रेत में आकृतियाँ
रेत में आकृतियाँ

गंगापार
छाटपार
आकाश में सरकता सूरज
जिस समय गंगा के ठीक वक्ष पर चमक रहा था
बालू को बाँधने की हरकत में
कलाकारों का अनंत आकाश

धरती पर उतरने की कोशिश कर रहा था
धरती जिस पर आकाश से गिराए गए बमों की गूँज थी
जहाँ अभी-अभी सद्दाम को फाँसी दी गई थी
जहाँ निठारी कांड से निकलने वाले मासूम खून के धब्बे
अभी सूखे भी नहीं थे

काशी के कलाकारों ने अपनी आकृतियों में
एक रंग भरने की कोशिश की थी
लगभग नीला रंग!

See also  किसी क्रांति में नहीं शांति | प्रतिभा कटियारी

इस रंग में छाही से लेकर निठारी तक का ढंग था
अस्सी से लेकर मणिकर्णिका तक की चाल थी
सीवर से लेकर सीवन तक का प्रवाह था
मेढक से लेकर मगरमच्छ तक की आवाजाही थी
यहाँ रेत में उभरी आकृतियों के बीच

हर कोई ढूँढ़ रहा था अपनी आकृति
और हर कोई भागता था अपनी ही आकृति से!

See also  गौरीपुर की एक सुबह | निशांत

यहाँ सब कुछ था
और सब कुछ के बावजूद बहुत कुछ ऐसा था
जो वहाँ नहीं था
जिसे कलाकारों की आँख में देखा जा सकता था

आँखे जो नदी के तल जैसी गहरी और उदास थीं
जिसमें गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक का विस्तार था
जहाँ स्वर्ग की इच्छा से अधिक नरक की मर्यादा थी।

यह मकर संक्राति के बिल्कुल पास का समय था
जहाँ यह पार उदास था
तो वह पार गुलज़ार

See also  मुहब्बत | नीरज पांडेय

इस पार सन्नाटा था
उस पार शोर!

आज इस सन्नाटे में एक संवाद था
लगभग मद्धिम कूचियों में सरकता हुआ संवाद
जिसमें बार बार विश्वास हो रहा था
कि जब कभी उदासी के गहन अंधकार के बीच
बाहर निकलने की बात उठेगी –
जो कि उठेगी ही
बहुत याद आएँगे ये कलाकार
काशी कैनवस के ये कलाकार
गंगापार!
छाटपार!
   (‘रेत में आकृतियाँ’ संग्रह से)

Leave a comment

Leave a Reply