प्रथाएँ तोड़ आए
प्रथाएँ तोड़ आए

छोड़ आए छोड़ आए
छाँव के क्षण
बहुत पीछे छोड़ आए

बहुत मुश्किल था
स्वयं को बाँध पाना
मुट्ठियों में रेत का
कैसा ठिकाना
तोड़ आए, तोड़ आए
पाँव से लिपटी
प्रथाएँ तोड़ आए

थकन भी क्या कहें
जो आँख लगती
कहीं कोई रोशनी थी
साथ जगती
जोड़ आए, जोड़ आए
अनकहे कल में
कथाएँ जोड़ आए

See also  शब्द... | प्रदीप त्रिपाठी

लोग थे औ’ जेब में थे
कई चेहरे
रास आए नहीं पर
सपने सुनहरे
मोड़ आए, मोड़ आए
हमें मुड़ना था
दिशाएँ मोड़ आए

Leave a comment

Leave a Reply