हे राम

हे राम

कितना कुछ जानते थेगांधी जी के बंदर वे कहते रहे, ‘सुनोगेतो देखने दौड़ोगे’ देखोगे तो बोलोगे ईं ईं ईं…और फिर पड़ेंगे पत्थररोओगे तब छत पर चढ़करकीं कीं कीं…’‘न सुनो, न देखो, न बोलो भई…’ लेकिन किसी ने सुना नहींबंदरों कोदेखा नहीं उन्हेंवे बस बोलते रह गए ईं ईं ईंखाते रहे पत्थररोते रहे हीं हीं हीं… … Read more

सौ टंच माल

सौ टंच माल

बाजारों की भीड़ मेंचलते-चलते किसी का बेहूदा हाथधप्पा देता है उसकी जाँघों पेकोई काट लेता है चिकोटीवक्ष पे कोई टकरा कर गिरा देता हैसौदे का थैलाफिर सॉरी-सॉरी कह उठाता हैफिल्मी अंदाज में कोई भींच लेता है स्तन उसकादायाँ या बायाँ मुट्ठी में, मेट्रो यालिफ्ट से बाहर निकलते कोई गिरता है बार बारउसके कंधे परहिचकोले खाती … Read more

सचमुच

सचमुच

जब से वह प्रेम से जुड़ी हैतब से काँच पे खड़ी है। न चले बनता है न बिन चले ही। यदि आपने किया है प्रेम किसी सेतो कृपया उसको इतना बतला देंकि वह क्या करे – काँच को बचा ले किरच किरच होने सेया बचा ले पैर अपने जब से वह प्रेम से जुड़ी हैसचमुच, … Read more

विदाई

विदाई

1 . बहुत दिन बाद लौटी थीमेरे दिल की धड़कन,मेरी आँख की रोशनी –मेरी बेटी-अचानक अकेलीविदेश से,जैसे लौटे हैं मेरी कविता मेंभाषा के ये सबसे पुराने सबसे भरोसेमंदउपमान। पूरे सात दिन वह बरसीमेरे आँगन में पूनो के चाँद सी,कोयल की कूह-कूह सी,ओस की उजली कणी सी। उड़ती रही, अलसाई तितली सीमेरी सरसों में यहाँ वहाँ।आज चलने … Read more

वे आती थीं

वे आती थीं

बेटियों की कठिनाई कुछ यों भी थीकि वे देख नहीं सकती थींबूढ़ी अकेली माँ के पाससौदे सुलफे का न होनाबिजली का बिल चुक न पानाकपड़ों का फटते जाना वे आती थीं चाहे जैसेकभी कभार छुप छुपा केकभी दो चार दिन मेंकभी छटे छमाहे वे बनवा देतीं माँ केटूटे दाँतकभी-कभी त्योहारों से पहलेझड़वा देतीं घर के … Read more

पानी

पानी1

उसने बेटे से कहा,‘बेटा, घड़े में पानी नहीं,’बेटा जल्दी में था, उसने सुना नहीं। उसने बहू से कहा,‘बहू, एक गिलास पानी।’बहू ने सुना, पर रुकी नहीं। उसने पोते से कहा,‘मुन्ने, देना तो पानी।’पोता देखता रहा टी.वी., हिला नहीं। उसने नौकर से कहा‘रामू… पानी।’नौकर बाहर लपका, उसको सब्जी लानी थी। यों घटने लगा घर के नलों … Read more

न आज, न कभी

न आज, न कभी

माँ की छड़ीखड़ी है उसके पासतस्वीर के नीचेमाँ के होने, नहीं होने कोरेखांकित करतीकभी-कभी छड़ी की मूठ पररखती हूँ हाथदेर तकढूँढ़ती हूँ उसका स्पर्शउभरती है याद…उसकी हँसीकोई कही बात,ऊपर के होंठ परपसीने की नमीठुड्डी की नीचे दो धृष्ट बालअब याद नहीं कि वहयाद आती है पूरी पूरी माँ आखिर क्या होती हैयह भी नहीं पताबचपन … Read more

जिस दिन

जिस दिन

जिस दिन स्त्री रोईउस दिन उसने बोलाझूठ पहला जिस दिन उसने झूठ बोलाउस दिन सीखा उसनेहँसकर ‘हाँजी, हाँजी’ कहना जिस दिन ‘हाँजी’ बोली स्त्रीउस दिन आया याद उसे गीत बाबुल का –सावन में तीज का यह कहना अब मुश्किल है किसावन में झूलती स्त्रीरो रही थीया गा

काँटो भरी बेल में

काँटो भरी बेल में

उसने अपनी भाषा को किया नरम,दूब सा – उसने अपनी हथेली को कियाफूल सा – उसने छुपा लिया अपने ही भीतरअपना सारा असला –वह आँखों में लाई आँज करएक प्रतिसंसार गहरा – वह स्त्री थी प्रेम में,खिल रही थी काँटो भरी बेल में।