राग का अंतर्राग | अमिता नीरव
राग का अंतर्राग | अमिता नीरव

राग का अंतर्राग | अमिता नीरव – Rag Ka Aantarrag

राग का अंतर्राग | अमिता नीरव

कमरे में सुबह की हल्की-सी रोशनी आ रही थी। बड़े शहरों के फाइव स्टार अपार्टमेंट में खिड़कियाँ तो बड़ी-बड़ी होती है, लेकिन उन पर पर्दे भी उतने ही मोटे पड़े रहते हैं। रोशनी तो चाहिए, लेकिन धूप नहीं… सब कुछ सुविधानुसार चाहिए, या स्वादानुसार। शुभ की आँखें खुली तो देखा हानिया बेड के किनारे पर बैठकर अपने शूज के लैस बाँध रही थी। उसने झुककर हानिया की खुली कटावदार कमर को चूम लिया, उसने प्यार से मुस्कुराकर उसे देखा तो, शुभ ने शरारतन काट लिया। हानिया की हँसी छन्न से टूटे काँच की तरह पूरे कमरे में बिखर गई। शुभ ने उठकर उसकी हँसी को अपने होंठों में समेट लिया, हानिया के स्टेप कट बालों से शुभ का चेहरा ढक आया। कमरे में फिर से रात घिर आई।

अपने कपड़ों को समेटे हानिया बाथरूम चली गई। शुभ बेड पर यूँ ही लुढ़क गया। इतना भर जाने के बाद भी न जाने वह क्यों अतृप्त है? वह एकाएक बहुत उदास हो गया। हानिया मुस्कुराती हुई उसके करीब आई। उसके चेहरे पर अपने गीले बालों को झटककर कॉर्नर टेबल पर पड़े अपने इयररिंग पहनने लगी। शुभ बस मुस्कुराकर रह गया।

अपने बालों को ब्रश करते हुए हानिया ने पूछा था – ‘तो… वीकएंड पर क्या करने वाले हो?’

शुभ ने उसकी तरफ देखते हुए बहुत तटस्थता से कहा – ‘कुछ नहीं।’

हानिया आश्चर्य से पलटी थी, उसने बहुत गौर से शुभ को देखा। – ‘तो मैं जाऊँ?’ उसने बहुत उम्मीद में भरकर पूछा था।

शुभ ने करवट लेकर कहा – ‘हाँ…।’

हानिया बुझ गई। आहत हानिया ने अपना सामान समेटा और बिना कुछ कहे निकल गई। शुभ बहुत देर तक यूँ ही पड़ा रहा। हर वीक एंड पर कुछ-न-कुछ प्रोग्राम तो रहता ही है। इस बार भी शाकिब ने कहा था, लेकिन शुभ ने इनकार कर दिया।

‘नहीं यार… आई नीड टू रेस्ट… मैं बहुत थका हुआ फील कर रहा हूँ।’ – शुभ ने कहा था। जाने क्या-क्या याद आ रहा है उसे आज। कल रात की पार्टी में जब हानिया ने उससे कहा था कि ‘आई एम कमिंग विथ यू’ तो शाकिब के चेहरे पर फैली मायूसी… एक दिन शाकिब ने उससे पूछा था ‘आर यू सीरियस विथ हानिया?’ – तब शुभ ने समझा नहीं था, कि वह ऐसा क्यों पूछ रहा है?

‘कम ऑन… नो’ – शुभ ने चिढ़कर कहा था।

‘दैन व्हाइ आर यू प्लेईंग विथ हर… तुम्हें दिखता नहीं दैट शी इज वेरी मच इन लव विथ यू…?’ – उसने बहुत तल्खी से शुभ से कहा था।

‘तो… मैं क्या करूँ? मैंने उससे न कभी ऐसा कुछ कहा और न ही इस तरह का कोई कमिटमेंट ही किया। दैट इज हर प्रॉब्लम… नॉट माइन…।’ – शुभ उसे झटककर लौट तो आया, लेकिन उसे समझ नहीं आया कि शाकिब ने उससे ये सब क्यों कहा? आज उसे समझ आ रहा है। शाकिब हानिया को पसंद करता है। शुभ को अपराधबोध सालने लगा। छुट्टी की शुरुआत ही बेचैनी से हुई। उसने कॉर्नर टेबल की ड्रॉज में से सिगरेट निकाली और सुलगा ली।

सब कुछ तो है तेरे पास… फिर क्या बेचैनी सताती है? शुभ समझ नहीं पाता। अभी चार महीने ही तो हुए हैं वह मियामी होकर आया है। १५ दिन रहा था, वहाँ। जो भी मस्ती हो सकती थी, सब किया। लेकिन देखो चार महीने बाद फिर वहीं पहुँच गया। हानिया अच्छी लड़की है और शाकिब सही कहता है… लेकिन वह क्या करे कि उसे प्यार जैसा कुछ महसूस नहीं होता। क्या करे वह…? प्यार की चिंता किए बिना ही क्या उसे शादी कर लेनी चाहिए? या फिर लिव-इन…? लेकिन लिव-इन भी तो प्यार के बाद की स्टेप है। उसे किसी से प्यार क्यों नहीं होता? और प्यार होना किसे कहते हैं? हानिया उसे भाती है, उसकी हँसी, उसके बाल, उसकी चाल… उसका खूबसूरत शरीर…। उसका स्वभाव, ड्रेसिंग सेंस… बिहेवियर… क्या नहीं है उसके पास। फिर भी कुछ कम लगता है… क्या कम है, नहीं जानता शुभ। बस कुछ कम है। अक्सर जब वह दोस्तों के बीच खिलखिलाकर मुस्कुराती है तो लगता है कि जाकर उसके होंठों को अपने होठों से भींच दूँ… कभी-कभी ये इच्छा इतनी तीखी होती है कि वह खुद को चिकोटी काटकर होश दिलाता है। फिर भी हानिया के साथ जिंदगी बसर करने का विचार उसे वाहियात लगता है। उसे हर समय हानिया के साथ होने का विचार ही डरावना लगता है। उस ने अपनी बेचैनी को झाड़ा और किचन में चला आया अपने लिए कॉफी बनाई। जब वह बाहर आया था तो बाहर हल्के बादल थे। वही बादल झरने लगे थे। कॉफी का कप लेकर हॉल में आ बैठा। मौसम में खुनक-सी घुल आई। साइड टेबल पर कप रखा और बीन बैग में धँसते हुए उसने टीवी ऑन कर लिया।

मन कहीं और था, आँखें टीवी में और उँगलियाँ रिमोट के बटन से खेल रही थी। कभी ऐसे कोई विचार नहीं आए। कभी अपने और हानिया के बारे में इस तरह से नहीं सोचा। कभी शाकिब से सहानुभूति नहीं हुई। आज उसके साथ सब उलटा-पुलटा हो रहा है। उसकी उँगली लगातार चैनल सर्फ करने के क्रम में लगी हुई थीं। एकाएक टीवी की स्क्रीन पर एक चेहरा फ्लैश हुआ… उसकी साँसे जैसे रुक गई। उँगलियाँ फ्रीज हो गई… आँखों में जैसे बादल आ जमे… वृंदा…।

टीवी पर वृंदा… लेकिन एकदम से स्क्रीन का चेहरा बदल गया। कोई दूसरी लड़की आ गई। वह इतना सुन्न हो गया था कि कुछ भी सुन नहीं पा रहा था। दूसरी लड़की कुछ कह रही थी, वृंदा बस मुस्कुरा रही थी। उसका मुँह सूखने लगा तो उसने टेबल की तरफ हाथ बढ़ाया काफी का कप लुढ़क गया… उफ्…। वह नहीं उठा, बस उसे होश-सा आ गया। वो लड़की पूछ रही है ‘आपकी कहानी बहुत अनयूजवल है… मीन्स लड़की के दोस्त को लड़की की माँ से प्यार हो जाए! ये विचार आपको कैसे आया… आई मीन इट्स वेरी-वेरी अनकन्वेंशनल…। और वेरी रिवोल्यूशनरी ऑलसो…।’

‘नो-नो इट्स नॉट… इफ यू रीड अमृता प्रीतम। उन्होंने लिखा है।’ – वृंदा ने उसे टोकते हुए कहा। ‘बट ऑय थॉट यू डोंट रीड इंडियन राइटिंग्स… ‘ वृंदा के ऐसा कहते ही एंकर थोड़ी असहज हो गई।

वृंदा ने खिलखिलाकर उसे सहज किया। कैमरे ने एकाएक एक पुरुष के चेहरे पर फोकस किया। कोई ५०-५५ की वय का पुरुष, खिचड़ी दाड़ी और खिचड़ी ही बाल। गोलाकार चेहरा और लंबा छरहरा बदन। नीले रंग का कॉटन का या शायद खादी का कुर्ता पहन रखा था। सफेद चूड़ीदार पायजामा। एक पैर को मोडे और दूसरे को सामने फैलाए बहुत इत्मीनान से एंकर का सवाल सुन रहा था।

एंकर पूछ रही थी ‘सर आपको ये विचार ऑड नहीं लगा?’

वो वृंदा की ओर देखकर मुस्कुराया था ‘ऑड था, तभी तो कहानी ने क्लिक किया था। हमउम्र हीरो और हीरोइन की कहानियाँ तो बहुत यूजवल है। इन तरह की कहानियों में ट्विस्ट क्या लाया जा सकता था… वही अमीर-गरीब, विलेन… जाति-पाँति… आदि-आदि…।’

स्क्रीन पर फिर से वृंदा नजर आई। आश्चर्य है शुभ ने उसे देखा ही नहीं। वह पहले से दुबली नजर आ रही थी। बाल छोटे थे और कॉटन की यलो साड़ी पर ग्रीन बॉर्डर और ग्रीन ही ब्लाउज पहने थी। गले में हमेशा की तरह एक बारीक चेन पड़ी हुई थी और कानों में बहुत छोटे-छोटे हीरे झिलमिला रहे थे। शुभ के मन में लालसा जगी थी। अभी के अभी ही मन बदल गया।

मनस्थिति अजीब हो गई… प्यास गहरी थी, तृप्ति का कोई रास्ता नहीं था। कितने साल हो गए… वृंदा को देखे। कितने साल से साथ थे, याद नहीं। पहली बार कब देखा था उसे। कितनी तो छोटी थी… अपनी फ्रॉक के घेरे में बेर लेकर आ रही वृंदा को कैसे शुभ ने धक्का देकर गिराया था। उसके सारे बेर जमीन पर गिर गए थे। बदले में उसने भी शुभ को धक्का दिया तो उसने गुस्से में जमीन पर गिरे बेर को पैरों से कुचल दिया था। कितना रोई थी वह… बात तो कुछ थी ही नहीं। बस वृंदा के पास वाले मकान में शिफ्ट हुए थे वो लोग। शुभ को आना नहीं था, उसके सारे दोस्त रोहित, अतुल, विनय उस पुराने शहर में छूट गए थे। उसे तो पता भी नहीं था कि पापा-मम्मी उसे बिना बताए ये फैसला कर लेंगे। इस घर में शिफ्ट होने के हफ्ते भर बाद जब वह अपने स्कूल के साथियों से पिटकर आ रहा था, बस ऐन तभी तो उसे वृंदा दिखी थी। वो भी शायद स्कूल से ही आ रही थी। पढ़ती तो शुभ के ही स्कूल में थी, ये अलग बात है कि हफ्ते भर में एक बार भी उसने वृंदा को नहीं देखा? या शायद देखा हो, लेकिन मार्क नहीं किया। यूँ तो मार्क करने लायक था ही क्या उसमें? कोई दूध धुला गोरा रंग तो था नहीं। गेहुँआ रंग था, और आमतौर पर होने वाली काली आँखें। फिर दोनों की क्लास भी अलग थी। वो तो बाद में पता चला कि वो शुभ से दो साल बड़ी थी। बड़ी थी… बस इसी एक तथ्य से दोनों के बीच की केमिस्ट्री बस अलग हो गई। हालाँकि ये तो बहुत बाद की बात है, लेकिन उस दिन जब वो घर लौटा तो बहुत बुझा, बहुत उदास और बहुत थका हुआ था। माँ के ये कहने पर कि जूते कितने गंदे करके लाए हो उसने जूता खोलकर इतनी जोर से उछाला कि चलते पंखे से टकराकर दूसरे कमरे में लोहे की अलमारी पर रखी गणपति की मूर्ति पर गिरा और वो मूर्ति नीचे गिरकर टूट गई।

माँ ने भी आपा खो दिया था। वो मूर्ति मौसी ने खासतौर पर भेजी थी गणेश चतुर्थी पर स्थापना के लिए। खूब पिटाई हुई थी। रोते-रोते सो गया था शुभ… जब पापा ने जगाया तो बाहर बादल जोर-जोर से गरज रहे थे। नींद ने गुस्सा भुला दिया था, थोड़ा सा मलाल बचा था। माँ ने आकर शुभ को प्यार किया तो वह भी जाता रहा। पापा गर्मागर्ग गुलाब जामुन लाए थे। माँ किचन में जाकर पकौड़े तलने लगी थी। बाहर बारिश हो रही थी। वह दौड़कर खिड़की की तरफ गया तो देखा, सामने वही सुबह वाली लड़की खुले में भीग रही और नाच रही थी। शुभ उसे आश्चर्य से देखने लगा…। जब उसने शुभ को देखा तो चिल्लाई… आजा, बहुत मजा आ रहा है।

अचानक शुभ में अपराधबोध गहरा गया। अभी दोपहर में ही तो स्कूल से लौटते हुए उसने इस लड़की से लड़ाई की थी। लेकिन उसे देखकर तो लग ही नहीं रहा कि उससे झगड़ा भी हुआ है। वैसे पानी में भीगना और कीचड़ में जाना उसे कतई पसंद नहीं है। वह आज तक कभी बारिश में नहीं भीगा। ये अलग बात है कि स्कूल से आते हुए कई बार भीगना पड़ा हो, लेकिन खुशी और मन से तो कभी भी नहीं। लेकिन जिस तरह से वह लड़की गड्ढों में भरे पानी में उछल-उछल कर नाच रही थी, शुभ को लालच हो आया… भीगने का। वह नहीं जानता था कि पीछे से पापा आकर कब चुपके से खड़े हो गए। पापा को देखकर वह लड़की चिल्लाई थी… अंकल आप भी आ जाइए, बहुत मजा आएगा।

शुभ ने पीछे देखा तो पापा खड़े हुए थे। पापा बहुत जोर से हँसे, शुभ को आश्चर्य हुआ और न जाने क्या हुआ कि उसका मन उखड़ गया। वह लड़की उसके पापा के साथ ऐसे कैसे बात कर सकती है? जबकि मैंने तो कभी भी उसकी मम्मी के साथ बात नहीं की… उसके पापा तो कभी दिखे ही नहीं। माँ कहती है कि विदेश में नौकरी करते हैं। करते होंगे…। लेकिन शुभ का मन उचट गया। वह वहाँ से सोने चला गया, लेकिन नींद आने तक उसके सामने वृंदा का बारिश में मस्ती करना याद आता रहा। उसने सोचा, किसी दिन वह भी बारिश में भीगकर देखेगा। क्या पता सचमुच ही मजा आता हो। लेकिन हाँ उस छछुंदर के सामने बिल्कुल भी नहीं।

उस दिन रविवार था, स्कूल नहीं जाना था, इसलिए माँ ने उसे उठाया भी नहीं जल्दी। वह जब उठकर आया तो वही छछुंदर पापा के साथ टेबल पर बैठकर नाश्ता कर रही थी। शुभ को फिर से गुस्सा आया। वह तो कुर्सी पर बैठी थी, शुभ जाकर पापा की गोद में बैठ गया। पापा मुस्कुराए… लेकिन वह जोर से हँसी। ‘अभी तक पापा की गोद में ही बैठते हो।’ पापा को उसकी बात पर जोर से हँसी आ गई। शुभ को तेज गुस्सा आया और वह भनभनाता हुआ फिर से अपने कमरे चला गया।

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आज शुभ उसे ठीक वैसे ही याद कर पा रहा है, जिसे अब तक उसने कभी भी रिवाइज नहीं किया था। वैसे भी वह कभी भी रिवाइज करता ही नहीं है। परीक्षा में भी ऐन परीक्षा से पहले ही पढ़ता था। माँ को हमेशा शिकायत रहती थी कि साल भर नहीं पढ़ता। हाँ, तो आज उसे यह महसूस हो रहा है कि उस दिन उसे समझ जाना चाहिए था कि वृंदा उससे बड़ी है। कितनी… इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता था, आज तक नहीं लगा पाया। यूँ हुआ कि वृंदा उसके पीछे-पीछे ही उसके कमरे में आ धमकी…। उसने शुभ से पूछा ‘तुम अब तक गुस्सा हो क्या?’

शुभ को शर्म आई, झगड़ा तो मैंने किया था और अभी भी बेवजह गुस्सा करके चला आया और ये लड़की… लेकिन इतनी जल्दी गुस्सा झाड़ा भी नहीं जा रहा था। ‘नहीं…’ कहते-कहते शुभ रुआँसा हो गया।

‘तो फिर ऐसे अचानक से ऊपर क्यों चले आए? मुझे विश भी नहीं किया! आज मेरा बर्थडे है…’ -शुभ को फिर थोड़ी शर्मिंदगी हुई। ‘ओह सॉरी… लेकिन तुमने मुझे कहाँ बताया कि आज तुम्हारा बर्थडे है।’ – शुभ अपनी शर्म छुपाने के क्रम में कामयाब होने का अहसास कर ही रहा था कि उसने तड़ाक से कह दिया ‘तुमने मौका ही कहाँ दिया… तुम तो तुरंत ही भाग आए।’

‘ऊँ… ‘ शुभ ने अपना सिर झुकाकर गलती मान ली। सुलह हो गई दोनों के बीच। यह विचार बाद के कई सालों तक नहीं आया कि वृंदा शुभ से बड़ी है। दोनों साथ-साथ स्कूल जाते, कई बार लौटते भी साथ-साथ… सिवा उन सालों के जब वो बड़ी क्लास में थी और म्यूजिक क्लास के लिए स्कूल से सीधे चली जाया करती थी।

अक्सर शाम को जब वो रियाज करती थी, शुभ को खीझ उठती थी, लेकिन पापा बॉलकनी में अक्सर आँखें मूँदे बैठे रहते थे। तब शुभ को और भी ज्यादा गुस्सा आता था। फिर वो दो-तीन दिन वृंदा को साथ लेकर नहीं जाता था, उससे बात नहीं करता था। लेकिन फिर एक दिन ऐसा होता कि उसके घर से निकलते ही वृंदा भी उसके साथ हो लेती। एक-दो दिन दोनों चुपचाप-चुपचाप चलते… फिर दोनों में सुलह हो जाती। आज शुभ सोचता है तो उसे अहसास होता है कि कैसे वृंदा उससे हमेशा ही बड़ी रही… न सिर्फ उम्र में बल्कि व्यवहार में भी और अब लगता है समझ में भी…।

शुभ उदास हो गया। पापा को भी लगता था शायद यही… तभी तो वृंदा उनकी फेवरिट थी। अक्सर वृंदा के घर आने से पापा कुछ ज्यादा ही खुश रहते थे। एकाध बार जब शुभ ने माँ से इसकी शिकायत की थी तो माँ ने मुस्कुरा कर कहा था कि ‘पापा को बेटी चाहिए थी और आ गया तू…’

‘तो क्या किसी को भी बेटी बना लेंगे।’ – शुभ ने भुनभुनाते हुए कहा था। माँ ने सिर पर प्यार से चपत लगाई थी -‘वृंदा कोई भी है…?’

जाने क्यों वृंदा को माँ भी पसंद करती थी और पापा तो… तभी तो जब गाड़ी खरीदी थी पापा ने तो शुभ को तो बहुत हिदायतों के साथ चलाने के लिए देते थे, लेकिन जब एक दिन वृंदा ने उनसे कहा कि ‘अंकल मुझे भी ड्राइविंग सीखना है।’

पापा ने शुभ को चाभी दी और आदेश ही दे दिया ‘शुभ, वृंदा को गाड़ी चलाना सिखाने की जिम्मेदारी अब तुम्हारे पास है।’ लो देखो, मुझे तो बहुत मुश्किल से चाभी मिलती है और यहाँ वृंदा को कितनी आसानी से दे दी। कभी-कभी ईर्ष्या भी होती थी, उससे और पापा पर गुस्सा भी आता था। लेकिन फिर…

उस दिन बहुत बकझक और चिढ़-चिढ़ के बाद शुभ उसे गाड़ी सिखाने के लिए ले गया था। बारिश के ही तो दिन थे, वो रविवार का दिन था और यूनिवर्सिटी की ओर जाने वाली सड़क पर एकदम शांति थी। गाड़ी चलाना सीखने के लिए यह शहर की सबसे मुफीद जगह है। वह बहुत बुरी तरह से भरा हुआ था… इस सबसे बेखबर वृंदा उसे किसी न किसी बात पर खिझा रही थी।

भीड़ भरी सड़क से निकलकर जैसे ही वो यूनिवर्सिटी रोड पर पहुँचे। वृंदा ने रट लगाई, ‘अब मुझे दो… गाड़ी।’ खीझे हुए शुभ ने ड्राइविंग सीट छोड़ी और चाभी उसे लगाकर पास वाली सीट पर जा बैठा। बहुत ही झुँझलाया हुआ था, लेकिन वृंदा इस सबसे बेखबर उत्साह से उसकी ओर देख रही थी…। जब शुभ ने उसे नहीं देखा तो वह रुआँसी हो गई ‘बता तो दो…।’

शुभ ने खीझकर बताया था ‘ये क्लच है, ये गियर है, ये ब्रेक, ये एक्सीलरेटर या स्टीयरिंग और ये हॉर्न… इग्निशन लगाओ… क्लच, दबाकर गियर चेंज करो… और रेस दो… गाड़ी आगे बढ़ें तो क्लच छोड़ दो, फिर गियर शिफ्ट करना हो तो फिर वही करो।’

‘ओके…’ वह सब देख रही थी, उसने शुभ की खीझ नहीं देखी थी। उत्साह में भरकर क्लच दबाया गियर बदला और जैसे ही रेस दी गाड़ी बंद… फिर वही किया… फिर गाड़ी बंद…। तीन बार ऐसा होने पर शुभ की झुँझलाहट पूरी तरह से बाहर आ गई। ‘इत्ती छोटी-सी बात समझ नहीं आ रही है कि एक्सीलरेटर दो… गाड़ी थोड़ी आगे बढ़े तब क्लच छोड़ो… बड़ी गाड़ी सिखेंगी…’ – बुरी तरह से झल्लाया था शुभ। एक तो पापा उसे गाड़ी देते नहीं और वृंदा को सिखानी थी तो दे दी, इस बात का गुस्सा था और फिर उसे नीरज की बर्थडे पार्टी पर जाना था, सोचा था जल्दी जाऊँगा, लेकिन ये लफड़ा गले पड़ गया। इसलिए वह फट पड़ा।

वृंदा बहुत उत्साह में थी और एकाएक जैसे तेज जलती अग्नि पर घड़ों पानी पड़ गया हो… वह स्तब्ध रह गई। वह जान ही नहीं पाई कि कब उसकी आँखों में आँसू आ गए और कब उसने बीच रास्ते में खड़ी गाड़ी का दरवाजा खोला और उतरकर चलने लगी। आगे… उस सुनसान रास्ते पर। शुभ उसकी इस प्रतिक्रिया से एकदम ही हक्का-बक्का हो गया। उसे भी नहीं पता था कि उसे इतना बुरा लगेगा। उसने कभी वृंदा को रोते देखा ही नहीं और जिस तरह से वह वहाँ से उतरकर कई थी शुभ घबरा गया था। वह गाड़ी को वहीं रास्ते में छोड़कर उसके पीछे भागा… ‘वृंदा… प्लीज… सॉरी यार… प्लीज।’

उस वक्त पता नहीं शुभ के मन में क्या-क्या आया और क्या-क्या नहीं आया…? मगर वह बेतहाशा उसके पीछे भागा… उसके एकदम सामने जाकर उसने हाथ जोड़ने की मुद्रा में कहा ‘गलती हो गई यार… मुझे इतना गुस्सा नहीं करना चाहिए था। प्लीज… ‘

उसने वृंदा के चेहरे की ओर देखा था… भरी हुई आँखों में उदासी फैली हुई थी, पूरे चहरे पर… होंठ जैसे अपमान से थरथरा रहे थे। और शुभ उसे देखता ही रह गया। एकटक… उसे लगा जैसे वो किसी और लड़की को देख रहा है। ये कौन है? जाने वह खुद को भूल गया या फिर वृंदा को…? वो ठिठकी थी क्योंकि शुभ सामने ही खड़ा हुआ था। शुभ चैतन्य हुआ था, उसे बढ़कर वृंदा का हाथ पकड़ लिया, वह स्वयं नहीं जान पाया कि उसका स्वर कैसे उसे धोखा दे चुका है। बहुत रुआँसे स्वर में उसने वृंदा से कहा ‘मेरी अच्छी दोस्त… प्लीज मुझे माफ कर दो, पता नहीं क्यों मैं चिढ़ गया था। मुझे नहीं चिढ़ना चाहिए था, मैं ही तुम्हें गाड़ी चलाना सिखाऊँगा… प्रॉमिस…’

जाने शुभ के चेहरे पर के भाव कैसे थे, वह रोते-रोते जोर से खिलखिलाने लगी। शुभ फिर शॉक में… ‘तुम नाटक कर रही थी…?’ -शुभ चीखा था और वृंदा चीभ चिढ़ाकर दूसरी तरफ भागने लगी। शुभ उसके पीछे-पीछे भागा था…

कितने सारे चित्र हैं जो उसे एक-एक कर याद आ रहे हैं। शुभ की बुआ भी नहीं थी और बहन भी नहीं। शायद पापा को यही कसक रही हो। तभी तो वृंदा उनकी बेटी बन बैठी थी। उस सुबह वह बहुत जल्दी में थी, जब घर आई थी। पापा नहा रहे थे और माँ नाश्ते की तैयारी। शुभ हमेशा की तरह कॉलेज जाने की जल्दी में था, जब दरवाजे पर ही वह उससे टकराई थी। वह लिट्रेचर में रिसर्च की तैयारी कर रही थी और शुभ इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में था। तब तक शुभ उसे लेकर कुछ गंभीर हो गया था। उसे देखकर वह भी रुक गया। उसने टेबल पर एक मैग्जीन रखी ‘चाची, मेरी पहली कहानी आई है। आप और चाचा पढ़कर बताएँ जरा कैसी है?’

तब तक शुभ नहीं जानता था कि वह लिखती है। पढ़ती है यह तो पता था और उसे हमेशा ही वृंदा का पढ़ना फिजूल लगता था। आज वह इस तरह से सोच पा रहा है कि दोस्त विनय को पढ़ते देखकर उसे गर्व होता था, लेकिन वृंदा के पढ़ने को लेकर एक किस्म की चिढ़ थी। समझ नहीं पाता कि ऐसा क्यों होता था? शुभ ने उसकी मैग्जीन को बहुत गंभीरता से नहीं लिया था। या कम-अस-कम ऐसा दिखाया तो था। शाम को जब वह लौटा तो पापा के पास वह मैग्जीन रखी हुई थी और वो बहुत गंभीर थे, ऐसा लगा शुभ को जैसे उनकी आँखें भरी हुई थी।

शुभ ने पूछा ‘क्या हुआ पापा?’

वो जैसे नींद से जागे थे ‘क्या लिखा है लड़की ने… कितनी संवेदनशील कहानी है। कहाँ से लाती है वो…?’ शुभ ने आश्चर्य से पापा को देखा था। चिढ़ थी, गुस्सा… या फिर नफरत या उपेक्षा… क्या था जो उसे छूकर गुजर गया था। वह तेजी से अपने कमरे में चला गया था। बाद में उसने चुपके से वह मैग्जीन पढ़ी थी। उसे भी लगा तो कि कहानी बेहद अच्छी है, लेकिन वृंदा की उपेक्षा ने उसे आहत किया था। वह मैग्जीन पापा के लिए लाई थी, मेरे लिए नहीं। ओह… एक ही वक्त में एक ही साथ कितनी अनुभूतियों से हम घिर रहते हैं। एक ही व्यक्ति के लिए प्रेम, घृणा, प्रतिस्पर्धा… कितना अजीब है मन, कितनी चीजें एक साथ धारण करके रखता है?

शनिवार की शाम को अक्सर शुभ वृंदा के साथ गुजारता था। कहीं किसी रेस्टोरेंट में या फिर किसी पार्क में। उस शाम पार्क की उस झील में अपनी सलवार को टखनों तक चढ़ाएं पानी में पैर डाले बैठी वृंदा को देखकर शुभ के मन में कामना जागी थी। वैसे तो उसने कई बार वृंदा को सहेजा था, लेकिन आज जो जागा वो बहुत अलग था। हवा से उड़ते उसके बाल और बार-बार उसका दुपट्टा सहेजने की कोशिश करता हाथ… वृंदा उसे बहुत सुंदर… बहुत काम्य लगी थी। उसने खुलकर कहा था ‘तुम बहुत सुंदर हो वृंदा…’ वह मुस्कुराई थी, बहुत हौले से उसने शुभ के कंधे पर अपना सिर टिका दिया था।

‘शुभ… यहीं मत ठहरो… और आगे आओ…।’ देर रात तक उसने वृंदा की बात के कई आयामों पर विचार किया।

ज्यादा दिन नहीं लगे थे, कुछ ही दिनों बाद उसे वृंदा ने ग्रहण कर लिया था। शुभ के रात-दिन बस वृंदा के इर्द-गिर्द ही होते रहे थे। लेकिन कई बार शुभ को यह भी लगता था कि वृंदा को पा कर भी पूरी नहीं पा पाया। कोई हिस्सा हमेशा ही उसे छूटा-सा लगता था। वृंदा के देने के प्रति उसके मन में कोई संशय नहीं जागता था, लेकिन अभाव-सा उसे लगता ही रहता था।

पता नहीं मन की कौन-सी कड़ी कहाँ जाकर जुड़ती है कि उलझनें सुलझती-सी लगती है। शुभ के मुंबई जाने से पहले ही वृंदा पहुँच गई थी। वह संघर्ष कर रही थी, फिल्म स्टार्स को हिंदी सिखाने का काम कर रही थी, लेकिन उसका लक्ष्य विजुअल दुनिया के लिए लिखना था। जब शुभ ने उसे बताया कि उसे भी मुंबई की कंपनी में जॉब ऑफर हुआ है तो वृंदा बहुत खुश हुई।

यूँ उस समय शुभ के बहुत सारे दोस्त जिनमें से अधिकतर उसके सीनियर्स थे, मुंबई में रहने लगे थे। सुजित सर भी… उनसे शुभ की सबसे अच्छी दोस्ती थी। कहो तो राजदारी भी थी। जब उन्हें पता चला तो उन्होंने शुभ को कहा था कि मेरे साथ ही आकर ठहर जा, जब तक घर न मिले। वो घर वालों से विद्रोह करके नयना को शादी करके ले आए थे… नई-नई शादी हुई थी… फिर शुभ का आकर्षण तो मुंबई में भी वृंदा ही थी।

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जब वह मुंबई पहुँचा तो उसे रिसीव करने आई थी वृंदा…। शुभ ने संकोच से कहा था ‘मैं जल्द ही अपने रहने के लिए जगह ढूँढ़ लूँगा।’

कितना हँसी थी वह… ‘हाय राम… एकदम से बहुत बड़े हो गए हो? मुझसे शर्माने लगे हो?’

शुभ शर्म से गड़ रहा था जैसे… ‘नहीं, वो बात नहीं है।’

‘हाँ, हाँ… समझ रही हूँ। वो नहीं ये बात है…’ फिर वह एकाएक गंभीर हो गई। ‘शुभ… यदि तुम्हें स्पेस ही चाहिए तो तुम अलग जाकर रह सकते हो? यदि एथिक्स-वेथिक्स का चक्कर है तो छोड़ो… हमारी दुनिया में एथिक्स की जरूरत नहीं है।’ – कहकर उसने पीछे से शुभ को अपनी बाँहों में घेर लिया था।

उस शाम वह जब चर्च गेट स्टेशन पर उतरा तो उसकी लोकल आने में थोड़ा वक्त था। प्लेटफार्म पर वह फर्स्टक्लास के डब्बे वाली जगह पर जाकर खड़ा हो गया। शाम का वक्त था। स्टेशन पर चहल-पहल तो थी, लेकिन अभी दफ्तर का समय न होने से वैसी भीड़ नहीं थी। शुभ ने अपने आसपास नजर दौड़ाई प्लेटफार्म के कोने पर लड़कियों का झुंड खड़ा था। दो-तीन खूबसूरत लड़कियाँ थीं, खासतौर पर पिंक मिनी स्कर्ट में खड़ी वो लंबी-दुबली लड़की। देर तक उसने वह विचार चुभलाया…। पास खड़ी नीली जींस और शोल्डर ऑफ टॉप पहने लड़की के चेहरे पर शुभ की नजरें अटक गईं। एकाएक शुभ के मन में एक विचार आया…।

धीरे-धीरे स्टेशन पर भीड़ बढ़ने लगी। शुभ का विचार कहीं भीतर दब गया। बाहर की दुनिया ने उसे भीतर तक जकड़ लिया। रात को जब थकी हारी वृंदा चलते टीवी के सामने ही लुढ़कने लगी तो शुभ ने उसे अपनी बाँहों में समेटकर प्यार से कहा ‘मुझे लगा था कि तुम पर इस शहर का असर आ गया होगा। लेकिन देखता हूँ कि तुम अब भी उस कस्बे की जकड़ से मुक्त नहीं हुई हो।’

उसने प्यार से शुभ के गाल थपथपाए थे ‘मैं अपने आप से ही कहाँ मुक्त हो पाई हूँ शुभ…।’ शुभ को उसकी आवाज में गहरी उदासी सुनाई पड़ी। उसने बेचैनी में वृंदा का चेहरा अपनी तरफ किया था ‘मुझे बताओ वृंदा… क्या है जो तुम्हें उदास किए हुए है।’

वृंदा की आवाज की उदासी उसके पूरे वजूद पर फैल गई थी। ‘मैं अपने भीतर कसमसाती हूँ… मुझे खुद से रिहाई चाहिए।… मुझे नहीं पता तुम इसे कैसे समझोगे…? लेकिन इससे ज्यादा साफ करके मैं तुम्हें समझा नहीं पाऊँगी।’ उसने करवट ले ली।

शुभ उठा और उसने अपनी अलमारी में से एक पैकेट निकालकर वृंदा को थमाया। वृंदा ने उसे उत्सुकता से थामते हुए पूछा ‘क्या है?’

‘देखो तो… मैं जानता हूँ, तुम पर बहुत अच्छा लगेगा।’ शुभ ने वृंदा का बढ़ा हुआ हाथ थामा और उसे अपनी तरफ खींचते हुए कहा। तब तक वृंदा पैकेट खोल चुकी थी। उसमें वनपीस शॉर्ट ड्रेस थी। वृंदा ने उसे खोलकर देखा… मुस्कुराई… फिर उदास हो गई।

‘क्या हुआ?’ – शुभ ने पूछा। उसने बिना कुछ जवाब दिए सिर झुका लिया। उदासी जैसे पूरे कमरे में पसर गई। ‘पहनकर नहीं दिखाओगी…?’ – शुभ ने सब ठीक करने की गरज से कहा। उसने ड्रेस हाथ में लिया और बाथरूम में चली गई।

वृंदा को देखकर शुभ का खुद पर नियंत्रण नहीं रहा। उसने उसे वैसे ही थाम लिया और बेतहाशा चूमने लगा। ‘देखो कितनी सेक्सी लग रही हो…? तुम क्यों नहीं पहनती ऐसे कपड़े… इस शहर में तो पहन सकती हो… यहाँ तो सब लड़कियाँ यही पहनती है। तुम बहुत अच्छी लग रही हो… पता है… वेरी सेक्सी, वेरी डिसेंट… डिजायरेबल…’ – शुभ बोले जा रहा था और वृंदा उसकी बाँहों में एकदम सुन्न थी।

‘क्या हुआ वृंदा?’ – शुभ ने उसे खुद से अलग करते हुए पूछा। ‘तुमने मेरी खुशी के लिए पहना इसे… सच बताओ, तुम्हें ये पसंद नहीं है?’

‘नहीं शुभ… बात ये नहीं है। मैंने तुमसे कहा न… मैं अपने शरीर से मुक्त होना चाहती हूँ। आय वांट टू लिबरेट मायसेल्फ विथ माय फेमिनिटी…। और जब तक ये नहीं होगा, तब तक मैं खुद को लेकर सहज नहीं रह पाऊँगी।’ – शुभ उसे गहरी नजर से देखा… कुछ समझा लेकिन बहुत सारा नहीं समझ पाया।

उस दिन मिस यूनिवर्स कांटेस्ट का लाइव टेलिकास्ट चल रहा था। स्लिम सूट राउंड में स्लिमवीयर में लंबी-पतली लड़कियों को आत्मविश्वास से कैटवॉक करते हुए बहुत गौर से देख रही थी वृंदा… नींद उड गई थी उसकी, कल संडे था। उसने गहरे डूबकर कहा था ‘पता है शुभ… इन लड़कियों को देखकर मुझे अक्सर लगता है जैसे दे लेफ्ट देयर बॉडीज… तभी तो… तभी तो वे इन लोगों के सामने ऑब्जेक्टिव हो जाती होंगी… यू नो… बी ऑब्जेक्ट, फील लाइक ऑब्जेक्ट… नहीं क्या?’

शुभ ने आहत होकर उसकी ओर देखा था ‘कैसी बातें कर रही हो यार… दे आर प्रेजेंटिंग देयरसेल्व्स… लाइक ऑब्जेक्ट…। इनफेक्ट दे फील प्राउड ऑन देयर बॉडीज… उल्टी बात कर रही हो तुम…। ‘

‘जो भी हो शुभ… बट आय वांट टू लिबरेट माय सोल फ्रॉम माय बॉडी। आय वांट टू बी राबिया बीबी…’

शुभ ने आश्चर्य से उसे देखा था ‘हू इज राबिया बीबी…?’

‘शी वॉज सेंट… आठवीं शताब्दी की… बसरा में पैदा हुई थीं। कहा जाता है कि वे खुदा की इबादत में इस कदर मशगूल हो गईं थी वे नेकेड रहने लगी थी… शी बीन ऑउट ऑफ हरसेल्फ… जस्ट थिंक… कैसा होता होगा, कैसा लगता होगा खुद से अलग हो जाने का अहसास…।’ – जिस तरीके से वृंदा कह रही थी, उससे शुभ को उस पर बहुत प्यार आया…।

‘तो तुम भी नैकेड हो जाना चाहती हो… अभी तो ये सेक्सी ड्रेस पहनना नहीं चाहती हो और सपने देखो…’ – शुभ ने मुस्कुराकर उसे बाँहों में भर लिया। वृंदा सिसक-सिसक कर रोने लगी। शुभ समझ ही नहीं पाया कि हुआ क्या है?

शुभ को अक्सर ही यह लगता था कि वृंदा उसके लिए अबूझ है…। बहुत सारी चीजें वो समझ ही नहीं पाता है, बहुत सारी जगह वह चुप रह जाता है। बहुत सारा कुछ दोनों के बीच है, बहुत सारा कुछ गुजर गया है… बहुत सारा कुछ ऐसा भी है जो बचा हुआ है। वो क्या है वो शुभ समझ नहीं पाता है, वृंदा जाने समझती है या शायद जानती भी है, लेकिन वह खुद को हेल्पलेस पाती है। कुछ भी कर पाने की स्थिति में नहीं पाती वह खुद को। लेकिन उस शाम शुभ को वृंदा हर दिन के उलट बहुत खुश नजर आई। उससे पहले ही पहुँच गई थी, जब शुभ पहुँचा तो उसने वृंदा को उसी वनपीस शॉर्ट ड्रेस में देखा जो उसने लाकर दी थी।

अप्रत्याशित रूप से शुभ को बहुत खुशी हुई। अंदर पहुँचते ही वृंदा ने उसे बाँहों में ले लिया। कान में फुसफुसाते हुए कहा ‘इस ड्रेस में मुझे ठीक से देख लो… जाने फिर कब ऐसे देख पाओगे…।’ शुभ को उसकी बात बहुत समझ नहीं आई, फिर भी वह बहुत खुश हुआ। उसने वृंदा को बाँहों में घेर लिया, उठा लिया।

देर रात किसी बहुत अंतरंग और भावुक क्षण में फिर से शुभ ने वृंदा से मीठी-सी शिकायत की ‘मुझे क्यों लगता है वृंदा, तुम पूरी मेरे पास नहीं हो? कुछ अधूरापन-सा क्यों लगता है मुझे तुम्हारे इर्द-गिर्द… जैसे कुछ है जिसे तुमने मुझसे छुपा रहा था, मुझसे दूर रखा है, मुझे देना नहीं चाहती… जो मेरा है फिर भी मेरे पास नहीं है।’

शुभ अपनी रो में था, वह देख ही नहीं पाया कि उसकी इस बात ने वृंदा को कितना उदास कर दिया है, वह बहुत गहरे अपराध-बोध में चली गई। ‘मुझे खुद भी नहीं पता शुभ… मैं खुद ही कहाँ अपने पास पूरी हूँ। जो भी, जितनी भी थी, सब तुम्हें दे चुकी हूँ। अभी तक अपने पूरेपन तक ही मैं कहाँ पहुँची हूँ, जब मैं खुद को संपूर्ण मिल पाऊँगी, तभी तो तुम्हें दे पाऊँगी।’

‘मुझे हमेशा एक कसक-सी लगती है… जैसे तुम्हें पाकर भी समेट नहीं पाया। जैसे तुमने अपना कुछ बहुत कीमती, मुझसे छुपा रखा है।’ – शुभ ने लगभग रूआंसा होकर कहा था।

वृंदा एकदम खिन्न हो गई थी। वह नहीं समझ पा रही थी कि आखिर वह क्या कहे, करे? उसे यह दुख भी होने लगा था कि आखिर उसका अधूरापन शुभ के सामने भी जाहिर हो ही गया। लेकिन वह क्या करे… कहाँ से करे खुद को पूरा…? क्या अभाव है, वह उसे जाने तो पहले… वह खुद ही अपने सामने पहेली बनी हुई है। शुभ के सामने क्या सुलझाए? लेकिन आज उसे यह भी महसूस हुआ कि बात बहुत गंभीर है। जब ठीक होगा, तब होगा, तब तक क्या ऐसे ही अधूरेपन के साथ जिएँगे दोनों?

शुभ सो गया था। लेकिन वृंदा सो नहीं पाई थी। वह इतनी गहरे उतर गई कि निर्णायक हो उठी थी। सुबह-सुबह आँख लगी होगी। शुभ ने उसे उठाया भी तो उसने यह कहकर करवट बदल ली कि ‘आज जाने का मन नहीं है। रात ठीक से सो नहीं पाई। तो दिन भर सोऊँगी। तुम जाओ।’

शाम को अपने समय पर शुभ पहुँच गया था। अमूमन दोनों थोड़ा बहुत ही आगे-पीछे होते हैं आने में। शुभ थोड़ा जल्दी पहुँच गया या ऐसा भी कह सकते हैं कि वृंदा आने में थोड़ा लेट हो गई। शुभ फ्रेश होकर आया और चाय बनाई।

ट्रे में चाय और स्नैक्स लेकर वह ड्राइंग रूम में आया और टीवी ऑन कर लिया। जब तक वृंदा आ नहीं जाती, तब तक वह टीवी देखता है। उसे याद आया कि जब वह देर से आता है तो पाता है कि वृंदा यूँ ही बैठी मिलती है… जैसे वह मेरे हिस्से के वक्त को सहेज रही हो। एकाएक उसे अपराधबोध महसूस हुआ। उसने टीवी बंद कर दिया। वह आँखें मूँदे वृंदा को अपने जहन में भर रहा था। एकाएक उसे याद आया कि आज तो वृंदा नहीं जाने वाली थी… उसने खुद ही कहा था कि वह सोएगी। सोचा हो सकता है थोड़ी देर के लिए मार्केट गई हो। उसने मोबाइल लगाया तो मोबाइल बंद आया। मोबाइल क्यों बंद है, ऐसा तो वह कभी करती नहीं है। उसका काम ही ऐसा है… शुभ को थोड़ी बेचैनी-सी महसूस हुई। लगा कि कुछ अशुभ हो रहा है उसके साथ…। तभी उसका मोबाइल फ्लैश हुआ, कोई मेल आया है। वृंदा का मेल… वृंदा क्यों मेल करने लगी? उत्सुकता से मेल खोला था। लेटरनुमा ड्रॉफ्ट था।

मेरे शुभ

जिसका डर था, वही हो गया। अपने अधूरेपन से बहुत डरती रही थी आज तक… इसलिए कि कहीं उसकी आँच तुम तक पहुँची तो मेरा क्या होगा? खुद से डरना भी कितना भयावह होता है, तुम कभी जान ही नहीं पाओगे। और कितनी यंत्रणा होती होगी, जब आपका डर सही सिद्ध हो जाए।

सोचा तो था मैंने कि यूँ ही ऐसे ही तुम्हारी बाँहों का तकिया बनाकर मैं हर रात सो जाया करूँगी… हर सुबह तुम्हारे होंठों की छुअन से ही जागूँगी। हर शाम तुम्हारी गुनगुनी हथेली को लेकर अपने मन की सिलवटों को दूर कर लूँगी… रात उसी तरह चाँदनी की तरह सफेद बेदाग और शीतल हो जाया करेगी… जैसे शरद की हुआ करती है… लेकिन पता है, जीवन ने कभी भी मुझसे कोई रियायत बरती ही नहीं। उसने हमेशा ही मुझसे कंजूसी बरती है। और इस सच को मैं कैसे भूल गई, देखो तुम्हारे साथ ने मुझे एकदम ही बेफिक्र और लापरवाह बना दिया था। इतना कि, अपनी कमी को भी भूले बैठी थी।

नहीं जानती थी कि जिंदगी इतनी उदार कभी होती नहीं है। हाँ, कभी-कभी उदार होने का भ्रम दे जाती है। पता है, मैंने तय कर लिया था, कि हम जीवन भर ऐसा ही रहेंगे… यदि तुम और मैं न चाहें तो हमें कौन अलग कर सकता है, बताओ भला?

समझती तो थी, लेकिन माना नहीं… दो और दो का जमा चार जिंदगी नहीं है। कितने पेंच है, कितने खम हैं…? बस यहीं मुझसे गलती हो गई। शुभ…

मेरे पास लिखने के लिए कुछ है नहीं… सिवा इसके कि मुझे तुमसे प्यार है… कितना? कभी उसकी गहराई में जाने का साहस ही नहीं कर पाई… डरती थी, कहीं खुद ही न डूब जाऊँ। बस यहीं… यहीं वो गलती हो गई। भ्रम में रही कि कोई वक्त ऐसा होगा, जब मैं पूरी-की-पूरी तुम्हारी होऊँगी… वो ऐसा वक्त होगा, जब मैं पूरी-की-पूरी अपने हाथ में आऊँगी। शायद हो… लेकिन पता नहीं कब? अब इस शर्मिंदगी को लेकर तुम्हारे साथ नहीं रह पाऊँगी। रात भर इसी ऊहापोह में रही… यकीन मानो ऐसा करना आसान नहीं था। पहली बार में मन हुआ कि तुम्हें बताऊँ… मैं तुम्हें मुक्त कर रही हूँ। फिर लगा कि खुद के दुख से तो लड़ ही रही हूँ, तुम्हारे दुख से भी यदि संघर्ष करना पड़ा तो बहुत कमजोर हो जाऊँगी। फिर मैं अपने अपराधबोध को लेकर तुम्हारे साथ कैसे रह पाऊँगी।

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तुम खुश रहोगे… यह वादा मैं तुमसे चाहती हूँ।

मैं भी खुश रहने की कोशिश करूँगी… जिंदगी तेज गति प्रवाह है… कोई चाह कर भी इसमें ठहर नहीं सकता है। हम न चाहें तब भी ये हमें बहा ले जाएगा। कहीं-न-कहीं तो उसकी दिशा होगी ही। मेरी तो नियति ही यह शहर है… हो सकता है तुम्हें जिंदगी आगे कहीं ले जाए… हो सकता है कि कभी हम फिर से मिले। हो सकता है मैं ही अपना आप लेकर आ जाऊँ… तुम्हारे पास… तुम्हारी बाँहों के तकिए पर सोने के लिए। लेकिन तब तक मुझे जाना ही होगा… शायद मैं तभी खुद को ढूँढ़ पाऊँगी। मैं अपने मोबाइल की सिम यहीं छोड़े जा रही हूँ, अपना ई-मेल और फेसबुक अकाउंट बंद कर दिया है। तुम मुझे मत ढूँढ़ना… तुम्हारा नंबर, ई-मेल एड्रेस और फेसबुक अकाउंट सब मुझे जबानी याद है…।

फिर से मिलने की चाह में

आधी-अधूरी

वृंदा

शुभ को समझ ही नहीं आया कि ये क्या हुआ? और ये क्यों हुआ? क्या कह दिया था मैंने? हाँ मुझे लगता था, लेकिन इसमें… इसमें सब खत्म कर देने की बात कहाँ से आ गई थी? मन की पहली प्रतिक्रिया के बाद लहर-दर-लहर प्रतिक्रियाओं का सैलाब आ पहुँचा था। उसे पीड़ा हुई थी और अंत में उसने खुद को बहुत आहत महसूस किया था। यदि साथ थे तो अलग होने का फैसला भी तो साथ ही करना था न?

वृंदा ने इसे अकेले कैसे कर लिया? उसने सोचा कि उसके बाद मेरा क्या होगा? वह बेचैनी में फ्लैट का दरवाजा खुला ही छोड़कर छत पर चला गया। वहीं टहलने लगा। अपने लोअर की जेब में उसने हाथ डाला… एक सिगरेट मिली, लेकिन छत पर माचिस नहीं थी। लेकिन बेखयाली इतनी थी कि उसने कोरी सिगरेट ही मुँह में लगा ली। वह तेज-तेज टहलने लगा। बिल्डिंग के बच्चे वहाँ खेल रहे थे। जब उसे टहलते देखा तो उन्होंने अपने खेलने की जगह थोड़ी बदल ली।

जब टहलते-टहलते थक गया तो वह मुँडेर पर बैठ गया। झुटपुटा उतर आया था। बच्चों के खेल का तरीका बदल गया था। अब उन्हें बॉल दिखना कम हो गई थी। इसलिए वे अपना सामान समेट रहे थे। पता नहीं क्या हुआ था उसमें से एक बच्चे ने उसे मुँडेर पर से हाथ पकड़कर जोर से नीचे खींचा और चीखा ‘अंकल… गिर जाओगे।’ शुभ को जैसे होश आया था। वह शर्मिंदा था और बच्चों की उत्सुक और डरी हुई नजरों से बचकर वहाँ से निकल आया था।

फ्लैट के दरवाजे पर पहुँचते ही उसे अजीब-सी दहशत ने घेर लिया था। घर का पूरा इंटीरियर उसकी नजरों के सामने घूम गया था। पूरा घर वृंदा की याद का स्टोर जैसा हो रहा था। वह लौटकर नहीं जाना चाहता था। वृंदा ने उसे ऐसे बीच में छोड़ दिया… उसका मन रोने-रोने का हो आया। उसे एकाएक दर्द-सा महसूस हुआ, लेकिन समझ नहीं पाया कहाँ? वह उसी तेज दर्द में घर के भीतर गया। कुछ जरूरी सामान उसने अपने बैग में डाला और घर को लॉक करके वहाँ से निकल गया। बेखयाली में वह न जाने कहाँ भटक रहा था, उसे याद तब आया जब उसने खुद को सुजीत और नयना के फ्लैट में पाया।

वह नहीं जानता कि वह रात का कौन-सा वक्त था। वह भटकते-भटकते कहाँ पहुँच गया था? वह सुजीत को कहाँ और किस हाल में मिला…। सुबह जब उसे होश आया तो उसने सुजीत से पूछा… ‘मैं तुम्हें कहाँ मिला यार?’

सुजीत ने उसे घूरा और तेज गुस्से में दाँत पीसते हुए पूछा था ‘मरने क्यों जा रहे थे?’

‘मरने…? कौन जा रहा था?’ – शुभ उलझ गया।

‘तुम्हें मैं कोलाबा के रेलवे ट्रैक से पकड़कर लाया हूँ। तुम चल रहे थे उस पर जैसे खूब नशा किया हुआ हो।’ – कहते हुए उसके गुस्से की तपन थोड़ी मद्धम होने लगी। ‘मैं पीछे के रास्ते से निकलता हूँ, वहीं मुझे घर आने के लिए ऑटो मिलते हैं। वहीं आप अँधेरे में ट्रैक पर चले जा रहे थे। मैं तो बस यूँ ही बचाने के लिए दौड़ा था, देखा तो आप थे…’ – उसका गुस्सा फिर भड़क गया।

‘सॉरी यार… मेरा ऐसा करने का कोई इरादा नहीं था… पता नहीं कैसे…?’ – शुभ खिसियाकर बोला।

‘इरादा नहीं था…? तू क्या नशे में रहता है? मैं यदि वहाँ नहीं होता तो कुछ भी…’ – कहते-कहते वह फफक पड़ा।

‘मुझे माफ कर दे यार… सच मुझे नहीं पता था, मैं क्या कर रहा था, कहाँ जा रहा था? प्लीज…’ – शुभ अपने घुटनों पर दोनों हाथ जोड़कर सुजीत के सामने गर्दन झुका कर बैठ गया।

सुजीत का मन तरल हो आया…, ‘मुझे बता क्या हुआ है?’ – उसने उसके हाथों को अपने हाथ में लेकर शुभ से पूछा।

‘वो… वो मुझे छोड़कर चली गई…’ – भरे लगे से शुभ ने बहुत मुश्किल से अपनी बात कही।

‘वो… वृंदा…?’

‘क्यों?’ – सुजीत खड़ा हो गया था। उसे सारा माजरा समझ आ गया। ‘ओह…’ उसने खड़े होकर शुभ को गले लगाया। शुभ फफक-फफक कर रो पड़ा। ‘मैं नहीं जानता कैसा जी पाऊँगा…? मुझे याद ही नहीं वो कब से मेरे जीवन में थी… अब तो ऐसा लगता है जैसे जन्म से ही मैं उसके साथ था, लेकिन फिर भी वो मुझे ऐसे ही छोड़कर चली गई।’ सुजीत और नयना से एक-दो बार दोनों मिले भी थे। सुजीत ने पूछा भी था ‘ओए तू बिना शादी के साथ रह रहा है? ‘ – शुभ थोड़ा झेंप गया था। फिर सब अपने-अपने में व्यस्त हो गए… कभी मैसेज से ही पता चलता था कि वो कहाँ हैं और क्या कर रहे हैं? पिछले एक-डेढ़ सालों में तो कभी एक-दूसरे से मिले भी नहीं और मैसेज भी नहीं किया।

सुजीत ने बहुत सहमते और संकोच करके पूछा था ‘क्या बात हुई थी?’

‘पता नहीं यार… ‘मुझे लगता है उसे मैं कभी समझ ही नहीं पाया…।’ – अंत तक आते-आते आवाज जैसे उसके गले से घुटकर निकली।

‘कोई…’ – सुजीत ने बहुत डरते-डरते पूछना चाहा, लेकिन फिर छोड़ दिया। शुभ का चेहरा तमतमा आया… उसने भींचे जबड़ों और तीखी नजर से सुजीत को देखा ‘नहीं…।’

‘ओके… सॉरी… यार मामला ही ऐसा है तो तमाम बातें आती हैं मन में… सॉरी।’ – सुजीत ने माफी माँगते हुए कहा। शुभ ने उसे भरी हुई नजरों से देखा।

शुभ अब लौटकर उस फ्लैट में नहीं जाना चाहता था। उसने मैनेजर को कंपनी के गेस्ट हाउस में एक सप्ताह ठहरने के लिए एप्लीकेशन दी। एप्लीकेशन इस बात पर मंजूर हो गई कि यदि किसी गेस्ट को कोई दिक्कत हुई तो उसे छोड़ना पड़ेगा। वह सुजीत के घर से भी शिफ्ट कर गया। नया फ्लैट ढूँढ़ने में लग गया, इसी बीच वह प्रोजेक्ट के सिलसिले में साल भर दक्षिण अफ्रीका भी जाकर रहा। धीरे-धीरे सब सैटल हो गया। पुरानी कंपनी छोड़ दी, नई ज्वाइन कर ली। यहीं उसकी मुलाकात हानिया से हुई, अच्छा पैकेज मिला तो फ्लैट भी खरीद लिया… जीवन अपनी गति में आ गया। कभी-कभी ऐसे ही कोई खुशबू, कोई आवाज, कोई गीत… कोई मौसम उड़ाकर याद ले आता था, लेकिन कसक कम होने लगी थी। शुभ को लगने लगा था कि वह उस जकड़ से आजाद हो गया है।

लेकिन शुभ पुराने बंधनों की तासीर से वाकिफ नहीं था। कुछ तो उनकी आदत हो जाती है और कुछ वे भी शिथिल हो जाते हैं। जरूरत भर आजादी मिल जाती है और इससे ज्यादा की आदत रह नहीं जाती है। वही शुभ के साथ हुआ था। वृंदा से मुक्त ही नहीं हो पाया था तो हानिया कहाँ से आ पाती?

ओह…। शुभ ने अपना अपने चेहरे को दोनों हाथों से ढक लिया था। वो रोना चाहता था, लेकिन रो नहीं पा रहा था। वृंदा वहीं है, वहीं… एक सूत भी वहाँ से हिली नहीं है वो। मेरे अनजाने ही उसने मेरे जीवन को कब्जाया हुआ है। मुझे बस मुक्ति का भ्रम हुआ था, मैं मुक्त नहीं हुआ था। मुझे अपनी कैद से ही प्यार है… वो बुदबुदाया था।

शनिवार की शाम को ही तो उसकी फिल्म का प्रीमियर है। वो आएगी… पक्का वो आएगी। शाकिब ने उसे प्रीमियर पर ले जाने का वादा किया है। शुभ उत्साहित है बहुत… चाहे जो हो, वो वृंदा को मना लेगा। आज नहीं मानेगी तो क्या वो मना लेगा। उससे कहेगा, ‘जितनी तू है, मैं उससे ही अपना काम चला लूँगा… क्योंकि उतनी ही तू मुझे ढक लेती है… मेरी पूरी जिंदगी पर छाई हुई है। न होकर भी… तो होकर तो…।’ शुभ ने ब्लैक सूट पहना था। वह बाहर ही वृंदा को घेर लेना चाहता था। थियेटर के गेट पर लोगों का जमावड़ा है। स्टार्स सारे इसी गेट से अंदर जाएँगे, फिर अंदर जाकर सब खो जाएँगे, इसलिए बेहतर है यहीं खड़े होकर सबको देख लें। शुभ का दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। हर गाड़ी जो आकर पोर्च में रुकती उसे देखकर शुभ उसके काले शीशों को घूरकर देखता… पता नहीं किस गाड़ी में हो। आगे ही खड़ा था… वो। फिर से एक गाड़ी आकर रुकी। उसमें शुभ की तरफ से एक छोटी-सी, प्यारी-सी बच्ची उतरी और भागने लगी। दूसरी तरफ से वृंदा उतरी उसने वहीं से बच्ची को आवाज लगाई… ‘शुभदा… बच्चे दिस वे…।’ लेकिन लगा कि बच्ची ने कुछ सुना ही नहीं… इतने लोगों के बीच उसने दौड़ लगा दी। वृंदा ने उसे दौड़कर पकड़ा…। शुभ का कलेजा उछलकर बस जैसा बाहर ही आ जाने वाला था, उसने बच्ची को देखा और फिर वृंदा को… उसने बेकलेस गाउन पहना हुआ था… उसकी कमर के कटाव का वो तिल उसे दिखा जो कपड़ों में ही छुपा रहता था, जिसे शुभ सबसे पहले चूमता था। उसे लगा वो जाकर शुभदा को गोद में उठा लें और वृंदा की कमर में हाथ डालकर उसे रेड कार्पेट पर ले जाए। उसने जाना कि वृंदा अपनी उस स्त्री से मुक्त हो गई है, जिससे कभी शुभ को प्यार था… और शुभ के भीतर अब तक वही पुरुष साँसें ले रहा है, जिसे वृंदा छोड़कर गई थी।

तो… तो क्या हुआ? शुभ जैसे एक ही साँस में मरने और जीने का फर्क लाँघ गया, वह भीड़ के बीच से निकलकर भागा। शुभदा चकाचौंध को देखती एक सीढ़ी नीचे चल रही थी। वृंदा उस चकाचौंध के बीच अपनी राह पर चल रही थी। शुभ दौड़ता हुआ गया और उसने शुभदा की छोटी-सी, नाजुक-सी कलाई को थाम लिया। वह चौंककर देखने के लिए मुड़ी तो वृंदा का हाथ खिंच गया… वृंदा ने पहले शुभदा को देखा और फिर उस इनसान को जिसकी वजह से शुभदा रुकी है।

उस एक क्षण में जैसे आसपास का पूरा नजारा ब्लर्र हो गया। वृंदा की काजल भरी आँखों में समंदर हरहराने लगा। शुभ के सब्र का बाँध ढह कर बह निकला था। वह भूल गया था कि वह कहाँ हैं, क्या कर रहा है? उसने दो सीढ़ी चढ़कर वृंदा को बाँहों में ले लिया।

‘तो क्या हुआ कि तुम पूरी नहीं हो… जितनी हो, उतनी ही मुझे ढकने के लिए बहुत हो वृंदा… तुम मेरा आसमान हो, जिस पर मेरा चाँद है, मुझे ग्रहण कर लो। मैं बिना छत के नहीं रह पाऊँगा… मर जाऊँगा…’ वह वृंदा के कानों में बुदबुदा रहा था। वृंदा साँस रोके उसे सुन रही थी। उसकी कमर पर ठहरी शुभ की हथेली को अपने छोटे से हाथ से अलग करती शुभदा चीखी थी ‘लीव माय मॉम…’ वृंदा की आँखों में हीरे जगमगाए थे। शुभ के होंठों से झरे थे… दोनों ने शुभदा की छोटी-छोटी बाँहों को थाम लिया था। ‘आय एम योर डैड बच्चे…’ – शुभ ने उसे उठाते हुए कहा था।

दुनिया फिर से हाई डेफिनेशन कलर्स में नजर आने लगी थी।

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राग का अंतर्राग – Rag Ka Aantarrag

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