साजिदा की प्रेमकथा
साजिदा की प्रेमकथा

उसके सपनों में अपना पुराना सा कुर्ता टाँगकर
वह चुपचाप चला गया
सड़क पर उल्टी पड़ी रहीं चप्पलें

उसके होने से आती थीं चिट्ठियाँ
जिनमें दर्ज प्याज की परतें आटे का थैला स्वाद भर नमक
और कलछुल का संगीत

वह तो था ही जनम का मसखरा
कभी न लौटने के बारे में पहले कभी
कहने लगता तो लगता फिर मजाक कर रहा होगा
साजिदा ने उसे कबूल किया था सबके सामने
और अब स्वीकार करना था उसका न होना

See also  शर्मिंदा था मैं | बोरीस स्‍लूत्‍स्‍की

कुछ नहीं और सब कुछ के बीच उसका लोक था
वह था और छाँह थी
जहाँ चाहे रख सकती थी खोए हुए गुड्डे-गुड़ियाँ,
देखती रह सकती थी फलों का टपकना
बकरियों का चरना माँ की पीठ पर चूजों का फुदकना
चरखे पर कते हुए शब्द साफ महीन निकलते थे

फिर अचानक पीले पड़ने शुरू हो गए
सर्दियों के दिन जैसे उसकी अपनी त्वचा
तब घटनाएँ गर्भ में आकार ले रही थीं
बन रहे थे उनके दिमाग हाथ मुँह पाँव
चौंकाती शातिर हवा चली सर सर हर हर हर हर
उड़ा ले गई छतें सिर का साया
अंधे और बहरे हो गए थे समय के देवता

See also  अश्रु मेरे माँगने जब | महादेवी वर्मा

आलाप की तरह उठती गिरती रहती है रुलाई
जिसने देखा था उसे आँखें खोलकर पहली बार मुस्कराते
जैसे सम पर ठहरी रहती है देर तक
खत्म होने में नहीं आतीं दुख की बंदिशें

उस थोड़ी सी जगह में
जहाँ भरी हुई थीं अल्लम गल्लम चीजें
और जमापूँजी सी शताब्दियों पुरानी इच्छाएँ
हिलता रहता है जली हुई मिट्टी सा मौन

See also  अह... हह... | कुमार अनुपम

Leave a comment

Leave a Reply