नीचे को ही ढो रहा हूँ | लाल्टू
नीचे को ही ढो रहा हूँ | लाल्टू

नीचे को ही ढो रहा हूँ | लाल्टू

नीचे को ही ढो रहा हूँ | लाल्टू

विवस्त्र ठण्डे पानी में
दम घोंट कर नीचे जा रहा हूँ
झील अँधेरे में खोई है
अँधेरे से निकलने के लिए
झील में मैं हूँ

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मेरे हाथों में जाम छलकता
रात के अँधेरे में जैसे धूप
तुम कह रहे देश की
राजनीति पर गम्भीर बातें

मैं निहायत ही सरल प्रक्रिया में हूँ
नाक मुँह शरीर के तमाम छेद खुल गए हैं
पानी कल कल बहता है नलियों में

पीड़ा पीड़ा को बुझाती
निगल रही जाम
राजनीति और तुम्हें
बची रह गईं रातें रातें रातें.

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(अक्षर पर्वः उत्सव अंक – 1998; पश्यन्ती – 2001)

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