छीज गई है हर परंपरा
बदला जीवन का मुहावरा।

कल तक सब था, झूठ हो गया
तलवारों की मूठ हो गया
चीलों का अधिवास बना है
कोई शापित ठूँठ हो गया
पेड़ कभी था यह हरा भरा।

चहक रहा था एक कबूतर
आँगन खिड़की छत मुंडेर पर
अब कोने में बैठा गुमसुम
सहमा-सहमा, कातर-कातर
रहता है दिन भर डरा-डरा।

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खुला नया आयाम छंद का
लिये मुखौटा जरासंध का
राग, रंग, रस सब कुम्हलाए
रीत गया हर कलश गंध का
रही न अब उर्वर वसुंधरा।

नदी शाश्वती सूख चली है
नाद ब्रह्म की उम्र ढली है
महामत्स्य के सुरसा मुख में
धँसी हुई सोना मछली है
डगमगा रही है ऋतंभरा।

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