समय की सुई रुकी | मत्स्येंद्र शुक्ल
समय की सुई रुकी | मत्स्येंद्र शुक्ल
ठंड से सिकुड़ रही काँप रही देह
पैर नहीं थमते जमीन पर
उभर रहा सूरज पूरब के ललाट पर
पर्वत-तलहटी में पुष्ट गर्दन उठा
खाँसता विनम्र अनुभवी वृद्ध बाघ
ओ वनवासी युवक ! समय के हस्ताक्षर
डरते क्यों ? जला लो सूखी लकड़ियाँ
जंगल के मालिक हो – तुम
किष्किंधा की कठोर गुफाओं में बैठ
तुम्हीं ने बनाया था अभेद्य दुर्ग
युद्ध में विजयी झुकाए नहीं ध्वज
कल जो आ रहा तुम्हारे साथ है
चलेगा लोकतंत्र का रथ तुम्हारे इशारे पर
महाशक्तियाँ फेरा करेंगी द्वार पर