पैरोडी | रमेश बक्षी
पैरोडी | रमेश बक्षी

पैरोडी | रमेश बक्षी – Pairodi

पैरोडी | रमेश बक्षी

वह मेर दफ्तर में आ गई। मेरे सामने बैठते ही उसने कहा – ‘मुझे पापा ने भेजा है।’ मैंने कलम रोक कर उसकी तरफ देखा। खूब कीमती साड़ी कस कर बाँधी गई थी। नेक्लेस पर हीरे चमक रहे थे। जूड़ा उसने ब्यूटी सेलून से बँधवाया होगा। मुझे अपनी तरफ देखते वह लजा गई। नाखून से मेरा टेबल कुरेदते बोली – ‘पापा प्रोग्रेसिव ख्यालों के हैं न…।’ मैं कोई खबर बना रहा था। वैसे ही पूछा – ‘मार्क्स-वादी हैं या चीन पंथी?’

– मेरा मतलब राजनीति से नहीं है। मेरा मतलब है कि उनके विचार खुले हुए हैं।’ हाथों को गोल करके उसने ऐसा कहा कि उस बात को मैंने खींचा नहीं और बोला – ‘देखिये अगर आपको टायपिंग आता हो और आपकी स्पीड…।’ वह अचकचा कर बोली – ‘वह क्या बोल रहे हैं आप, मैं नौकरी के लिए नहीं आई हूँ। मुझे आप नहीं पहचानते क्या? परसों आप मुझे घर देखने आए थे। मैंने कराची हलवा आपको दिया था और आप…

– अच्छा-अच्छा, याद आ गई बात। अरे तो आप वह हैं। हलवा उस दिन का बेहद बकवास था, अब तक मेरे दाँतों में फँसा है।’ यह कहते मैं मुस्करा दिया।

वह झेंप कर बोली – ‘आप तो हमारा मजाक उड़ा रहे हैं।’ उसके कान यह कहते लाल हो गए ओर उसने फिजूल ही अपना पर्स खोला और फिर बंद कर लिया। उसी बीच मेरा एक फोन आ गया। मैं खुश हो कर बात करने लगा – ‘हाँ, मैं बोल रहा हूँ। क्या हाल है मीनाक्षी, तुम तो बहुत दिनों से मिली नहीं। शाम आ जाओ टी-हाउस तो कोई फिल्म-विल्म देखी जाए…।’

मैंने जब बात करके चोंगा रखा तो उसका रंग उड़ा हुआ था। वह घबराई-सी बोली – ‘आप किसी लड़की से बात कर रहे थे?’

– जी हाँ। एक मीनाक्षी नाम की लड़की है। बड़ी खूबसूरत है…। मेरा यह वाक्य सुनते ही वह ऐसे ‘जी’ करके चौंकी, जैसे कोई पिन चुभ गई हो। मैं कागज उलटने-पलटने लगा और वह अपने बढ़े हुए नाखून को चूड़ियों पर मारने लगी। एक क्षण को मुझे लगा कि यह एक दम उठ कर चल देगी। मैं उसे विदा करने की गरज से आधा उठ गया कि तभी वह बोली – ‘पापा ने यह कहा है कि मैं आपको समझ लूँ और आपके बारे में जानकारी प्राप्त कर लूँ। उनका कहना यह है कि दूसरे घरों में यह काम माँ-बाप करते हैं, लेकिन वे चाहते हैं कि…।’ उसे ऐसा लगा कि वह ज्यादा बोल रही है, सो एकदम चुप हो गई और राह देखने लगी कि मैं कुछ बोलूँ। जब ज्यादा समय बीत गया तो मैं ही बोला – ‘कहीं कागज में लिख रखा है मैंने कि वजन कितना है मेरा और ऊँचाई भी। मेरा वेतन तो आपको मालूम है ही। जन्म तिथि मैंने पहले ही बतला दी है, क्या उसके लिए सर्टिफिकेट की अटेस्टेड कॉपी…?’

मैं बोल ही रहा था कि वह हँस दी और ऐसे हँसी, जैसे हँसी को रोक नहीं पा रही है। मैं उसकी हँसी रुकने पर बोला – ‘आप अच्छा हँस लेती हैं।’

इससे वह बुरी तरह झेंपी और उसके मुँह से निकला – ‘हट्।’

इतनी देर में मैंने घंटी दे कर चपरासी को बुला लिया। उसे ऑर्डर दिया – ‘एक चाय ले आओ।’ वह चपरासी के आने से गंभीर हो गई। जब वह चला गया तो बोली – ‘आप नहीं पीयेंगे चाय? क्या केवल मेरे लिए मँगवा रहे हैं?’

– बात ऐसी है कि कल रात मैं दो बजे रात घर पहुँचा था सो…।

– आप दो-दो बजे घर लौटते हैं?

– कुछ आवरा किस्म के दोस्त हैं मेरे, वे जब मिल जाते हैं तो देर हो जाती है।

– आपके दोस्त आवारा किस्म के हैं?

– ज्यादा नहीं हैं, खाली आठ-दस हैं, एक स्मगलर है, एक बूटलेगर है, एक-दो पत्रकार हैं, एक बेकार हैं और एक कवि हैं।

– आपका आवारगी से क्या मतलब है?

– दिल्ली में क्या आवारगी करेंगे, बैठ कर पीते हैं।

– पीते हैं?

– गोश्त खाने?

– पैसे हुए तो कहीं कैबरे देख लेते हैं।

– कैबरे देखते हैं?

– यहाँ क्या रखा कैबरे में, कैबरे तो कलकत्ते में देखते थे। वहाँ लड़की आसानी से मिल जाती थी। वैसे जिंदगी में मजे इतने हैं कि रात देर हो ही जाती है…

मैं एकदम सकपका गया। वह पसीना पोंछ रही थी और ठीक से बैठ नहीं पा रही थी एकदम बेचैन थी।

– अरे आप पसीने से घायल हो रही हैं। क्या हो गया आपको सहसा। आपको हिस्टीरिया की बीमारी तो नहीं है? मेरा यह वाक्य उसे अपमानजनक लगा। पसीना पोंछना बंद करके वह ऐसे रोष से तन गई, जैसे मुझे थप्पड़ मार देगी। मैं खुद ही बोल दिया – ‘मेरा ऐसा-वैसा मतलब नहीं है। मुझे खुद ही ब्लडप्रेशर है।’

– आपको ब्लडप्रेशर है?

– वह भी हाई। एकदम बढ़ जाता है बैठे-बैठे मुझे लगता है कि अब मेरा रामनाम सत्य हुआ…। लेकिन बीमारियों को कैजुअल लीव समझना चाहिए, लैप्स नहीं होने देना चाहिए।

वातावरण फिर हल्का हो गया। चाय आ गई। उसने ओठों से लगा ली। उसे जैसे पापा का पढ़ाया कोई सवाल याद आया हो, बोली – ‘आप अपने बीते हुए जीवन के बारे में कुछ कहेंगे?’

मैं प्रसन्न हो गया – ‘अब आया मजा। मुझे अपनी पास्ट हिस्ट्री सुनाने में खूब मजा आता है। मैं चार खंडों में अपनी आत्म-कथा लिखना चाहता हूँ। मौका मिलते ही लिखूँगा। हाँ तो… ‘मैं खाँसा, तो वह बोली – ‘ठीक है एकाध खंड में से कुछ सुनाइए…’

मैं शुरू किया – ‘मैं पहले बूट पॉलिश करता था, रूमाल बेचता था, बीड़ी बनाता था।’

– यह सब मुझे नहीं सुनना। आप वह, बात बताइए, जिसके चरित्र पर प्रकाश पड़ता हो।

– लेकिन किसके चरित्र पर?

– आपके अपने चरित्र पर। क्या कभी आप पिटे है?

– कोई तीन बार पिट चुका हूँ। एक बार एक लड़की को छेड़ दिया था।

– क्या कहा?

– वह इतना इंट्रेस्टिंग नहीं है। दूसरी बार का किस्सा मजेदार है। मैं एक बार एक लड़की के साथ भाग गया था।

– आप भाग गए थे? आप होश में तो हैं। देखिये मजाक मत कीजिए।

– आपसे मजाक क्यों करूँगा भला। आपने कहा तो मैंने सुना दिया।

– आप झूठ नहीं बोलेंगे, सच-सच कहिए।

– कुल मिला कर अब तक कोई बीस लड़कियों से मेरा परिचय रहा है।

– बीस? फिर आप शादी क्यों नहीं कर पाए?

– मैं तो शादी करना चाहता था, लेकिन लड़कियाँ-लड़कियाँ होती है, सब हाथ से निकल गईं। तो हमेशा बंसी डाले बैठे रहता हूँ… यह कह कर मैं हँस दिया।

– आप बहुत मजेदार आदमी हैं, लेकिन आप मजाक छोड़ कर असलियत पर आइए। मुझे अपने अब्बाजान को जवाब देना है। मैं क्या कहूँगी उनसे जा कर। उसने एक उँगली पर रूमाल बाँध दिया। फिर याद करके बोली – आप अपनी पे का क्या करते हैं?’

– खर्च करता हूँ। मैं सहज ही बोल दिया।

– लेकिन कैसे? आप एकदम अकेले हैं और इतना सारा पैसा कहाँ जाता है, क्या कुछ जमा किया है, बीमा करवाया है अपना? घर में ढंग का फर्नीचर भी है कि नहीं?

– आपने तो मुझे घबरा दिया इतने सारे सवालों से। सब बात का एक उत्तर – जैसे ही रुपया मिला कि मैं उसे कोट की इस जेब में ठूँस लता हूँ। आधे से ज्यादा पी जाता हूँ, कुछ के कपड़े खरीद लेता हूँ बाकी फालतू खर्च हो जाते हैं। एक नया पैसा जमा नहीं करवाया।’ इतना कह कर मैंने अपना कलम उठा लिया। वह किसी उधेड़-बुन में रही फिर एक दम उठ गई – ‘नमस्कार।’

मैंने राहत की साँस ली ही थी कि वह लौट पड़ी। बोली – ‘क्या आप एक काम कर सकते है कि जो कुछ आपने कहा है, उसे मजाक नाम दे लें। सच, आपने जो कुछ कहा है, उसे जो भी सुनेगा, हँसते-हँसते उसके पेट में बल पड़ जाएँगे…।’

– आपने ठीक कहा। कहने का ही क्या, मैं यह सब जब करता हूँ न तब भी लोग खूब हँसते हैं। मैं पी कर नशे में जब फुटपाथ पर सो जाता हूँ…।

– मैं यह नहीं कह रही हूँ कि आप यह सब करें और उससे लोगों का मनोरंजन हो। मैं तो अपने लिए रास्ता ढूँढ़ रही थी। मैं पापा से कह दूँगी कि ऐसी बातें कहने की इस आदमी की आदत पड़ गई है।’ वह बेहद गंभीर लग रही थी। थोड़ा रुक कर बोली – ‘जिंदगी एक गंभीर चीज है, उसे आप इतने हँसी-मजाक में क्यों लेते हैं। नौकरी, विवाह, घर-बार…।’

वह बोल ही रही थी कि मैंने एक ठहाका लगा दिया। वह गुस्से में काँपने लगी – ‘यह क्या है?’

– यह मेरा तरीका है जीने का।

– आप जोकर लगते है। आप…

– अहमक हैं, नालायक हैं, शराबी हैं, चरित्रहीन हैं, गिरे हैं…। मैं उसी रदीफ में बोले जा रहा था कि उसने कानों पर अपने हाथ रख लिए। वह फिर जाने के लिए घूम गई। मेरे केबिन के दरवाजे की तरफ मुँह करके बोली – ‘आप जैसे लोग दुनिया के साथ खिलवाड़ करते हैं। यह गुस्ताखी है।’

मैं चेहरे पर मुस्कान ला रह बोला – ‘लेकिन मैं जो कुछ कर रहा हूँ, सारी गंभीर जिंदगी से क्षमायाचना सहित कर रहा हूँ। और मैंने ऐसा किया भी क्या? जब गमगीन हुए, गोलगप्पे खा लिए; जब सुस्त हुए, सीटी बजा ली। दुपहर को दफ्तर कर दिया शाम को शराब से रिप्लेस कर दिया…।’

वह धीरे से आगे बढ़ी और केबिन का दरवाजा लुढ़का कर बाहर हो गई।

मैंने कलम उठा लिया और सोचने लगा कि पहले एक मिनट सीटी बजा लूँ, फिर लिखूँगा।

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