मैं घर के कैदखाने में उन लोगों की वजह से ही था। उन दोनों ने छह बजे आने के लिए कहा था, पर अब आठ से ऊपर का वक्त हो रहा था। रंगनाथ नरेश को लेकर आने वाला था और साथ ही एक अद्धा लाने का भी आश्वासन था। नरेश की नियुक्ति की खुशी में हम तिलंगों के बीच एक जश्न होने की बात अब एक मरी हुई संभावना के सिरे तक जा पहुंची थी। उनके इंतजार में, बारी-बारी से दोनों कमरों में बेमतलब चक्कर काटते हुए कोई ऐसा काम तलाश कर रहा था, जो अभी थोड़ी देर मुझे घर में और अटकाये रह सके।
सहसा दरवाजे पर दस्तक हुई। मैं खटखटाने के ढंग से ही समझ गया कि नरेश बेताबी की हालत में पहुंचा हुआ है। मैंने लपककर किवाड़ खोले। सहन की रोशनी सीढियों तक जा रही थी – आगे नरेश तना हुआ खड़ा था और उसके दाहिने हाथ रंगनाथ अपना चमड़े का गला हुआ बैग लिये सिर एक तरफ डाले खड़ा था। लगता था कि वह शहीद हो चुका है। नरेश अपने चीकट सूट पर गहरे रंग की टाई कसकर बांधे हुए था और उसके धंसे हुए कल्ले ऊपर की तरफ एक निरीह मुस्कान में खिंचे जा रहे थे। उन दोनों को हल्की रोशनी में खड़े देखकर मैंने अनुमान की स्थिति को टालने की गरज से रास्ता छोड़ दिया। रंगनाथ पांव घसीटते और नरेश धम-धम पैर पटकते हुए सहन पार करके कमरे में दाखिल हुआ। उसने अपने हल्के नीले कांच वाले चश्मे से इधर-उधर कोई चीज टोह लेने की कोशिश की और घूमकर फिर सहन की तरफ बढ़ लिया। मैं समझ गया कि वह अपने पान की पीक गुलाब के पौधे पर थूकने गया है। अजीब विसंगति है। उसने गुलाब के गमले को पीकदान की शक्ल दे दी है और कत्थे-चुने में रंगी पौधे की पंत्तियां काले खून से रंगी होने का अहसास देती हैं। जी हां, मैंने उसकी बेचैनी से अनुमान लगाया कि उसका सेलेक्शन हो गया है।
इस बीच रंगनाथ ने अपना बैग बहुत सावधानी से सोफे की पीठ से टिकाकर रख दिया और इस तरह लंबी-लंबी सांसें खींचने लगा गोया आहें भर रहा हो। उसके उदास चेहरे पर गहरी थकान के चिह्र स्पष्ट अंकित थे। मैंने आगे का प्रोग्राम निश्चित रूप से जानने के लिए रंगनाथ का बैग खोलकर तसल्ली कर ली कि ब्लैक नाइट हमारी आहों को वाहों में बदलने के लिए मौजूद है। पहली बार मुझे नरेश के वजूद से उन्सियत हुई और वह बखूबी सह जाने योग्य लगा। इंटरव्यू की सफलता वही कुछ करा देती है…राजपाट पा लेने की खुशी शायद गुजरे वक्तों में यही होती होगी। मैंने सरसरी तौर पर तखमीना लगाया। नरेश ने इस हाफ में सिर्फ आधे पैसे ही चुकाये हैं। इंटरव्यू के सिलसिले में पहले दर्जे का टिकट, टैक्सी का माइलेज, एक अच्छी दावत का सरंजाम जुटा गया होगा।
रंगनाथ का मुरझाया चेहरा देखकर मैं बोला, ”आज अपना खलीफा पूरा अद्धा लेकर आया है, तू इसपर मातमपुर्सी-सी क्यों कर रहा है भई?” उत्तर रंगानाथ को नहीं देना पड़ा। नरेश ही रिकार्ड की तरह बजने लगा, ”नहीं, नहीं, भाई साहब, इसे तो दादा ही लेकर आया है…बात यह हुई…” रंगनाथ ने उसकी बात पूरी नहीं होने दी, कुछ खिजला कर बोला, ”बात हुई तेरी और हरामी दादा की ऐसी की तैसी की…आया बात का घुसला साला।”
रंगनाथ ने मेरी तरफ गर्दन उठाकर आजिजी से कहा, ”तू मुझे एक प्याला चाय नहीं दे सकता? दफ्तर से लौटा तो यह जमदूत आ गया, मैं एक प्याली चाय भी नहीं पी सका। यह सोचकर कि कहीं तू इंतजार करता न रह जाये, मैं इसे फौरन लेकर चल दिया।” यकायक रंगनाथ चुप हो गया और थोड़ी देर बाद नरेश के चेहरे पर निगाह डालकर संकोच से बोला, ”इस हरामी ने आज बुरा मारा। प्रोग्राम के मुताबिक इसके साथ मैं परसादी लाल एण्ड संस के यहां पहुचकर बोला, ‘क्या लेना है भई?’ यह तपाक से बोला, ‘ब्लैक नाइट का हाफ ठीक रहेगा।’ जब अद्धा रैपर में लिपटकर इसके हाथ में आ गया, तो यह मेरा मुंह देखने लगा। तुम्हें मालूम है इस चोट्टे ने उस वक्त क्या कहा, ‘दादा, वहां रुपये मिलने में कुछ बिल वगैरह का घपला हो गया। इस वक्त पैसे आप दे दीजिये, मैं बाद को सारी बात बताऊंगा…चलिए ये पैसे मेरे सिर उधार रहे।” रंगनाथ ने नरेश की नकल उतारकर एक भारी-भरकम गाली दी और ”धत्तेरे की…”कहकर हाथ में पकड़ी हुई बीड़ी को लाइटर से जलाने लगा।
बीड़ी का धुआं रंगनाथ ने गले के भीतर घूंट लिया और माथे पर अंगूठा घिसते हुए बोला, ”अब तू देख वहां कितनी मिट्टी खराब होती। वह तो अच्छा हुआ, जेब में चालीसेक रुपये पड़े थे…एक कलिग से दफ्तर छोड़ते वक्त ले लिये थे।” रंगनाथ का आवेश में तना हुआ चेहरा नरेश की दिशा में घूम गया और वह आंख दबाकर बोला, ”उल्लू की औलाद, वक्त पहचानना तू कब सीखेगा? तुझे मालूम है वे पैसे रोजमर्रा की घरेलू महामारी का इलाज थे – राशन-वाशन सब घुस गया…। अबे भाई, मुझे यह बात पहले नहीं बोल सकते थे? इस तरह गावदीपन फैलाकर काम कराने से फायदा? कोई आज खास बात थी, तुझपर पहले भी पचासों बार रुपये फेंके हैं कि नहीं?”
रंगनाथ का तमतमाया हुआ चेहरा नरेश कुछ इस भाव से देख रहा था, जैसे रंगनाथ किसी अनुपस्थित आदमी की कारस्तानी हम लोगों को सुना रहा हो। नरेश के चेहरे पर प्रतिक्रियास्वरूप एक निर्विकार मुस्कान थी, जो वाकई लानत भेजने वाली थी। आवेश और दुःख में डूबे हुए लोगों की हालत पर जब कोई इतना निर्लिप्त होकर मुस्कराता है, तो जबरदस्त इच्छा होती है कि ऐसे आदमी को बेतहाशा जूते लगाये जायें। लेकिन मैंने इस असंतोष के लंबे प्रकरण को दरगुजर करके कहा, ”छोड़ो रंगनाथ, क्या खटराग ले बैठे। मैं तुम्हारे लिए बढिया चाय तैयार करके लाता हूं। जल्दी अपने धंधे में लगें। ऐसी शाम गारत करने से क्या हासिल ।” मेरे प्रसंग-परिवर्तन से रंगनाथ सहज हो गया। उसके चेहरे से क्रोध और कष्ट के कई निशान एकदम साफ हो गये। मैं जानता था, अगर रंगनाथ दिलशिकनी को तूल देने वाला होता, तो नरेश का पत्ता कभी का कट चुका होता। रंगनाथ का आक्रोश केवल उन परिस्थितियों को लेकर था, जिन्हें नरेश हमेशा बिगाड़कर ही दम लेता था।
मैंने कुर्सी से उठते हुए रंगनाथ को हंसते हुए देखा। वह अपना दायां हाथ नरेश की ओर उठाकर कह रहा था, ”देख रहा है इस खरदूषण को, साला कयामत तक यूं ही मुस्कराता रहेगा। दुनिया में आग भी लग जाये तो इसे क्या। यह ठहरा जीनियस की दुम। कुछ कहो यार, बौद्धिक आदमी कभी-कभी अविश्वसनीय सीमा तक कमीना होता है।” नरेश ने अपना दृष्टिकोण साफ करने के लिए हथेली पर उंगली की नोक गड़ाकर कुछ कहना आरंभ किया, तो मैं आगे बढ़ गया।
हम तीनों ने गिलास ऊपर उठाकर टकराये, तो मैंने कहा, ”बुद्धिजीवी के मरने की खुशी में जामे-सेहत।” वातावरण बहुत हल्का और उल्लासपूर्ण हो गया। पहला पेग खत्म करते-करते हम लोग बहुत जीवंत हो उठे। बातचीत का दौर नरेश की नियुक्ति को लेकर ही चल निकला। अहमदाबाद की आबोहवा और सामाजिक स्थिति के विषय में सब इस तरह बातें करने लगे, जैसे हमारी पूरी जिंदगी वहीं कटी हो। रंगनाथ हार्दिकता से नरेश को समझाने लगा कि उसके अहमदाबाद पहुंचकर अपनी दिनाचर्या का आंरभ किस प्रकार करना चाहिए और बौद्धिक हल्के में किन व्यक्तियों से संपर्क बढ़ाना चाहिए।
यकायक मुझे कुछ याद आया। मैंने नरेश से कहा, ”हां मियां, यह तो बतलाओ तुम्हारे अप्वाइंटमेंट की क्या शर्तें हैं? नरेश अपना गिलास मुंह की तरफ ले जाते हुए चौंक पड़ा, ”शर्तें ? हां, शर्तें कुछ खास नहीं हैं। साढ़े पांच सौ रूपया माहवार। रहने को जगह मुफ्त। तीन साल की बांड। बस, सोचने की बात यह बांड की फार्मेलिटी ही है।” नरेश की बात सुनकर रंगनाथ का चेहरा खिल उठा, ”मजा आ गया यार! और तुझे चाहिए भी क्या? अरे भाई, हमें तो कोई टिंबकटू भेज दे, बस रूपया दे दे। और फिर तेरा क्या! तू तो वैसे भी फकतदम है। हमने तो बीस साल में कभी साढ़े पांच सौ नहीं देखे।”
नरेश ने बेदिली से होंठ बिदोरकर कहा, ”साढ़े पांच सौ ऐसी क्या खास बात है? इतने कम रूपये के लिए मुझे अनजान जगह में जाकर धक्के खाने में कोई खुशी नहीं है। इसके अलावा घर से, अपने माहौल और कार्यक्षेत्र से एकदम कटकर अलग पड़ जाना बहुत बेहूदा है।” रंगनाथ ने जल्दी से नरेश की बात काट दी, ”होश में है तू? बात क्या करता है। साढ़े पांच सौ कुछ होते ही नहीं हैं? यहां कोई तुझसे कम पढ़े-लिखे नहीं हैं। इतने सालों से झक मारकर अभी तक पांच सौ तक भी नहीं पहुंचे और जनाब हैं कि स्टार्ट पर ही इतने रूपये मिलेंगे और फिर मकान भी फ्री।” रंगनाथ एक सांस में जो बोलता चला गया, उससे मुझे लगा कि उसे डर है कि कहीं नरेश अपनी सनक में यह नौकरी भी न गंवा दे। उसकी बातों से यह भी लग रहा था कि वह नरेश को इतने सारे रूपये पाने के काबिल ही नहीं समझता था। अगर नरेश उसको अपने बोझ से अधमरा न कर देता तो शायद वह उसको नौकरी पर भेजने के लिए इतना उतावलापन प्रदर्शित ही न करता, बल्कि ईर्ष्या तक करने लगता।
आखिर पेग के नाम रंगनाथ ने बोतल की अंतिम बूंदें तीनों गिलासों में निचोड़ दीं और अपनी मस्ती में डूबी आंख मेरी ओर स्थिर करके बोला, ”लो पार्टनर, नौकरी तो इस मरदूद को अब मिल ही गयी। अब इसे जाना तो है ही, लेकिन इसके चले जाने के बाद कमी देर तक अखरती रहेगी।” अपनी बात को भावपूर्ण बिंदु पर खत्म करने के लिए उसने पौराणिक आख्यान छोड़ा, ”हमने अपने कर्मवीर और दार्शनिक हमेशा दूसरों को खुशी-खुशी दिये हैं। क्या कृष्ण को भी हमने गुजरात को नहीं दे डाला था?” उसके इस बेतुके तालमेल पर मुझे अनायास ही हंसी आ गयी और मैंने उसके कंधे पर थपकी देकर कहा, ”वाह, क्या क्षेपक मारा है!”
शराब की मस्ती ने रंगनाथ जैसे चिंतापरायण गृहस्थ को भी कुछ और ही बना दिया था। एक हाथ उसने नरेश के गले में डाला और दूसरे से उसके सिर की मालिश करने लगा। नरेश ने खाली गिलास मेज पर रख दिया और मेर पैकेट से सिगरेट खींचकर उसे होंठों में अटकाये बैठा रहा। कोई आधा मिनट बाद घोषणा-सी करते हुए बोला, ”लेकिन दोस्तो, मैं एक बात साफ किए देता हूं। तुम लोगों को छोड़कर मैं कहीं जाने वाला नहीं हूं। मेरी योजना यहीं रहकर कुछ करने की है।”
”ऐसी की तैसी तेरी योजना की। साले, बकता क्या है? जायेगा कैसे नहीं। इस बार इतने जूते पड़ेगे कि छठी का दूध याद आ जायेगा।” मुझे डर लगने लगा कि कहीं वाकई रंगनाथ बिफरी हुई हालत में जूता-वूता न चला बैठे। अभी कुछ देर पहले प्रदर्शित की हुई उसकी भावुकता पूरी तरह गुम हो गयी और वह ताबड़तोड़ फोश गालियां बकने लगा। नरेश के लिए उसने वास्तव में बहुत कष्ट सहे थे। उस निठल्ले को बरसों संरक्षण दिया था। अब और ज्यादा तकलीफ बरदाश्त करने की सामर्थ्य उसमें बाकी नहीं रह गयी थी। मुझे रंगनाथ का आक्रोश वाजिब लगा। मैंने नरेश को समझाने की नीयत से कहा, ”नरेश यार, क्यों बोर करता है! रंगनाथ को दुखी करने से क्या हासिल होगा? हम जानते हैं, ऐसी बढिया नौकरी तू हमारे मना करने पर भी छोड़ने वाला नहीं है। ऐसी नौकरी इन दिनों अच्छे-अच्छों को भी नहीं मिलती।”
”मैं यहीं एक स्कूल खोलने की सोचता हूं। मैं जर्नलिज्म पर काम करूंगा। एक वीकली पेपर निकालूंगा और तुम दोनों का इंटेलेक्ट उसमें इस्तेमाल करूंगा। आखिर हम लोगों का देश के लिए भी तो कोई फर्ज बनता है।”
मैंने उसे फिर समझाने की कोशिश की, ”हां, हां, वह तो ठीक है, उसके लिए भी तो कोई पुख्ता जमीन चाहिए। तू कुछ वक्त नौकरी कर। कमाधमाकर कुछ रूपया इकट्ठा कर। मेरे भाई, आर्थिक तंगी से सारी महान योजनाएं मिट्टी में मिल जाती हैं। मैं यह नहीं कहता कि तू वहां सारी जिंदगी काट आ। तीन साल एक पूरी जिंदगी में होते ही क्या हैं?”
नरेश मेरी सलाह पर व्यंग्यात्मक हो उठा, ”दादा, आप भी कमाल करते हैं। मैं वहां इस सड़ी नौकरी में क्या बचा लूंगा? अपने घर और परदेश में बड़ा फर्क है। मैं वहां एक दमड़ी भी नहीं बचा पाऊंगा।”
इस बार रंगनाथ क्रोध में बौखला उठा, ”हां तू तो नवाब का बच्चा है। पांच सौ रूपये में तेरा काम क्यों चलने लगा!” रंगनाथ मेरी ओर मुंह घुमाकर बमकने लगा, ”जाने दो साले को जहन्नुम में। मुझे-तुझे समझाने की जरूरत भी क्या है। यहां भूखा मरेगा, तो अपने-आप भागता नजर आयेगा। सच पूछो, तो मैंने और तुमने इसे ‘एसाइलम’ देकर निकम्मा और ‘पैरासाइट’ बना दिया है।” रंगनाथ उत्तेजना में उठकर खड़ा हो गया। उसकी आवाज में तकलीफ और कंपन का अनोखा मिश्रण था। रंगनाथ अपना बैग उठाकर चलते हुए बोला, ”हरामी, मैं तो अब जा रहा हूं। अब आगे से मेरी तरफ झांका, तो तेरा सिर फोड़ दूंगा।”
मेरे कमरे मे अजीब हड़बोंग मच गयी। बिफरे हुए रंगनाथ को मैंने जबरदस्ती हाथ पकड़ कर रोका और नरेश से बोला, ”तू जरा-सी दारू पीकर यह क्या करने लगा? इंटरव्यू देकर जब तू नियुक्तिपत्र ले ही आया है, तो फिर नौकरी पर न जाने का मतलब क्या है?”
इस दफा नरेश सहसा बुझ गया। वह एक मिनट तक दीवार पर नजर जमाये रहा और बगैर हम लोगों की ओर देखे फुसफुसाने लगा, ”दादा लोगों, मेरा अप्वाइंमेंट नहीं हुआ।”
”अंय, अप्वाइंटमेंट नहीं हुआ?” मैं अनजाने में अपना सिर खुजलाने लगा।
”हां दादा, उन लोगों को मुझसे कहीं ज्यादा क्वालीफाइड उम्मीदवार मिल गया। समझिये मेरा वहां जाना ही बेकार हुआ।”
मैंने परेशान होकर पूछा, ”तो भाई, तूने आते ही यह सब साफ-साफ क्यों नहीं कह दिया?”
रंगनाथ के हताश और लटके हुए चेहरे को देखकर मुझे लगा कि मायूसी ने आश्चर्य-विमूढ़ होने का भाव भी उससे छीन लिया है। नरेश ने जो कुछ कहा था, वह इतना अप्रत्याशित था कि सहसा विश्वास नहीं होता था। लेकिन ठीक इसी क्षण मुझे रंगनाथ की कभी कही हुई बात यकायक याद आ गयी। ”हमेशा आशांए जगाने से शुरूआत होती है, मगर अन्त वही हताशाओं की लीपापोती से होता है।’
नरेश से मैंने शिकायती लहजे में कहा, ”रंगनाथ को तूने बिना वजह एक्साइट किया। साफ कह देता, तो वह तेरे अप्वाइंटमेंट को लेकर इतना टची क्यों होता?”
नरेश क्षमा-सी मांगते हुए कहने लगा, ”दादा, अब मैं आपसे क्या कहूं? मैं स्वयं अपने फालतूपन से तंग आ गया हूं। बार-बार इंटरव्यू देने दौड़ता हूं, पर कहीं काम नहीं बनता। आप दोनों के पास लौटकर मैं झूठमूठ डींगें हांकता रहता हूं कि मैंने बोर्ड के मेंबरों को हिप्नोटाइज कर लिया या कि वह खरी-खोटी सुनाई कि उनका दिमाग ठिकाने आ गया। मगर वास्वविकता यह है कि वहां तुम्हारे इस जीनियस को कोई दो कौड़ी को भी नहीं पूछता। मैं सिर्फ आप दोनों को अटकाये रखने के लिए दूर की हांकता हूं।”
नरेश का चेहरा यकायक राख जैसे मैला लगने लगा और उसके व्यक्तित्व में हरदम बनी रहने वाली लापरवाही पल-भर में तिरोहित हो गयी। वह इतना दयनीय और करुण हो उठा कि मुझे घबराहट-सी होने लगी। इस सत्ताइस साल तक दुनिया देखने वाले आदमी को पहले कभी मैंने इतना करुण-कातर नहीं देखा था। वह असफलताओं के स्वर में बोलता चला गया, ”सच बात यह है कि मैं अपनी असफलताओं के लम्बे सिलसिले से आप दोनों को इतनी गहराई तक उखाड़ चुका हूं कि अब आप लोगों के चेहरों पर अपनी असफलताओं की प्रतिक्रिया सहन नहीं कर सकता। शायद यही वजह रही हो कि मैंने इस बार फैसला कर लिया था कि चाहे कितना भी बड़ा झूठ क्यों न बोलना पड़े, मैं अपने असफल होने की बात नहीं कहूंगा। इस बहाने आप दोनों की आंखों में बहुत दिनों से स्थगित होती हुई खुशी की चमक तो देख ही लूंगा।”
नरेश एक लम्बी आह भरकर चुप हो गया, तो रंगनाथ ने फुँफकार छोड़कर कहा, ”तैंने यह ठीक नहीं किया नरेश। तेरी इस छलना से मैं कहीं बहुत गहरे में टूट गया हूं। चरम निराशा से आदमी उतना नहीं छिलता, जितना छद्म से टूट जाता है।”
रंगनाथ ने आगे कुछ नहीं कहा। वह बहुत आहिस्ता से उठा और अपना बैग उठाकर चल दिया। मैं उसके इस स्वरूप से इतना आतंकित हो गया कि आगे बढ़कर उसे रोक भी नहीं सका। मुझे लगा कि नरेश की क्षण-भर की झूठी आशावादिता ने रंगनाथ के सारे भरम झकझोरकर एक ही झटके में तोड़ डाले।
जब तक मैं सीढियां लांघकर नीचे उतरा, रंगनाथ अपनी खड़खडिया साइकिल लेकर जा चुका था और कुछ दूर से डगमगाती कोई आकृति मुझे अपनी तरफ आती मालूम पड़ रही थी। पर वह मेरा भ्रम निकला। मैं भूल गया था कि नरेश ऊपर मेरे कमरे में ही बैठा है। कमरे में लौटकर मैंने देखा कि नरेश के चेहरे पर एक बहुत डरी हुई मरियल मुस्कान दम तोड़ रही थी और दहकते अंगारों की लाली धीरे-धीरे ठंडी राख में पर्यवसित होने के क्रम में थी।