माँ की छड़ी
खड़ी है उसके पास
तस्वीर के नीचे
माँ के होने, नहीं होने को
रेखांकित करती
कभी-कभी छड़ी की मूठ पर
रखती हूँ हाथ
देर तक
ढूँढ़ती हूँ उसका स्पर्श
उभरती है याद…
उसकी हँसी
कोई कही बात,
ऊपर के होंठ पर
पसीने की नमी
ठुड्डी की नीचे दो धृष्ट बाल
अब याद नहीं कि वह
याद आती है पूरी

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पूरी माँ आखिर क्या होती है
यह भी नहीं पता
बचपन में थी वह
एक चक्रायमान पुंज ऊर्जा का
यहाँ से वहाँ बरजता-बरसता
अटल आदेश सा

और मरने से पहले
बहुत समय तक
बस ढूह एक रेत का
भुरभुराता –

मैंने किसी को मरते नहीं देखा
इतनी धीमे और लगातार
खंडहरों तक को नहीं

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छड़ी खड़ी है
वैसी-की-वैसी
लकड़ी और पॉलिश में
चमचम करती
उसे बदलना नहीं है
अपनी ही तस्वीर में
न आज
न कभी