पेड़ और वे | राजेंद्र प्रसाद पांडेय

पेड़ और वे | राजेंद्र प्रसाद पांडेय

यद्यपि उन्हें साल रही थी
सब-कुछ को न समेट पाने की भाषा की मजबूरी
फिर भी उस सब के लिए उन्होंने
एक खुशनुमा नाम चुन ही लिया ‘वसंत’

था भी वहाँ सब-कुछ कितना खुशगवार
पागलपन तक पहुँची
हवा और गंध की युगनद्धता
आसमान की कोख में
विकसित भ्रूणों से हिलोरते पाँखी
शीशे से होड़ लेता दरिया का पानी
प्रेमिका की आँखों से कुलाँचते मृगछौने
पछुआ के झोंके पर तैरते तृण-गुल्म
हृदय की हूल-सी बहुरंगी डालियों-चढ़ी पुष्पावली
धरती की बालिका-बधू और उसकी
छँट-बिछुल रही धूपछाँही साड़ी

इन चीजों को एक ने फिर कहा – ‘सौंदर्य’
दूसरे ने कहा – ‘आदर्श’
तीसरे ने कहा – ईश्वर’
तीनों ने श्रद्धा सहित
इसमें से अपने भीतर थोड़ा-बहुत भरा
और खुशी-खुशी चले गये

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दूसरे दिन वे फिर आये
अब तीनों के पास
एक-एक लक्ष्य थे
एक के पास सौंदर्य की उपासना का
दूसरे के पास आदर्श के अनुसरण का
तीसरे के पास ईश्वर की आराधना का
तीनों ने पूरे माहौल को परखा
सम्मान से विनय से श्रद्धा से
और इतना सबके लिए
श्रेय दिया उस पेड़ को

पेड़ न होता तो
न ठंडी होती हवा
न सुगंध बिखेरती मादकता
न सुंदर लगता
दरिया का पानी
न कुलाँचते मृगछौने

पहले ने उसके बनाये चित्र
अलग-अलग कोणों से
दूसरे ने उसके स्वभाव को
अपनाने का संकल्प लिया
तीसरे ने अपने आराध्य के लिए
सँजो लिये फूल
फिर तीनों ने उसे शीश झुकाया और लौट गये

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अगले दिन वहाँ फिर बहार थी
निखर आयी थीं गुच्छों की कलियाँ कल को भूल
पेंगें मारतीं अल्हड़
और वे तीनों भावविभोर थे

अब उनके भीतर उगी थी कल्पना
एक में सौंदर्य की
दूसरे में आदर्श की
तीसरे में ईश्वरत्व की
तीनों में एक साथ थी खुद को ऊँचे उठाने की कल्पना

कितनी समृण थी वह
कितनी मादक
कितना अपनी ओर खींचती
कितना सब कुछ को भुलाती
पने लिए – केवल अपने लिए

तीनों ने उसे प्रमाण किया
और चले गये

अगले दिन वे फिर आये
एक के हाथ में था कुल्हाड़ा
दूसरे के आरी
तीसरे के फावड़ा

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वैसे तो उनमें उग आये थे
कई-कई औजार
कुर्सी के
पलंग के
चौखट के, दरवाजे के
पीढ़े के, चौकी के
फलक के
गमले के
उपवन के
– कई-कई की कल्पना के औजार

तीनों ने किया विचार-विमर्श
हर कोण से
अंततः सहमति हो गयी
एक ने चलाया कुल्हाड़ा
सौंदर्य के लिए
दूसरे ने चलायी आरी
आदर्श के लिए
तीसरे ने चलाया फावड़ा
ईश्वरत्व के लिए

सीना ताने वह
हँस रहा था
उन नादानों पर
हजार हँसियाँ
भाग नहीं रहा था वह
पर तीनों पिले पड़े थे
अरअरा कर गिरा था वह
और अभी हँसे जा रहा था
धरती माँ की गोद में
उसे मानव भाइयों पर विश्वास था