहीं, बेटा! हो जाता है कभी-कभी। तुम खूब अभ्यास करो अगली बार ये प्रतियोगिता तुम ही जीतेगी। एक भी सुर नहीं हिलेगा तुम्हारा।’

‘नहीं… मुझे नहीं गाना मम्मा। मुझे गाना नहीं आता। मैं कभी सुर में नहीं गा सकती… मुझसे नहीं होगा।’

सुरीली बिलख-बिलख कर रोने लगी थी। नेहा उसे ऐसे रोते देख उस दिन सच में सहम गई थी। छोटी सी बच्ची के मन पर इतनी गहरी चोट पड़ेगी उसे अंदाजा नहीं था।

‘नहीं बेटा, ऐसे हिम्मत नहीं हारते। तुम नहीं सुर में गा पाओगी तो कौन गा पाएगा भला। तुम्हारा तो नाम तक सुरीली है देखो।’ नेहा ने मनुहार करते हुए समझाया था।

‘गलत नाम है मेरा, मम्मा! एकदम गलत नाम है सुरीली… मेरा नाम बदल दो। मुझे नहीं गाना… मैं नहीं गा सकती… मम्मा, प्लीज मम्मा।’ सुरीली बिखर गई थी। नेहा को झटका लगा। ऐसे तो कभी नहीं कहा था सुरीली ने। कठिन से कठिन राग गाने में झिझकती नहीं थी। अपनी उम्र के बच्चों की तुलना में संगीत की गहरी समझ थी उसे। ये क्या हो गया था उसे? नेहा को कुछ नहीं समझ में आ रहा था। उसे लगा सुरीली का यह व्यवहार अस्थाई था। कुछ दिनों में ठीक हो जाएगा। सुरीली कब तक सुरों से दूर रह पाएगी। उसने गहरी साँस लेते हुए सोचा था।

पर नेहा गलत निकली। सुरीली संगीत के अभ्यास से कोसों दूर भागने लगी थी। न प्यार से, न मनुहार से, न लालच से, न डाँट से, किसी भी तरीके से नेहा उसे संगीत की ओर नहीं खींच पा रही थी। अधिक दबाव बनाने पर वह फूट-फूटकर रोने लगती।

सुरीली जो हर समय सुरों में डूबी रहती थी, एक मिनट भी कुछ भी गाने से घबराती थी। नेहा की लाख कोशिशें बेकार गईं। धीरे-धीरे उसने अपने मन पर पत्थर रख लिया और उससे गाने के लिए कहना ही छोड़ दिया। सुरीली भी सुरों को ऐसे भुला बैठी जैसे उसका उनसे कभी कोई नाता था ही नहीं।

समय बीतता गया। संगीत से, सुरों से दूर सुरीली तो खुश ही दिखती थी पर नेहा नहीं। किसी बच्चे को टीवी पर या कहीं और गाते सुनती तो उसके सीने में हूक उठती। टीवी पर आते संगीत के प्रतियोगी कार्यक्रम उसे जरा भी नहीं सुहाते थे। मन में कहीं एक चोर बैठ गया था जो बार-बार नेहा को कोंच-कोंच कर याद दिलाता कि उसने एक प्रतिभाशाली बच्चे के गले के सुर घोंट दिए। काश कि वह इन चक्करों में न पड़ती तो आज उसकी सुरीली सुरों से खेल रही होती। ‘क्या कर दिया उसने’ सोचकर नेहा बहुत दुखी हो जाती। पर चलो सुरीली सुरों के बिना ही खुश तो दिखती थी, रियाज के नाम पर तो वह बस बिसूरने ही लगती थी। सुरीली में सुर न सही तो न सही।

इस साल गर्मी की छुट्टियों में नेहा ने कुछ दिन के लिए माँ के पास जाने का कार्यक्रम बनाया था। नानी के पास जाने के नाम पर सुरीली मारे खुशी के बावली हुई घूम रही थी। संयोग ऐसा बना था कि दो साल से नानी से मिलना नहीं हो पाया था। दुनिया के बाकी बच्चों की तरह सुरीली को अपने नाना-नानी बहुत अच्छे लगते थे। वह और उसकी ममेरी बहनें नानी से ढेरों कहानियाँ सुनते थे और… और अनगिनत गाने, क्लासिकल से लेकर लोकगीत तक… ओह क्या कमाल का गाती थीं सुरीली की नानी। नेहा सुरीली को लेकर गई तो एक हफ्ते के लिए थी पर सुरीली की जिद पर उसे उसकी गर्मी की छुट्टियों भर वहीं छोड़कर आना पड़ा। हमउम्र मोना और सोना का साथ पाकर वह वापस ही नहीं आना चाहती थी। नेहा को भी लगा छुट्टियों भर खेलकूद लेने दो फिर तो स्कूल खुलते ही मशीन की तरह व्यस्त हो जाना है बच्चों को।

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एक महीने की छुट्टियाँ बिताकर सुरीली कल सुबह ही आई थी नानी के यहाँ से। उसके पापा रचित जाकर ले आए थे उसे। हँसती-खिलखिलाती सुरीली से एक महीने बाद उनका घर फिर से गुलजार हो गया था। उसकी बातों का पिटारा चुक ही नहीं रहा था। नेहा के आगे-पीछे डोलती सुरीली चहकती जा रही थी, ‘नानी के यहाँ ये, नानी के यहाँ वो, नानी के यहाँ ऐसा, नानी के यहाँ वैसा…।’ बीच-बीच में उन्मुक्त हँसी की फुलझड़ियाँ। न जाने कितने समय बाद नेहा सुरीली को इस कदर खुश देख रही थी। वह थोड़ी हैरानी भी थी जब अनजाने ही वह कुछ-कुछ गुनगुना रही थी। सपना समझकर नेहा ने ये दृश्य दिमाग से झटक दिए थे।

पर ये सुबह तो एक अलग ही दिन का आगाज लेकर आई थी। नेहा ने भरे गले से माँ को फोन लगाया।

‘हलो, हलो… हलो…!’ उधर से माँ की आवाज आ रही थी। भरे गले से वह कुछ पल बोल ही नहीं पाई।

‘नेहा… क्या हुआ, बेटा?’ वह समझ गई थीं फोन पर नेहा ही है।

‘धन्यवाद भी कहूँ तो कैसे, माँ! …ये क्या जादू कर दिया आपने?’ भीगी आवाज में वह बोल रही थी।

‘आवाज सुन रहीं हैं आप? ये सुरीली है… रियाज कर रही… ये कैसे किया आपने?’

‘हाँ सुरीली है और एकदम सुर में गा रही है… अच्छा है यहाँ आकर भी अभ्यास में एक दिन का भी नागा नहीं किया… बड़ी होनहार है अपनी सुरीली।’

‘पर आपने उसे अभ्यास के लिए मनाया कैसे माँ?’ नेहा का बेचैन सवाल फिर गूँजा।

‘मैंने तो उसे कभी नहीं मनाया, न ही एक बार भी कहा कुछ… वह खुद ही सुबह अपने आप उठकर मेरे साथ रियाज करने बैठ जाती थी।’

‘पर माँ वह तो गाना छोड़ चुकी थी…’

‘नहीं नेहा उसने गाना कभी नहीं छोड़ा था, सुरीली जैसे बच्चों के रग-रग में सुर है, संगीत है, वह चाहें भी तो नहीं छोड़ सकते। हाँ, जिस चमक-दमक और दिखावे के पीछे तुम उसे संगीत सिखाना चाहती थी उससे वह बहुत दूर छिटक चुकी है।

वह सुरों की आत्मा में रचना-बसना चाहती है और तुम उसके सुरों को स्थूल शरीर में बाँधकर दुनिया की तालियों के लिए परोसना चाहती हो। उसके सुर ड्राइंग रूम में सजाने वाले फूल नहीं हैं नेहा, उसके सुर तो खुले जंगलों में बेरोक-टोक खिलने और खुशबू बिखेरने वाले फूल हैं। तुम जबरदस्ती उन्हें ड्राइंगरूम में सजा रही थी तो वह मुरझा गए थे। उसके सुरों को जंगली फूलों से मुक्त खिलने दो, उनकी अनछुई खुशबू एक दिन कुदरत की आत्मा बन हर शै को महकाएँगे। झूठी चमक-दमक के पीछे उसे फिर मत दौड़ाना। समझ रही हो न नेहा।’

‘हाँ माँ, बिल्कुल समझ रही हूँ… मैं ही सुरीली के सुरों का असली रंग-रूप नहीं देख पाई थी। प्रदर्शन के काँटों में उलझाकर अपनी ही बच्ची को लहूलुहान कर बैठी थी।’ नेहा ने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा।

‘अब ऐसा नहीं होगा।’ कहते हुए नेहा ने फोन रख दिया।

तभी सुरीली ने एक लंबी तान ली। तान के सधे हुए आरोह के रोमांच से नेहा के रोंगटे खड़े हो गए। सुरीली के कमरे के बाहर दरवाजे के पीछे खड़ी वह चुपचाप उसके सुरों की मीठी नदी में गोते लगाने लगी।

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