कमरे में जगतसिंह कमर के पीछे हाथ बांधे बेचैनी से चक्कर काट रहा था। मुझे देखकर वह एक जगह स्थिर खड़ा रह गया पर उसके माथे की नसें यथावत तनी रहीं।
उसके चेहरे से आंखें हटाकर मैंने ऊपर देखा। छत के नाम पर एक लंबी-चौड़ी टीन की चादर पड़ी थी और सहन में खड़े नीम के पेड़ की सूखी झुरझुरी पत्तियां टीन पर गिरकर बहुत महीन स्वर पैदा कर रही थीं। हवेली में छोटे-बड़े कमरे-कोठरियां बीस से कम नहीं होंगी पर जगतसिंह ने किसी कमरे में रहना पसंद नहीं किया था। उसने कोठी के बाहर चहारदीवारी के कोने पर अपने लिए अनगढ़-सा कोठड़ा खड़ा करवा लिया था। उसे कुंवर खानदान के हर छोटे-बड़े से गहरी विरक्ति थी। वह सबकी सूरतों से बेजार था। इस बेदिली की सूरत को प्रकटतः पहचानने का कोई आधार पकड़ में नहीं आता था। वह दोनों वक्त का खाना वहीं मंगा लेता था और उसी कोठड़े की एकरस दिनचर्या में उसका पूरा दिन निकल जाता था। मेरे परिचितों में इतना आत्मलिप्त और कोई नहीं था।
दशकों पहले एक जमाने में जब सामंती का दबदबा था तो हवेली संपन्नता का ज्वलंत प्रतीक थी; पर उसके दुखद अवशेष अब इसी रूप में बाकी रह गए थे कि एक लुंज-पुंज फोर्ड का ढांचा अहाते में पड़ा सुख के दिनों की कहानी कहता था और किले सरीखी हवेली की दीवारों से झड़ते हिरभजी पलस्तर पर एक खाज मारे कुत्ते की याद दिलाते थे। राम झूठ न बुलाये, पचास साल से हवेली की एक बार भी पुताई-रंगाई नहीं हुई थी।
कमाई-धमाई का तो लंबे वक्त से कोई हीला-वसीला बाकी ही नहीं रह गया था। जो जमीन हाथ से निकल चुकी थी उसका दस-बीस गुना मुआवजा भी खा-पीकर बराबर हो लिया था। फिलहाल जगतसिंह के बड़े भाई हिम्मतसिंह नगरपालिका के अध्यक्ष थे मगर उससे भी सिवाय यश के और कुछ अर्जित करने की मनोवृत्ति नहीं रखते थे। दूसरी तरफ यह हाल था कि हवेली में आने जाने वालों का तांता लगा रहता था। बस यही रात-दिन की आवाजाही उनकी रईसी का प्रभा-मंडल कायम किए हुए थी।
जगतसिंह से मेरी कालेज के दिनों की दोस्ती थी। जब तक मैं अपने ही शहर में था – दिन का अधिकांश समय वहीं कटता था, मगर नौकरी करने बाहर जाना पड़ा तो मुलाकातें कम होती चली गईं। जब कभी दिन-दो-दिन के लिए घर आता तो बेसाख्ता कदम हवेली की ओर उठ जाते मगर हर बार मैं यही अनुभव करता कि जगतसिंह पिछली बार की मुलाकर की अपेक्षा और भी ज्यादा मनहूस और आत्मस्थ हो चला है।
उसकी नहूसत की वजह तो बहुत साफ थी। वह रात-दिन अच्छी-बुरी सभी तरह की शराबों का इस्तेमाल करते-करते ठरकी हो गया था। पहले जब तक कोई जुगत थी वह अच्छी शराब पीता था। इसके अलावा दिन में परहेजगार बना रहता था। पर जैसे-जैसे पैसे का अभाव बढ़ता चला गया वह निकृष्ट किस्म की देसी दारू पर उतर आया। ठेकेदार को वह पर्ची भेज देता था और बदले में जहर की बोतल आ जाती थी।
मैं उसे बुरी हालत में देखकर कुढ़ जाता था और उस पर बरसने लगता था तो वह पीने से तौबा करते हुए कसम उठाने लगता था; मगर मेरे देखते-देखते ही उसके वायदे दम तोड़ बैठते थे।
जगतसिंह अपनी पत्नी को बरसों पहले छोड़ चुका था। वह बेचारी अपने भाई के साथ कहीं राजस्थान में रहती थी। उसके तीनों बच्चों को हिम्मतसिंह ने यहीं हवेली में रख लिया था और उन्होंने अपने कर्तव्य से कभी मुंह नहीं मोड़ा था। बड़ा बेटा इंजीनियर पास करके सार्वजनिक निर्माण विभाग में लग गया था। छोटा पूना में – फौज में कमीशंड आफिसर था। लड़की स्थानीय महाविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. कर रही थी।
जगतसिंह ने अपने तीनों बच्चों को भी कभी पास नहीं फटकने दिया था। एक बार की घटना मुझे याद है। बड़े बेटे दिलीप ने बाल कटवाने के बाद गुसलखाने में पड़ा जगतसिंह का साबुन इस्तेमाल कर लिया था तो इस कमबख्त ने आसमान सिर पर उठा लिया था। सच पूछो तो इस नामुराद और अच्छे दिनों की यादों की कब्र पर बैठे आदमी से मिलकर मुझे कभी खुशी नहीं मिलती थी, पर मैं अपने मन के हाथों विवश था और जगतसिंह से मिलना स्थगित नहीं कर पाता था।
मुझे कोठड़े में पहुंचे हुए कई मिनट बीत चुके थे मगर जगतसिंह एक-दो क्षण ठहरने के बाद फिर चक्कर काटने लगा था। मैं खीझकर बोला ‘अब धरती को पूरी तरह धकेलकर ही रहोगे?’ मैं पूछ सकता हूं – जनाब की यह टहलाई किस सिलसिले में चल रही है – क्या इसका कहीं मौकूफ होना मुमकिन है?’
मेरी व्यंग्योक्ति का उस पर कोई असर नहीं पड़ा। मेरी ओर ठंडेपन से देखकर सख्त लहजे में बोला, ‘तुम्हें कुछ पता भी है हवेली में क्या बेवकूफी होने जा रही है!’
मैं जलकर बोला, ‘जब तक आप बकेंगे नहीं मुझे कैसे मालूम होगा? मैं क्या नजूमी हूं?’ फिर अपने क्षोभ पर काबू पाने की कोशिश करते हुए शांत स्वर में कहने लगा, ‘मेरी प्रार्थना है – कृपया आप जमीन खूंदना मुल्तवी करके कहीं टिक जायें और पहेली बुझौवल छोड़कर जरा आदमी की तरह बातें करें।’
वह गहरे तनाव-भरे स्वर में बोला, ‘साहबजादे इंजीनियर क्या हो गए हैं किसी को कुछ खातिर में ही नहीं लाते। मैंने लंबे हरबंस की बेटी को उनके साथ पिछले दिनों नुमाइश में देखा था। क्या लड़की है गोया सारंगी को गिलाफ पहना दिया गया हो। उससे शादी रचाने के मंसूबे रखते हैं।’
उसकी बात सुनकर मैं एकाएक बिफर उठा। उसे लताड़ते हुए बोला, ‘जनाब जगतसिंह साहब! कुंवर खानदान की शमए-रोशन! अपनी जुबान को लगाम लगाना सीखिये इस बुढ़ौती में। जिसे आप लंबा हरबंस कहकर हिकारत से याद कर रहे हैं वह एक राष्ट्रीयकृत बैंक का मैनेजर है। इसके अलावा यह भी कि उसकी बेटी से आपका बेटा विवाह करने का इच्छुक है। उस लड़की को सारंगी वगैरह कहकर आप घोर असभ्यता जाहिर कर रहे हैं। आपको इस तथ्य को भी नहीं भूलना चाहिए कि उस लड़की से कुंवर जगतसिंह की नहीं उनके इंजीनियर सुपुत्र दिलीपसिंह की शादी होने की बात है। बालिग और खुद मुख्तियार बेटे के किसी भी फैसले में आपको अपनी टांग अड़ाने का कोई अधिकार नहीं है।’
मेरी सख्त-सुस्त बातों से जगतसिंह थोड़ा ढीला पड़ गया और शिकायती लहजे में बोला, ‘टांग अड़ाने की बात नहीं है। वह लड़की हरबंस सिंह की इकलौती संतान है और तबियत से बहुत खर्चीली और आजाद खयाल है। पढ़ी-लिखी और फैशनपरस्त लड़की की हमारी हवेली में निभ नहीं सकती।’
मैंने उसे मुंह चिढ़ाते हुए कहा, ‘वाह रे कुंवर खानदान के फिक्रमंद बंदे – क्या कहना है आपका? उस लड़की की आपसे निभे यह गलतफहमी आपको कैसे हो रही है। आपका बेटा अपनी शादी आपके दकियानूस खानदान की शोभा बढ़ाने के लिए नहीं करने जा रहा है।’
वह बोला, ‘फिर भी।’ जगतसिंह की अपेक्षाओं ने उसका पिंड नहीं छोड़ा था।
इस पर मैं और भी कुढ़ गया। उसने अपनी अच्छी-भली शील स्वभाव की पत्नी को बच्चे पैदा करने के बावजूद मंझधार में छोड़ दिया था। कमाने के नाम पर वह कलंक ही साबित हुआ था। उसके बच्चों की पढ़ाई और बाकी सरंजाम बड़े भाई हिम्मतसिंह के सिर रहा और अब बेटा कमाऊ पूत निकल गया तो जगतसिंह से बाप बन जाने का गौरव संभाला नहीं जा रहा था।
मैंने तल्खी से कहा, ‘तुम्हारी बेटी रंजना अब बीस बरस की हो चुकी है। अच्छा हो कि बेटों की शादियों का खयाल छोड़कर उसके लिए कोई योग्य वर तलाश करो।’
जगतसिंह मुंह से एक विचित्र-सी ध्वनि निकालकर बोला, ‘भाड़ में जाओ! तुम भी उन सब लोगों जैसे ही हो। मुझे क्या पड़ी है जो किसी को कायदे की बात बताता फिरूं।’
रंजना की शादी के बारे में उसने जैसे मेरी बातें सुनी ही नहीं। मुझे वह घोर लंपट और स्वार्थी लगा। मैंने उसे कचोटा, ‘बेटी की शादी के बारे में आखिर तुम सोचो भी क्यों? जिन्होंने उसे पाला-पोसा और पढ़ाया-लिखाया उन्हीं का सिरदर्द है मगर मैं न चाहते हुए भी एक बात पूछे बिना नहीं रह सकता। जिस बेटे की शादी को लेकर तुम इतने बेचैन हो और बेइन्तिहा दिलचस्पी दिखला रहे हो उसे तुमने पहले भी कभी अपना बेटा माना था? आज यकायक तुम्हें यह कैसे लगने लगा कि वह अपने महत्वपूर्ण निर्णयों में तुम्हें शामिल करने की सोचे?’
मेरी बातें सुनकर जगतसिंह की पेशानी पर बल पड़ गए और वह कंधे झटककर बोला, ‘तुम्हारा अगर यही खयाल है कि उसकी शादी के बारे में कुछ बोलना मेरी ज्यादती है तो फिर जाने दो। मैं किसी के बीच में नहीं पड़ता।’
मगर साथ ही मैंने यह भी लक्ष्य किया कि उसका सारा आक्रोश एक बेचारगी में बदल गया और वह पराजय के भाव से बोला, ‘शायद तुम्हारी बातें सही हैं।’
उसकी इस बात को सुनकर मेरा सारा आक्रोश तिरोहित हो गया। मैंने जगतसिंह को समझाने की नियत से कहा, ‘सिंह, एक बात सोचो – तुमने अपनी जिंदगी तो चौपट कर ली। बस इतनी सी ही बात तो थी कि तुम अपनी मनचाही किसी लड़की से शादी नहीं कर पाये। अब क्या बेटे को भी उसी नरक में धकेलना चाहते हो। जीवन और जगत कहां से कहां जा पहुंचा है। अगर बेलचक सूखा बांस ही बने रहोगे तो टूट जाने के अलावा और कुछ संभव नहीं होगा दोस्त।’
मेरी बात सुनकर वह कुछ सोचने लगा और बेखुदी के आलम में लंबी-चौड़ी मसहरी पर टिक गया।
उस क्षण सोच में गर्क जगतसिंह के पास ठहरना मुझे उचित नहीं लगा। जब आदमी कोई महत्वपूर्ण फैसला लेने के निकट हो तो उसे अकेला छोड़ना ही बेहतर होता है। यही अवसर होता है जब वह स्थिति के प्रत्येक कोण से गुजर रहा होता है।
मैं चुपचाप कोठड़े से बाहर निकल आया। कमरे की नाहमवार दीवार पर टंगी, लगभग एक सदी पुरानी भारी-भरकम क्लाक में ध्वनित होती टिक-टिक अब भी मेरे कानों में अपनी अनुगूंज बनाये हुए थी। मुझे लगा समय की प्रतीक वह घड़ी यंत्र की सीमा रेखाओं को तोड़कर हमारे अपने समय में भी, पहले वक्तों की तरह जीवंत और स्पंदित थी लेकिन जगतसिंह को वक्त ने न जाने कितने पहले बेदखल और खारिज कर दिया था।