जब भी लिखूँगी
प्रेम पर कोई कविता
समय की बंजर छाती पर
कुछ उदास पत्ते गिरेंगे

जब भी याद करती हुई
देखूँगी अनंत आकाश की ओर
कायनात की पलकें बंद होंगी
कुछ सफेद मोती झरेंगे

जब भी उतारूँगी तुम्हारे नाम
का दीया अपने शहर की नदी में
तुम्हारे मन के समंदर में
मेरी जोड़ी भर आँखें
तुम्हारे मौन किनारों से टकराएँगी

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मेहँदी के सुर्ख लाल होने पर
उभरेगा प्रेम हथेली पर
देखना
अस्त हो जाएगा सूरज
समय से पहले

लिखती रहूँगी प्रेम ताकि
बचे रहें हरे पत्ते
बचे रहें सफेद कबूतर के जोड़े
धड़कती रहे धरती

तुम भी तो सुनना …सुनोगे ना ?