टीकम हाँफता हुआ घर के नीचे के खेत की मुँड़ेर पर पहुँचा और जोर से हाँक दी, ‘पिता! दादा! ताऊ! बाहर निकलो। नदी गायब हो गई है।’

हाँक इतने जोर की थी कि जिस किसी के कान में पड़ी वह बाहर दौड़ा आया था।

टीकम अब खेत की पगडंडी से ऊपर चढ़ कर आँगन में पहुँच गया था। उसका माथा और चेहरा पसीने से भीगा हुआ था। चेहरे पर उग आई नर्म दाढ़ी के बीच से पसीने की बूँदें गले की तरफ सरक रही थीं। आँखों में भय और आश्चर्य पसरा हुआ था जिससे आँखों का रंग गहरा लाल दिखाई दे रहा था।

उसका पिता और दादा सबसे पहले बाहर निकले और पास पहुँच कर आश्चर्य से पूछने लगे, ‘टीकू बेटा क्या हुआ? तू ऐसे क्यों चिल्ला रहा है? सुबह-सुबह क्या गायब हो गया?’

उसकी साँस फूल रही थी। होंठ सूख रहे थे। जबान जैसे तालू में चिपक गई हो। कोशिश करने के बाद भी वह कुछ बोल नहीं पा रहा बस होंठ हिल रहे थे। तभी उसकी अम्मा हाथ में पानी का लोटा लिए उसके पास पहुँच गई। स्नेह से उसके बाल सहलाते हुए लोटा उसकी तरफ बढ़ा दिया। टीकम ने झपट कर लोटा छीना और पूरा पानी ऐसे गटक गया मानों बरसों का प्यासा हो। कुछ जान में जान आई थी। अब तक कुछ और घरों के लोग भी आँगन में इकट्ठे हो गए थे और पूरी बात जानना चाहते थे।

बरसात के शुरुआती दिन थे। सुबह के तकरीबन सात बजे का समय होगा। इस वक्त तक पूर्व के पहाड़ों के पीछे से सूरज की किरणों की उजास गाँव पर सुनहरी चादर बिछा देती थी। पर आज उन पर काले बादलों का डेरा था। पहाड़ आसमान का हिस्सा लग रहे थे। उत्तरी छोर के पर्वतों के ऊपर बादलों की कुछ डरावनी आकृतियाँ थी। हवा के साथ पूर्व के बादल कभी छितराते तो भोर की लालिमा ऐसे दिखती मानो भयंकर आग में बादल जल रहे हों। इसी बीच कई धमाके हुए और आँगन में खड़े सभी लोग चौंक गए। समझ नहीं आया कि यह बिजली चमकी है या कुछ और है। कई घरों की खिड़कियों के शीशे टूट गए थे। गोशाला से पशुओं और भेड़ बकरियों के रँभाने-मिमियाने की आवाजें आने लगी थीं।

टीकम कुछ सहज हो कर सभी को बता रहा था। ‘मैं रोज की तरह नदी किनारे घराट में पहुँचा। गेहूँ-फफरा की बोरी एक किनारे उतार कर रख दी और चक्की चलाने को कूहल फेरने चला गया। लेकिन उसमें पानी नहीं था। मैंने सोचा कूहल कहीं से टूट गई होगी। मैं नदी की तरफ हो लिया। वहाँ पहुँचा तो हतप्रभ रह गया। कुछ समझ नहीं आया कि जिस नदी का पानी कभी सूखा ही नहीं वह रात-रात में कैसे सूख गई। कुछ देर मैं ऐसे ही खड़ा रहा। कई बार आँखें मली कि धोखा तो नहीं हो रहा है। लेकिन नहीं पिता, नहीं दादा, वह धोखा नहीं था। नदी सचमुच गायब हो गई है। उसका पानी सूख गया है।’ टीकम की बातें सुन कर सभी सकते में आ गए थे। उसकी माँ उसके पास आ कर उसे समझाने लगी थी, ‘देख टीकू! तू न रात को बहुत देर तक जागता रहा है। कितनी बार बोला कि टेलीविजन मत इतनी देर देखा कर। तेरी नींद पूरी नहीं हुई है न। फिर मैंने तेरे को तड़के-तड़के अधनींदे जगा दिया था। जरूर कुछ धोखा हुआ होगा।’

इसी बीच देवता का पुजारी भी आ पहुँचा था। उसे टीकम की बातों पर कुछ विश्वास होने लगा। उसने सभी को समझाया कि यहाँ आँगन में बहसबाजी करने से क्या लाभ? सभी चल कर अपनी आँखों से देख लेते हैं कि क्या बात है। पुजारी की बात मान कर सभी नदी की ओर चल पड़े। थोड़ी देर में सभी नदी के किनारे पहुँच गए। टीकम की बात सच निकली। नदी खाली थी। मानो किसी ने पूरे का पूरा पानी रात को चुरा दिया हो। किसी को कुछ समझ नहीं आया कि क्या करें। इसी बीच नीचे की ओर से भी लोग ऊपर को आते दिखे। वे भी इसी उधेड़ बुन में थे कि नदी का पानी आखिर कहाँ गया?

लोग नदी के किनारे-किनारे से पहाड़ की ओर चढ़ने लगे। वहाँ से नदी नीचे बहती थी। नदी छोटी थी लेकिन आज तक कभी उसका पानी नहीं सूखा था। कितनी गर्मी क्यों न पड़े, उसका पानी बढ़ता रहता। वह जिन ऊँचे पर्वतों के पास से निकलती थी वे हमेशा बर्फ के ग्लेशियरों से ढँके रहते थे। उन पहाड़ों पर कई ऐसे हिमखंड थे जो सदियों पुराने थे। इस छोटी-सी नदी से कई गाँवों की रोजी-रोटी चलती थी। इसी के किनारे किसानों के क्यार थे, जिसमें वे धान, गेहूँ बीजते और सब्जियाँ उगाते। अभी भी पहाड़ों के इन गाँवों में कोई पानी की योजना नहीं थी, इसलिए लोगों ने जरूरत के मुताबिक गाँवों को छोटी-छोटी कूहलों से पानी ले लिया था। लेकिन आज तो जैसे उन पर पहाड़ ही टूट गया हो।

अभी तकरीबन एक किलोमीटर ही सब लोग ऊपर पहुँचे थे कि तभी इलाके का प्रधान पगडंडी से नीचे उतरते दिखाई दिया। उसके साथ कुछ अनजाने लोग थे जो पहाड़ी नहीं लगते थे। लोगों ने उसे देखा तो कुछ आसरा बँधा। वही तो उनके इलाके का माई-बाप है। इतने लोगों को साथ देख कर वह पल भर के लिए चौंक गया। फिर पुजारी से ही पूछ लिया, ‘पुजारी जी! सुबह-सुबह कहाँ धावा बोल रहे हो। खैरियत तो है न।’

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पुजारी के साथ लोगों ने जब प्रधान को देखा तो थोड़ी जान में जान आई। पुजारी कहने लगा, ‘प्रधान साहब! अच्छा हो गया कि आप यहीं मिल गए। क्या बताएँ आपको? देखो न हमारी नदी का पानी ही सूख गया। पता नहीं कहीं देवता हमसे नाराज तो नहीं हो गया है?’

पुजारी के कहते ही प्रधान की हँसी फूट पड़ी थी। उसके साथ जो अजनबी थे वे भी हँस पड़े। किसी और को उनकी हँसी में कुछ न लगा हो पर टीकम को हँसी अच्छी नहीं लगी। उसमें जरूर कुछ ऐसा था जो उसको भीतर तक चुभ गया। वैसे भी वह इक्कीस बरस का जवान मैट्रिक पढ़ा था और पुलिस में नौकरी के लिए हाथ-पाँव मार रहा था। गरीब परिवार से था इसलिए पढ़ने कॉलेज शहर नहीं जा सका। पर घर रह कर ही पत्राचार से बी.ए. की पढ़ाई कर रहा था। वैसे भी गाँव के लोग उसे प्रधान ही कहा करते क्योंकि वह हर समय लोगों के लिए कुछ न कुछ करता रहता। कभी किसी की अर्जी-चिट्ठी लिख देता। कभी किसी का कोई काम कर देता। लोगों को उनके अधिकारों के बारे में बताता रहता। बोल-चाल में भी उसका कोई मुकाबला नहीं था। लोग तो उसे इलाके के भावी प्रधान के रूप में देखने लगे थे, परंतु उसका इस तरफ कोई ध्यान नहीं था। उसे पता नहीं क्यों पुलिस की नौकरी का शौक था।

प्रधान ने जेब से सिगरेट निकाली और लाइटर से सुलगा कर पुजारी से बतियाने लगा, ‘बई पुजारी जी, सुबह-सुबह इतने परेशान होने की जरूरत नहीं है। तुम्हारी नदी कहीं नहीं गई। अब वह बिजली बन गई है। इलाके में बिजली बन कर चमकेगी। तुम्हारे लिए नए-नए काम लाएगी। गाँव के लोग मेरे को हमेशा बोलते थे न कि प्रधान ने कुछ नहीं किया। आज हर घर से एक आदमी को कंपनी काम दे रही है। मैं तो इसलिए ही तुम्हारे पास आ रहा था।’

‘मतलब…।’

टीकम ने बीच में ही प्रधान को टोक लिया। प्रधान हल्का-सा सकपकाया। उसे टीकम कभी फूटी आँख नहीं सुहाया था। सुहाता भी क्यों, पढ़ा लिखा समझदार था। प्रधान के लिए खतरे की घंटी कभी भी बजा सकता था। ‘मतलब यह बचुआ कि तू तो पढ़ा लिखा है रे। अखबार नहीं पढ़ता क्या? सपने तो ठाणेदार बणने के देखता है। बई पुजारी जी! पहाड़ के साथ जो दूसरा जिला लगता है न उसकी सीमा पर पिछले दिनों हमारे मुख्यमंत्री ने बिजली की नई योजना का उद्घाटन किया है। तुम्हारी वह नदी एक सुरंग से वहीं चली गई है। वहाँ उसकी जरूरत है। वह वहाँ बिजली तैयार करेगी।’

‘पर हमारा क्या होगा प्रधान जी। इतने गाँवों के खेत-क्यार सूख जाएँगे। घराट बंद हो जाएँगे।’

‘पानी रहेगा पुजारी जी। रहेगा। बरसात का पानी इसी में रहेगा। बई वह पहाड़ पर तो नहीं चढ़ेगा न। फिर अब घराट-घरूट कौन चलाता है। बिजली से चक्कियाँ चलेंगी। क्यों रे टीकम, क्यों नहीं लगाता एक दो चक्कियाँ। सरकार लोन दे रही है। काहे को पुलिस की नौकरी के चक्कर में पड़ा है।’ इतना कह कर प्रधान ने वहाँ से खिसकना ही ठीक समझा। टीकम भले ही सारी बातें समझ गया हो पर लोगों की समझ में कुछ नहीं आया था। टीकम ने ही सभी को समझाया था कि इस पहाड़ी नदी को एक सुरंग से दूसरी तरफ ले जाया गया है और अब वह यहाँ लौटेगी नहीं। उधर उसके पानी से बिजली पैदा होगी।

नदी गायब होने के साथ उनके गाँव पर एक और संकट खड़ा हो गया था। उनका गाँव ऐसे पर्वतों की तलहटी में था जहाँ ग्लेशियरों के गिरने का खतरा हमेशा बना रहता था। अब रोज डायनामाइटों के धमाकों से टनों के हिसाब से उस नदी में चट्टानें गिरनी शुरू हो गई थीं और नदी के किनारे जो घराट थे वे तो पूरी तरह नष्ट हो गए थे। जिस नदी में नीला साफ पानी बहता रहता उसमें मिट्टी पत्थर भरने लगे थे। सबसे ज्यादा खतरा टीकम के गाँव को ही था। लोग जानते थे कि धमाकों के शोर से पहाड़ पर सदियों से सोया ग्लेशियर जाग गया तो उनके गाँव को लील लेगा। इसलिए उन्हें कुछ करना होगा। इस योजना का जितना काम हो गया वह ठीक है पर इससे आगे होने से रोकना होगा।

टीकम ने गाँव के लोगों की एक समिति का गठन किया था और एक आवेदन पत्र बना कर उस पर सभी के हस्ताक्षर करवाए थे। उसका मानना था कि प्रधान के पास जाने से कोई फायदा नहीं होगा। उन्हें विधायक और मुख्यमंत्री से मिलना होगा। इसलिए सबसे पहले दस-बीस लोग टीकम की अगुवाई में पहले विधायक को मिले। लेकिन विधायक ने बजाय उनकी तकलीफ सुनने के उलटा विकास का लंबा-चौड़ा भाषण दे दिया था। जब वहाँ बात न बनी तो वे लोग जैसे-तैसे मुख्यमंत्री के पास गए और अपना दुखड़ा रोया। लेकिन वहाँ से भी खाली हाथ लौटना पड़ा था।

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निराश-हताश वे लौट कर गाँव चले आए थे। बिजली योजना का काम जोरों पर था। अब तो गाँव के नीचे से एक सड़क भी निकल रही थी जिसकी खुदाई और ब्लास्टों से उनके गाँव के नीचे की पहाड़ी धँसने लगी थी। कई बीघे जमीन तो धँस गई थी। अब इस काम को रोकना उनकी प्राथमिकता थी।

सभी जानते थे कि प्रधान और विधायक से ले कर ऊपर तक कोई उनकी मदद नहीं करेगा। क्योंकि जिस कंपनी को वह काम मिला था वह बहुत बड़ी कंपनी थी जिसने अरबों रुपए इस योजना के लिए लगा दिए थे। उन्हें इससे कोई मतलब न था कि उनके काम से नदी गायब हो रही है, या जंगल नष्ट हो रहे हैं या गाँव की जमीन धँस रही है, या गरीबों की रोजी-रोटी छीनी जा रही है। उनके लिए तो पहाड़ सोना थे और प्रदेश की सरकार विकास के नाम पर उस कंपनी पर बहुत ज्यादा मेहरबान भी थी। मगर लोगों के पास अब कोई रास्ता न बचा था।

पुजारी ने ही लोगों को सुझाया कि क्यों न देवता का आशीर्वाद लिया जाए। वैसे भी उनके गाँवों के देवता की दूर-दूर तक मान्यता थी। यहाँ तक कि चुनाव होने से पहले मुख्यमंत्री तक वहाँ माथा टेकना नहीं भूलते थे। वह प्राचीन मंदिर था जिसकी भव्यता देखते ही बनती थी। दो मंजिले इस मंदिर की एक मंजिल जमीन के नीचे थी जिसमें लाखों-करोड़ों का साज-सामान रखा हुआ था। मंदिर के तकरीबन सभी कलश और मूर्तियाँ सोने की थीं। किवाड़ों पर गजब की नक्काशी थी। यानी उस इलाके का वह सर्वाधिक भव्य मंदिर था। देवता भी शक्तिशाली था।

देव पंचायत ने देवता का आह्वान किया तो देवता नाराज हो गया। प्रधान, विधायक और मुख्यमंत्री पर बरस पड़ा। विनाश की बातें होने लगीं। निर्णय हुआ कि विधायक को यहाँ बुलाया जाए। देवता की तरफ से फरमान जारी हुआ लेकिन विधायक नहीं आया। फिर मुख्यमंत्री को फरमान गया। मुख्यमंत्री ने सहजता से उत्तर भी दिया कि वे देवता का अपार आदर करते हैं लेकिन विकास के मामले में देवता को बीच में लाना कोई विपक्षी राजनीति है। लोग निराश हो गए।

अब निर्णय हुआ कि मिल कर इस लड़ाई को लड़ा जाए। कंपनी का काम रोका जाए। इसलिए उस गाँव के साथ कई दूसरे गाँव के लोग भी इकट्ठे हो गए और बड़े समूह में विरोध करते हुए कंपनी के काम को रोक दिया गया। लोग वहीं धरने पर बैठे रहे। दूसरे दिन उन्हें भनक लगी कि शहर से हजारों पुलिस जवान आ रहे हैं। टीकम पुलिस की ज्यादतियों से वाकिफ था। विचार-विमर्श हुआ। तय किया गया कि देवता का सहारा लिया जाए। कुछ लोग वापस लौटे और देवता का पारंपारिक विधि-विधान से श्रृंगार किया गया। उनके पास यह अपने गाँव, नदी और जमीन को बचाने का आखिरी विकल्प था। देवता अपने बजंतर के साथ पहली बार एक अनोखे अभियान के लिए निकला था, विरोध के लिए निकला था। आज न कहीं देव जातरा थी और न कोई देवोत्सव, न किसी के घर कोई शादी-ब्याह था, न किसी की इच्छा ही पूरी हुई थी। दोपहर तक देवता विरोध स्थल पर पहुँच गया। देवता के साथ असंख्य लोग थे। सौ से ज्यादा लोग तो पहले ही कंपनी के काम को रोके बैठे थे। देवता और सरकारी पुलिस तकरीबन-तकरीबन एक साथ पहुँचे थे। लोगों को विश्वास था अब कोई ताकत उनके विरोध को कुचल नहीं सकती। उनके साथ देवता है। उसकी शक्ति है।

स्थिति गंभीर बनती जा रही थी। लेकिन कंपनी अपने काम को किसी भी तरह से रोकने के पक्ष में नहीं थी। यदि सड़क निर्माण का यह काम रुक गया तो अरबों का नुकसान हो सकता था। इसलिए सरकारी आदेश भी ऐसे थे कि किसी तरह से लोगों को वहाँ से भगाया जाए। पुलिस के एक बड़े अधिकारी ने लाउडस्पीकर पर कई बार हिदायतें दीं कि लोग पीछे हटते जाएँ। लेकिन लोगों का जलूस देवता के सान्निध्य में बढ़ता चला गया। सबसे आगे देवता का रथ था। सोने-चाँदी की मोहरों से सजा हुआ। साथ उसके निशान थे। बाजा-बजंतर था। स्थिति जब नहीं सँभली तो पुलिस को लाठी चलाने के आदेश दे दिए गए। वे शिकारी कुत्तों की तरह लोगों पर टूट गए। उस विरोध में मर्द, औरतें, जवान, बूढ़े और बच्चे भी शामिल थे।

लोगों की भीड़ पर पुलिस की लाठियाँ बरस रही थीं। पर लाठियों का असर कोई खास नहीं हो रहा था। पहाड़ी शरीर, मिट्टी-गोबर से पुष्ट उन देहातियों पर जब लाठियाँ असरदार नहीं रहीं तो बंदूकें तन गईं। फिर एकाएक गोलियाँ चल पड़ीं। पहली गोली देवता के एक बुजुर्ग कारदार को लगी थी। वह पहाड़ी से लड़खड़ाता नीचे गिर गया। दूसरी गोली पुजारी को लगी। वह जोर से चीखा। उसके हाथ से फूल-अक्षत और सिंदूर की थाली नीचे गिर गई और बेहोश हो गया। लोग बहुत घबरा गए थे। अब गोलियों का सामना करना कठिन हो रहा था। वे पीछे हटने लगे, भागने लगे। लेकिन उनका भागना बेअसर साबित हुआ। रास्ता सँकरा था जिससे ऊपर भागने में कठिनाई हो रही थी। आर-पार ढाँक थे। दाईं तरफ गहरी खाई। नीचे असंख्य पुलिसवाले हाथों में लाठियाँ और बंदूके ताने ऊपर की ओर बढ़ रहे थे। दो युवाओं को भी गोली लगी थी। उन्होंने वहीं दम तोड़ दिया था। एक लड़की अंतिम साँसे गिन रही थी। कई लोग घायल हो गए थे। रास्तों और झंखाड़ों में गिरे-पड़े थे।

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टीकम जैसे-तैसे देवता को बचाने में लगा था। रथ का मुँह पीछे मोड़ कर कारदारों को वहाँ से भागने के लिए चिल्ला रहा था। देवता श्रृंगार में था। लोगों के कंधों पर था। उनके न रथ छोड़ते बन रहा था और न भागते हुए। देवता भी लाठियाँ-गोलियाँ नहीं रोक पाया। अपने हक की लड़ाई में लोग अपार विश्वास और आस्था के साथ उसे अपने साथ लाए थे। देवता के साथ यह अपनी तरह का अनूठा विरोध था पर गोलियों के आगे वह भी असहाय हो गया था। देवता के साथ लाने से लोगों में एक अतिरिक्त उत्साह पैदा हो गया था। उनके साथ देवता की शक्ति थी। कोई उनका कुछ नहीं कर सकता था। उनकी यह सोच गलत साबित हुई थी। देवता चुपचाप देखता रहा। गूर में कोई देवछाया नहीं आई। सहायक गूर भी नहीं खेले। पंचो की कोई पंचायत नहीं हुई। ढोल-नगाड़े पहाड़ियों से नीचे लुढ़क गए। देवता न गोलियाँ रोक पाया, न अपने कारकुनों व लोगों का जीवन बचा सका। कुछ युवाओं ने हिम्मत दिखा कर मरे हुए लोगों की लाशें उठा ली थीं।

लोग निराश हताश लौट रहे थे। घरों में औरतें और बच्चे इंतजार कर रहे थे। मुश्किल से लोग गाँव तक पहुँचे थे। उनके साथ एक कारदार, पुजारी और दो युवाओं की लाशें देख सभी का कलेजा मुँह को आ गया था। इस हादसे ने पूरे गाँव और इलाके को दहला दिया था। देवता के गूरों और कारदारों को कुछ नहीं सूझ रहा था। युवा आक्रोश में थे। उन्होंने देवता के रथ को कारदारों से छीन लिया और मंदिर के प्रांगण में रख दिया। साथ बचे हुए ढोल, नगाड़े, करनाले और दूसरे वाद्य भी। एक युवा घर से मिट्टी का तेल ले आया। देवता के रथ को जलाने में अब कुछ ही देर थी। लेकिन टीकम ने उन्हें समझा-बुझा कर रोक दिया था। जैसे-तैसे लोग शांत हुए तो देवता को कोठी में बंद कर दिया गया। यह अविश्वास की पराकाष्ठा थी। आज कई भ्रम टूटे थे। आस्थाएँ मरी थीं। देवता मंदिर में चुपचाप पड़ा था। शक्तिविहीन। कहाँ गई उसकी शक्ति। क्यों उसने सहायता नहीं की। क्यों कोई चमत्कार नहीं हुआ। क्यों उसने अपना विराट रूप नहीं दिखाया। फिर किस लिए उसका बोझ गाँव-परगने के लोग सदियों से ढोते रहे…? ऐसे अनेकों प्रश्न थे जो लोगों के दिल में बार-बार उठ रहे थे।

बात आग की तरह पूरे इलाके में फैली गई थी। पुलिस की ज्यादतियों से लोग खिन्न थे, आश्चर्य चकित थे। देवता के होते हुए जो कुछ हुआ उसे देख कर हतप्रभ थे। जब देवता कुछ नहीं कर सका तो उनका कौन अपना होगा? हताशाएँ चारों तरफ थीं। अंधकार चारों तरफ था। परियोजना की बलि चढ़ जाएगा उनका गाँव। न पशुओं को पानी, न खेतों को पानी, न जंगल की हरियाली, न नदी का शोर, कुछ भी नहीं। शेष रह जाएगा तो डायनामाइटों का शोर…। गिरते-दरकते पहाड़। पिघलते ग्लेशियर…।

पुलिसवाले अब निश्चिंत हो गए थे। उनकी गोलियों के आगे देवता की भी नहीं चली। वे मस्ती में खा पी रहे थे। उन्होंने सरकार के साथ कंपनी के अफसरों को भी खुश कर दिया था। बकरे कट रहे थे। कंपनी के लोगों ने सारे इंतजाम उनके लिए किए थे। पुलिस और कंपनी के लोग पहले देवता के नाम से अवश्य डरते थे। उसके सुने हुए चमत्कारों से डरते थे। लेकिन अब महज ये किंवदंतियाँ ही थीं। जब पुलिस ने गोलियाँ दागीं तो वही परम शक्तिशाली देवता लोगों की पीठ पर भाग खड़ा हुआ था।

लेकिन अगले ही दिन यह समाचार सुर्खियों में था कि उस रात इस हादसे के शिकार हुए ग्रामीणों ने रात को शराब और मांस के उत्सव में मदहोश हुए पुलिस व कंपनी के लोगों पर धावा बोल दिया था और सुबह तक उनका वहाँ कोई नामोनिशान नहीं था। मौका-ए-वारदात से महज कुछ बंदूकें, दस-बीस लाठियाँ, दर्जनों शराब की टूटी हुई बोतलें, बकरों के कटे सिर और उधड़ी खालें और फटी हुई वर्दियों के टुकड़े बरामद हुए थे। शायद जिस देवता को पुलिस के आतंक ने भगोड़ा बना दिया था वही ग्रामीणों में सामूहिक रूप से प्रकट हो गया था और ग्रामजनों ने अपने आक्रोश से शासन की दमनकारी शक्तियों को तहस-नहस कर दिया था।

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