जिस राह पर वह चलती है

वहाँ अनेकों की आँख फिरती है।

अनेक अकर्म शिला फेंक कर

एक मोती

प्रेमिक हाथ की मुट्ठी में रखती ।

प्रेम एक साधना, कोई खेलघर नहीं

प्रेमिका एक मयूरकंठी साड़ी,

पटवस्त्र नहीं।

जैसा वह हीरे का टुकड़ा

हजार गलमालाओं में

वह निःसंगता का मंत्र पढ़ती।

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नदी गढ़े, सागर गढ़े

भूगर्भ से खुल आए बन्या में।

रवि अस्तमित के समय भी वह झटकी

ऊँची भूमि को जाए

अमृत पीए – विष भी पीए।

पिछली जमीन उड़ाने

त्रिवेणी घाट पर डुबकी लगाए।

पेड़-पौधे में बह जाए

जैसे वह धीर पवन है।

वह कितनी सीधी है, सुबह की धूप की तरह

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वह कितनी चंचल

जैसे साँझ की बदली, सागर की लहर।

रंगमय उसकी सत्ता,

पुरुष दहल जाएगा

उसकी कटाक्ष एक ऊँचाई की बाड़।