‘चलो एक अफसाना बुनते हैं।’

हम चार दोस्तों के बीच मंजीतवा (वैसे तो ‘सिंह’ था) किसी के बोलने का नंबर ही नहीं आने देता था। चार लाइन किसी लेखक की याद कर लाता और हर बार की तरह बहस में नानस्टोप एक घंटे तक बोलता रहता। आज भी शुरू हो गया –

‘हम मारवाड़ी बनियों के बारे में तो न जाने दुनिया में कितनी गलतफहमियाँ फैलाई गई हैं। झारखंड के आदिवासियों को लूटा, पूर्वोतर में शोषण किया और महिलाओं के साथ बलात्कार आदि-आदि। राम के राम मैं एक नंबर का धंधेबाज आदमी हूँ, इण बातों से कोई लेना-देना नहीं। आप रामगढ़ में किसी से भी पूछ सकते हैं कि सेठ गंगासागर कितने भले आदमी हैं। अरे भाई साहब, मैंने तो जंगल में प्याऊ बनवाई, अमीरों के लिए धर्माशाला बनवाई। आप ही बताइए कि बनियों से ज्यादा गरीब कौन है संसार में? पर भलाई का तो साहब जमाना ही नहीं रहा। किसी को दो रुपए क्या दे दिए कि लोग आपके ताल्लुकात उसकी जोरू से जोड़ लेंगे।

बड़बोला आदमी हूँ और आप शायद यकीन ना करें कि गंगासागर में कितनी खूबियाँ है। फिर भी बता देता हूँ अपणी सफलता का राज। मेरा भी हाजमा ठीक हो जाए और आपका…। खैर, मैं हमेशा ‘नया धंधा’ करता हूँ। अपणे दिमाग में पुराना धंधा सेट ही नहीं होता। पिछले दिनों माँ की मौत हुई थी, हरिद्वार का बहाना बनाकर यूरोप जा टपका। कुछ वैज्ञानिकों से सैटिंग करके आया, कभी नए धंधे में काम आएँगे। यह तो हुई साहब मेरी तारिफ।

घर अपना रामगढ़ में है। वही रामगढ़ जो राजस्थान में ‘सेठाणा’ के नाम से जाना जाता है।’

इतना सुनने के बाद मुझे लगा कि यह मंजीतवा यूँ ही बकर-बकर कर रहा है। इतनी आसानी से कोई इनसान (गंगासागर) अपनी सच्चाई थोड़े ही कबूल करता है। किसी की कहानी की चार लाइन याद करके विद्वता झाड़ रहा है।

‘लगता है इसी खाकसार ने अफसाना लिख मारा।’ मैंने सवाल की बजाय जवाब ही सुना दिया।

‘यकीन करो, सच कह रहा हूँ।’

…और मैंने यकीन कर लिया।

‘तो कहाँ था मैं?’

‘मंजीत साहब, आप किसी गंगासागर के रामगढ़ में पहुँच गए थे और उसी के मुँह से मुझे पूरा अफसाना सुनना है, तुम्हारा कहीं भी जिक्र नहीं आना चाहिए।’ मैं चट चुका था।

तो सुनो –

‘रामगढ़ में एक बार मांस का व्यापार किया था। हिरण तक का मांस खिलाया इन विदेशी सैलानियों को। फिर भी ये कहते हैं कि हिंदुस्तानी बैकवर्ड हैं। इस धंधे को लेकर इतना हंगामा हुआ कि सारे बनियों ने मिलकर मुझे ‘जात बहार’ कर दिया। राम के राम अपने मरे हुए दादा की हवेली की कसम खाकर कहता हूँ कि एक दिन सारी दुनिया को फारवर्ड बनकर दिखाऊँगा।

रामगढ़ से लेकर जयपुर तक छान मारा लेकिन कोई धंधा ही नहीं मिला, गुड़-शक्कर और वही धोती-कुर्ता बेचा जा रहा है। लेकिन आदमी दिमागी हूँ और कोई गेला (रास्ता) निकाल ही लूँगा।

मेरे शहर के हर बनिए की बाजार में कम से कम एक दुकान जरूर थी। लेकिन मैंने नए धंधे की तलाश में सारी बेच दीं। यहाँ की हवेलियों की भव्यता को देखकर आप समझ सकते हैं कि हम लोग कितने धनवान थे।’ इतना कहकर मंजीत ने अपने पुराने अंदाज में सिगरेट निकालकर सुलगाया।

READ  प्रणय-चिह्नं | जयशंकर प्रसाद

‘यार मंजीत, तेरा यह गंगासागर अफसाने को बहुत खींचता है, जरा फेसबुक स्टाइल में सुना दो ना।’ आज मेरे पास भी समय का अभाव था।

‘विदेशों में राजस्थानी हस्तशिल्प का बड़ा क्रेज है, हर बनिया इस क्षेत्र में हाथ आजमा रहा है। पहले-पहल तो उसे भी यह ख्याल ठीक लगा। लेकिन पिछले दिनों जब यूरोप जाना हुआ तो यह ख्याल भी जाता रहा। यूरोपियन यहाँ से नमूने ले जाते हैं और फिर लाखों की तादात में वैसे ही पीस मशीनों से तैयार कर लेते हैं। गंगासागर को यह धंधा भी रास नहीं आया।

अचानक रामगढ़ पर ऐसा हंगामा बरपा कि सारी बनिया बिरादरी में हा-हाकार मच गया। ‘एफडीआई’ आ रहा था। तब सबको गंगासागर याद आया।

जो रास्ते में मिलते ही मुँह मोड़ लेते थे, आज मेरे पास आकर बकरे की मानिंद मिमिया रहे थे, ‘सेठजी, चलना ही पड़ेगा, आप ही माये-बाप हैं।’

आनन-फानन में बनियों की मीटिंग बुलाई गई। राम के राम सबका बुरा हाल था। एक हाथ की तोंद निकलने के बावजूद भी सब कुपोषण के शिकार नजर आ रहे थे।’

मंजीतवा ने एक मिनट का ब्रेक लिया और फेसबुक चैक किया। मुझे तो पूरी कहानी सुननी थी, इंतजार करता रहा कि कब मंजीतसिंह लब खोले और…।

शाम को सेठ द्वारकाप्रसाद के घर में मीटिंग हुई।

संचालक ने कहा, ‘भाइयो, सेठ गंगाप्रसाद को वापस बिरादरी में शामिल कर हम अपने पाप का प्रायश्चित कर रहे हैं। अब हमारी लाज इनके चरणों में है।’

गला बैठा हुआ था, गंगासागर ने कम बोलना ही उचित समझा –

‘बिरादरों, डरने की कोई बात नहीं हैं। मैं कल दिल्ली जाकर सरकार के सामने अपनी माँग रखूँगा। मंत्री जी से सलाह-मश्विरा करके कोई उपाय निकालेंगे।’

उनके पास मेरी बात मानने के अलावा कोई चारा ही नहीं था। अपनी मेहनत-मिलावट की खरी कमाई से चंदा करके मेरे दिल्ली जाने की योजना बनाई।’ इतनी कहानी कहने पर मंजीतवा का फोन आ जाता है। उसे बिजली जैसा झटका लगा। दो-तीन बार ‘यस सर’ करने के बाद वह पंख लगाकर दौड़ा। मुझे केवल इतना ही सुनाई दिया –

‘सेठ को दिल्ली पहुँचा दिया हूँ। आगे का अफसाना बुन लेना…।’

– सर्दी का मौसम है और बनिया सर्दी व चोर के अलावा भला डरा है किसी से आज तक। मस्त फाइव स्टार होटल में ठहरने और शुद्ध मांसाहार भोजन (माफ कीजिए, मैं रामगढ़ से बाहर शुद्ध मांसाहारी हो जाता हूँ) की व्यवस्था थी। लेकिन राम के राम बनिया तो बनिए को भी लूट सकता है। किस साले को मंत्री-तंत्री से मिलना था, अपने को तो नए धंधे की तलाश थी। सुबह उठते ही गर्म मुर्गा खाया और अँग्रेजी देवी की पूजा की। मांसवाला व्यापार करने के बाद से अँग्रेजी शब्दकोश की पूजा करता हूँ। इसलिए तो यूरोप में भी धड़धड़ाकर अँग्रेजी बोल लेता हूँ। खूब बिकता था हिरण का मांस और मन माँगा पैसा। अगर शिकारी मना नहीं करते तो अब तक लंदन में ताजमहल बनवा देता। उन्हीं की मति मारी गई।

READ  मुक्ता | पांडेय बेचन शर्मा

बोले, ‘सब जानवर मर जाएँगे तो हम खाएँगे क्या?’

वे सब उसी तरह कंगाल हैं। अपना क्या, कोई धंधा निकाल ही लेंगे।

होटल से निकला तो गेट पर एक पुलिस वाला मिल गया। एकदम तमतमाया हुआ। आपने सिपाही को इस रंग में कभी नहीं देखा होगा, मैंने तो नहीं देखा।

मैंने पूछा, ‘अरे भई, सुबह-सुबह ऐसी मनहूस सूरत क्यों बना रखी हो? लगता है प्रसाद-वरसाद नहीं मिला।’

‘ऐसी की तैसी प्रसाद की। यहाँ जाण पर आफत आई हुई है। तेरे को प्रसाद सूझता है।’ पुलिस वाले की आवाज में भयंकर पीड़ा थी।

‘कुछ हमारे लायक सेवा हो तो बताना।’ जब दर्द ही पूछ लिया तब आश्वासन भी देना पड़ा।

‘जिस सरकार की नौकरी करते हैं वही दुश्मन बण गई है। अब ‘एफडीआई’ आ रहा है। ये रेड्डी-ठेल्ले वाले सब रफूचक्कर हो जाएँगे। हमारा काम कैसे चलेगा? कुछ वसूली हो जाती तो बच्चे पल रहे थे।’ सिपाही दर्द सुनाकर हल्का हो गया।

मैं गाड़ी में बैठकर सोचने लगा कि बेचारे सिपाही का दर्द भी रामगढ़ के सेठों से किसी भी मायने में कम नहीं है। रेड्डी-ठेल्ले वाले भूखे मरें तो मरें, मगर पुलिस का ख्याल रखना तो सरकार का फर्ज है।

अचानक सद्बुद्धि आई, ‘पुलिस वाला भी भाड़ में जाए, अपणे को तो नया धंधा तलाशना है।’

दिल्ली में बहुत खाक छानी साहब। गली-गली भटका पर धंधा मिला ही नहीं, लेकिन जो हार मान ले उसका नाम ‘गंगासागर’ हो ही नहीं सकता। आसपास के औधोगिक क्षेत्रों में भी गया। वहाँ भी वही तेल-साबुन बेचा जा रहा था। जब तेल साबुन ही बेचना था तो अपना रामगढ़ कौन-सा बुरा था।

रामगढ़ से बार-बार फोन आ रहा था, ‘मंत्री जी से बात हुई?’

मैंने कहा, ‘हम लोग कोई उपाय निकाल रहे हैं। मंत्री जी बोल रहे थे कि आपके रामगढ़ में मॉल नहीं खुलेगा।’

‘कुछ भी हो मामला सुलट जाना चाहिए। आप वहीं रुक जाएँ, हम नकदी भेज देंगे।’

नए धंधे की तलाश में एक दिन संसद की तरफ आ गया। शायद यहाँ कोई धाँसू आइडिया आ जाए। जब जंतर-मंतर पहुँचा तो माथा ठनक गया। वहाँ तो वैसे ही विचारों का अकाल पड़ा हुआ है। रैली-धरने के बिना संसद के अंदर नया आइडिया जाता ही नहीं है। ऐसे में आदमी थोड़ा निराश हो ही जाता है। धीमे कदमों से कांस्टीट्युशन क्लब की तरफ आ गया। वहाँ एक कार्यक्रम का बैनर लगा हुआ था, विषय था – लोकतंत्र का संकट।

‘अरे बाप रे! रामगढ़ के बनियों से लेकर लोकतंत्र तक, सब संकट में हैं। फिर भी देख लिया जाए कि आखिर लोकतंत्र का संकट क्या है?’

कार्यक्रम निर्धारित समय से घंटे भर की देरी से शुरू हुआ। हॉल में चौदह लोग उपस्थित थे। चार नेताजी के चमचे, चार आयोजक, एक स्वयं नेताजी और पाँच हम फोकट में खाना खाने वाले। नींद आने की वजह से पूरा भाषण तो नहीं सुन पाया। हाँ, नेताजी ने अंत में कहा था, ‘लोकतंत्र का संकट यही है कि लोग गंभीर नहीं हैं। कभी-कभार तो खाली हॉल में ही भाषण देना पड़ता है।’

READ  जो सफल हैं | रमेश बक्षी

सभा होने के बाद बाहर निकलते ही सेठ धोती का किनारा पकड़कर चिल्लाया, ‘बेटा गंगासागर, यही नया धंधा है।’

सरकारी योजना तो थी नहीं। तुरंत प्लान बना और पास। दिल्ली में एक बड़ा-सा हॉल बनवाया जिसमें दो सौ सीटें थी। बिल्कुल आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त। यूरोप में कई वैज्ञानिक जानकार थे ही। उनसे एक सौ अस्सी रोबॉट मँगवाए। हॉल में बीस सीटें तो खाली भी रहनी चाहिए, लोग कल को भाक कर सकते हैं। अस्सी रोबॉट औरतों के चेहरे के और सौ मर्दों के चेहरे के। उमर, रंग, कद सबका उचित समन्वय किया था।

अब धंधा शुरू हुआ। किसी नेता को भाषण के लिए बुलाया जाता। नया-नया धंधा है, रेट पाँच लाख प्रति भाषण करनी पड़ी। मीडिया को भी मैनेज कर दिया। एक तरफ महिला रोबॉटों को और एक तरफ पुरुष रोबॉटों को बैठा दिया जाता। सबका रिमोट कंट्रोल मेरे हाथ में। ज्यों ही नेताजी हॉल में प्रवेश करते, मैं बटन दबाता और सब खड़े हो जाते। भीड़ देखकर नेताजी गद्गद हो जाते। भाषण शुरू करते तो मैं उस सामने वाली लाइन की आगे वाली औरत को हल्की-सी हँसा देता। नेताजी का सारा खून गालों पर आ जाता। अगर मैं वापस बटन दबाकर उस औरत की मुस्कान बंद नहीं करता तो शायद खून बाहर भी आ सकता था। हर पाँच मिनट पर जेब में हाथ देकर हरे वाले बटन से तालियों की गड़गड़ाहट कराने में मुझे बड़ा मजा आता। सभा समाप्त होने पर जब नेताजी जाने लगते तो फिर सब खड़े हो जाते। वही सामने वाली सीट की औरत खड़ी होकर हाथ मिलाती। नेताजी जीवन में इतने हाथ मिला चुके हैं कि अब उन्हें पता ही नहीं चलता की यंत्र का हाथ है या मनुष्य का।

गेट पर चार पहलवान बैठा दिए हैं। कोई भी बिना इजाजत के अंदर नहीं आ सकता। मीडिया में भरे हुए हॉल में नेताजी की संबोधित करती हुई तस्वीर आती। मेरे पाँच लाख पक्के। तुरंत बात फैल गई। माँग बढ़ने लगी तो हर राज्य में सेंटर खुलवाना पड़ा। दिल्ली में हाल यह है कि मंत्रियों के अलावा किसी की बारी ही नहीं आती। एडवांस बुकिंग रहती है। चुनाव या बजट की सीजन में तो रेट भी बढ़ाने पड़ते हैं।

पैसे की कोई कमी नहीं है। अँग्रेजी देवी की कृपा हैं। मगर आप तो जानते ही हैं कि मैं ठहरा सनकी आदमी। अब यह धंधा भी पुराना लगने लगा। लेकिन नया धंधा भी तलाश रखा है। एक पार्टी बनाकर इन रोबॉटों को चुनाव लड़वाऊँगा। पैसों की कमी नहीं है और बनिया आदमी हूँ, सरकार बना लूँगा। रोबॉट संसद में रहेंगे और रिमोट मेरी जेब में।

Leave a comment

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *