नीला | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता
नीला | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता

रंगों में सबसे पहले
नीला ही बना होगा
सृष्टि के आरंभ में

भोर का नीला
कितना विभोर किए हुए है मुझे

पूरब के आसमान पर
तुम्हारी लालिम आहट के पहले
खिड़की से नीला देखना चाहिए
बोलता हुआ नीला
दरवाजों की कोर से झाँकता हुआ नीला
अपने जादू में बाँधता हुआ नीला
सुबह-सुबह यही नीला निहार
खुशी मन दौड़ पड़ता है किसान
हरियाली उगाने खेतों की ओर

अल्सुबह रिक्शे का पैडिल मारते हुए आदमी को
नीला ताकत दे रहा है
बैलगाड़ी के बैलों की आँख का नीला
नीलाम नहीं होगा कभी
मंडी से इतना तो बचाकर
लाएँगे ही वह हर रोज
यह बैल मनुष्य की सभ्यता से साथी हैं
सबसे विश्वसनीय

कितनी कोमल कर दे रहा
यह नीला मेरी अनुभूति

मेरे बचपन के दोस्त सूरज!
तुम्हारी किरनों को भी नीला नशा है
झूम-झूम कर धरती का अलंकार कर रही हैं

गोधूलि के पहले का नीला भी
दौड़ता है मेरी नसों में खूब

नीला भर रहा है भीतर
तो जीवन में प्रेम बढ़ रहा है
इस ठस समय में बच रही है कोमलता
नीला मुलायम कर रहा है मेरा आसमान
धरती के रंगों को जगा रहा है तहजीब से

यह नीला कितना रच रहा है मुझे
अपने उजाले से माँज-माँज कर मेरी निगाह
नीला लीलामय है
खूबसूरत बातों का रंग नीला होता है!

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