खाली दिनों में लोकबाबू की जंगलगाथा | रविंद्र आरोही
खाली दिनों में लोकबाबू की जंगलगाथा | रविंद्र आरोही

खाली दिनों में लोकबाबू की जंगलगाथा | रविंद्र आरोही – Khali Dinon Mein Lokababu Ki Jangalagatha

खाली दिनों में लोकबाबू की जंगलगाथा | रविंद्र आरोही

इधर के दिनों में यह कहानी कई तरह से शुरू हो सकती थी, पर जिस समय इस कहानी की महज एक ही शुरुआत थी तब खाली, सूनी, लंबी पगडंडियों पर बेढब दोपहरें खाली कनस्तरों सी बजती थीं। तब के दिनों में पेड़ों से पत्ते और फूल बहुत झरते थे। फल पककर चू जाते। उन्हीं दिनों ला कबाबू को फूल बहुत अच्छे लगते और उन्हें फूलों को देख दया आती थी। दुनिया में और भी कई चीजें थीं जो लोकबाबू को भाती थीं और उन तमाम भाने वाली चीजों के प्रति उनके मन में दया जैसा भाव था करुणा जैसा भी।

होता यूँ था कि कभी कभार चीजें अच्छी लगनी बंद हो जातीं पर उसके हिस्से की दया और करुणा लोकबाबू के अंदर ज्यों की त्यों बनी रहती।

हमारी दुनिया में जब बहुत कम कथाएँ थीं। उस समय भी लोकबाबू के पास, हमारे लिए, बेतरतीबी से गढ़ी हुई अनेक कथाएँ थीं। और तब लोकबाबू हमारे बीच एक खाली और फुरसताह दिन की तरह थे।

जाड़े की रातों में रजाई में घुसकर हम जवान हो रहे थे। कहने की गरज ये कि बीस पैसे रोज के भाड़े पर नागराज और चाचा चौधरी का कॉमिक्स पढ़ना हमने छोड़ दिया था। हम भूतनाथ महाविद्यालय जाने लगे थे। वहाँ जिन चार चीजों से हमारा सामना पड़ा, उनका महत्व बस इतना कि हमारे गाँव के बहुत बाहर से जो एक नहर गुजरती थी, कहते हैं, नेपाल से आती थी, उस पर एक पुराना पुल था। उस पर से चार चक्के की गाड़ियाँ बड़ी सावधानी से गुजरती थीं। थोड़ी भी दाएँ बाएँ हों तो पुल की दीवार से रगड़ जाएँ। उस पुल से हर आदमी एक दहशत में गुजरता था। लोकबाबू जब पुल से गुजरते, बस की खिड़की से नहर के पानी को प्रणाम करते, इस तरह देखादेखी सब करते। महिलाएँ ज्यादा करतीं। वह पुल ऐसा नहीं था जिस पर बैठ कर किसी लड़की के साथ प्रेम किया जाय या किसी बच्चे से कहा जाय ओ देखो पुल। मतलब कि उस पुल का एक पुल होने के अलावा कोई अलग से मतलब नहीं था। हमारी जिंदगी में आई वे चार चीजें भी बस उसी पुल की तरह, अपने मतलब के साथ थीं।

साइकिल, सिगरेट, जैक्शन और गुलशन नंदा

चूँकि महाविद्यालय गाँव से चार किलोमीटर दूर था सो साइकिल थी। गाँव की तरह साइकिल पुरानी थी। चाचा बातों बातों में कहते कि साइकिल का बस फ्रेम ही पुराना है, बाकी सब नया ही समझो। फिर भी साइकिल चलती थी तो अक्सर आवाज होती थी। गाँव के चलने में अक्सर आवाज नहीं होती। गाँव में कभी कभार चोरियाँ हो जातीं सो कभी कभार आवाज भी होती थी। रात के समय चाचा साइकिल को सिक्कड़ से बाँधकर आँगन में रखते थे। गाँव में साइकिल की चोरी अक्सर होती।

गाँव में ट्रैक्टर चलाना सिर्फ तीन को आता। बहुतों को साइकिल चलानी नहीं आती और बहुतों को पता भी नहीं चलता था कि बहुतों को साइकिल चलानी नहीं आती। गाँव में प्रेम प्रसंग ऐसे ही फलते फूलते थे। लड़के नैनीताल भाग जाते, लड़कियाँ पास के रेलवे स्टेशन पर पकड़ी जातीं।

गाँव में गरमी के सीजन में शादियाँ होतीं, लोग जाड़े में बूढ़े होकर मरने लगते। मरने वाले के अनुपात पर जाड़े की डिग्री मापी जाती। जाड़े में हुई शादियाँ, लोगों को दिनोंदिन तक याद रहतीं। क्लर्क बाबू जब मर गए और गाँव के लोग नहर के बाँध पर उन्हें जलाने ले गए वह गरमी का कोई महीना था। हम सब सरकारी शीशम के नीचे क्लर्क बाबू के जल्दी जलने का इंतजार कर रहे थे। गरमी के महीने में हवा चौतरफा चलती थी सो आग की लपटें और तेज हो जाती थीं। दीक्षित जी कहते सोमवारी एकादशी में मरना अच्छा होता है। बहुत देर बाद बहुत दूर बैठे प्राइमरी वाले गणेश मास्टर ने कहा कि क्लर्क बाबू बढ़िया आदमी थे और उससे भी बहुत बाद में कहा कि उन्हें साइकिल चलानी नहीं आती थी। गणेश मास्टर की बातों पर न जाने क्यों हमें सहज विश्वास नहीं हुआ। किसी की चिता पर कोई झूठ कैसे बोल सकता था भला, और वो भी मरने वाले के बारे में। हम याद नहीं कर पा रहे थे कि कलर्क बाबू को साइकिल चलानी नहीं आती थी। सहज विश्वास भी नहीं होता था। कई बार हमारे मस्तिष्क में, क्लर्क बाबू फरहर जिंदगी की रिले, साइकिल पर बैठे हुए घूमता था। गणेश मास्टर पहले बताए होते तो क्लर्क बाबू को पैदल चलते देख हम सहज विश्वास कर लेते। अब मरे हुए के नाम पर कोई सट्टा कैसे खेले। आदमी अक्सर मरे हुए के नाम पर व्यापार चलाता है। हमने गणेश मास्टर को एक संदेह की दृष्टि से देखा। गणेश मास्टर एक सरकार की तरह झेंप गए।

बहुत बाद यह पता चला कि क्लर्क बाबू की साइकिल नहीं चलाने वाली बात, क्लर्क बाबू को किसी भी तरह कथा में जिंदा रखने का षड्यंत्र मात्र थी। होता यूँ था कि वहाँ की हर कथा में क्लर्क बाबू बरबस चले आते और सुनने वालों को बहुत अंत में यह गुप्त बात पता चलती कि क्लर्क बाबू को साइकिल चलानी नहीं आती थी।

क्लर्क बाबू का नाम लोकबाबू नहीं था। गोपी चंद्र था। कुछ लोग उन्हें गोपचन, गोपचन भी कहते थे। लोकबाबू का नाम आलोक नाथ राय था। लोग उन्हें लोकबाबू, लोकबाबू कहते। चूँकि किसी भी कथा में क्लर्क बाबू के बरबस आ जाने से अक्सर सुननेवाले को भ्रम होता था, सो अक्सर रुककर मूल कथा से क्लर्क बाबू वाली कथा को बिलगाना पड़ता था कि ये ये थे और ये ये अर्थात क्लर्क बाबू क्लर्क बाबू थे और लोकबाबू लोकबाबू।

…हाँ तो हम थे कि लोकबाबू का नाम आलोक नाथ राय था, लोग उन्हें लोकबाबू लोकबाबू कहते थे।

जहाँ दुनिया एक माइक्रो चिप में समाई जाती थी। लोग चाँद पर रहने, घर बसाने, होटल, बीयर बार खोलने, सहवास करने, हनीमून मनाने, बच्चे पैदा करने की बात सोच रहे थे, वहीं इस ओवरटेक वाली टुच्ची दुनिया में आलोक बाबू के ‘आ’ स्वर का लोप कब, कहाँ, कैसे हुआ, कौन सोचे भला। इतना सोचने का फालतू समय इस अजीब सी बनती जा रही दुनिया में किसी के पास न था। बात बस इतनी सी थी कि आलोक बाबू लोकबाबू बन गए बस।

लोकबाबू ने अपने जीवन में न जाने कितनी नौकरियाँ छोड़ीं और न जाने कितने मुहावरे गढ़े। मैं यहाँ छूटी हुई नौकरियों और गढ़े गए मुहावरों की बात नहीं करूँगा।

बात, हर बार छूटे रह जाते लोकबाबू की…

गाँव से सोलह किलोमीटर पश्चिम ‘भोरे’ से दो बसें, गाँव के पंद्रह किलोमीटर पूरब मीरगंज टाउन को जाती थीं। उस रूट में सिर्फ दो ही बसें चलती थीं अप डाउन। सुबह नौ से शाम पाँच तक। जो बस नौ बजे भोरे से छूटती वह पौने दस, दस तक गाँव के चौराहे शंकर मोड़ पर पहुँचती। लोकबाबू की वह सवारी थी। लोकबाबू उसके असवारी थे। बस रोज छूटते छूटते रह जाती। लोकबाबू रोज छूटते छूटते रह जाते। महीने में एकआध बार ऐसा भी होता कि लोकबाबू रहते रहते छूट भी जाते।

जब लोकबाबू रहते रहते छूट गए होते, चौराहे पर खड़े किसी सवारी की राह तकते और अंततः हमारी साइकिल के पीछे कैरियर पर असवार हो जाते। तब छूटे रह गए लोकबाबू तीन लोगों को गालियाँ देते मन ही मन पत्नी, भैंस और एक खास मुहावरा बनानेवाले आदिम आदमी को। पत्नी का संबंध गालियों से इस बाबत जुड़ता कि उसने लोकबाबू का अंडरवियर सुखाकर न जाने कहाँ रखा था कि ढूँढ़ते ढूँढ़ते देर हुई। लोकबाबू जब गरम होते, पत्नी धीरे से कहती, चिल्लाइए मत सिरे रखा है, मिल जाएगा। भैंस का हाल ये कि लोकबाबू कपड़ा पहनकर तैयार होते कि कोई बाहर से चिल्लाता – ऐ लोकबाबू! भैंस पगहा तुड़ाकर भर गाँव चौकड़ी भर रही है। और लोकबाबू दौड़ पड़ते।

लोकबाबू जब पत्नी को गाली देते, पत्नी को भैंस बोलते। भैंस को देते तब भैंस को साली। पर दोनों सूरतों में वह मुहावरेवाला आदिम आदमी कॉमन होता, जिसने कहा होगा कि ‘बस, ट्रेन और लड़की के पीछे मत भागो एक जाएगी तो दूसरी आएगी।’ साले को क्या पता कि दूसरी के आने तक नौकरी चली जाएगी – लोकबाबू कहते।

इस तरह एक रोज रोज रोज के छूटे लोकबाबू ने हमारी साइकिल के कैरियर पर असवार होकर हमारा हालचाल पूछा और हमें एक कवि की तीन पंक्तियाँ सुनाईं। कवि का नाम धूमिल था और कविता में वेश्या और हिजड़े टाइप के कुछ शब्द थे।

ऐसा बहुत संभव है कि अब तक की इस कहानी से आपका बहुत संबंध नहीं बैठता हो, ठीक उसी तरह जैसे कि कहानी के नाम पर ऊपर किए गए बकवास से शुरू हो रही मूल कहानी का बहुत संबंध नहीं है। पाठक चाहें तो ऊपरी पैराग्राफ को छोड़ भी सकते हैं। समय बहुत नहीं हो तो कहानी यहाँ से भी शुरू हो सकती है।

समय को लेकर एक फिलॉस्फी मैंने लोकबाबू से मारी थी – आप समझ नहीं रहे लोकबाबू, कंप्यूटर का जमाना है, आधा ‘न’, आधा ‘म’ लिखने में दिक्कत होती है। कैरियर पर बैठे लोकबाबू थोड़े व्यवस्थित हुए, हैंडल चकमका गई। मैंने फिर कहा, इसीलिए सब जगह बिंदी लगाई जाती है।

मेरा अनुमान था कि बातों में ‘कंप्यूटर’ शब्द आते ही लोकबाबू थोड़ा हिल गए होंगे।

चुस्त पैंट पहनने में दिक्कत नहीं होती? आधा ‘म’ आधा ‘न’ लिखने में ज्यादा दिक्कत होती है? गुजराती, मराठी, तमिल, कन्नड़, नेपाली वाले कंप्यूटर नहीं चलाते, सिर्फ हिंदी वाले ही चलाते हैं? यही सब करके तो आप लोग भाषा और व्याकरण का (बीऽऽऽऽप) मार दिए। ई सब कौन (बीऽऽऽऽप) पढ़ाता है आपको?

लगा नहीं कि लोकबाबू मुझे डाँट रहे हैं। यूँ लगा कि हम किसी ईरानी फिल्म की समीक्षा सुन रहे हैं। लोकबाबू जोर जोर से कुछ समझा रहे थे, मैं तेज तेज पैडेल मारे जा रहा था।

यह एक दृश्य था। जबकि दृश्य कुछ इस तरह होना था कि कहानी में मुझे, सिगरेट पीते हुए एक हीरो की तरह एंट्री मारनी थी, पर ऐसा नहीं हुआ। मैंने कविताएँ लिखनी शुरू कर दीं। लाल छींटदार, ढीला ढाला शर्ट पहनकर लहराते हुए साइकिल से कॉलेज जाना था, पर ऐसा नहीं हुआ। यह सब मेरे दोस्तों के साथ हुआ। और मेरे हिस्से, साइकिल के कैरियर पर हर रोज के छूटे लोकबाबू असवार हुए। और इस तरह साइकिल के कैरियर से ही मैंने दुनिया का आधा साहित्य पढ़ लिया।

दुनिया की हर चीज पर लोकबाबू के चश्मे का पावर सही सही फिट बैठता था। कैरियर पर बैठे लोकबाबू कभी कभी ऐसी बातें बतलाते जो युवा पीढ़ी से लेकर घरेलू औरतों तक के काम आ सकती थीं कि ‘अखबार में लिखे राशिफल पर विश्वास मत करो, वह हम अपने मन से बना बनाकर लिखते हैं। कोशिश करते हैं कि सबका अच्छा अच्छा लिखें और लिखते भी हैं। सिर्फ तुला राशि का गड़बड़ लिखते हैं।’ पत्नी तुला राशि की थी। एक बार लिखा था, ‘पति की सेवा करो, घर में धन की बारिश होगी’ – इस तरह।

– लोकबाबू मेरा क्या है?

– कन्या राशि है। राशिफल अखबार में पढ़ लेना। साइकिल दो, मैं लेट हो रहा हूँ।

लोकबाबू जितने सुलझे हुए आदमी थे, उनका काम उतना ही उलझाऊ था – लाँगझारू। लोकबाबू ‘दुनिया जगत’ नामक एक छहपेजिया अखबार में प्रूफरीडर थे। उनके पास तीन सेट कपड़े थे। दो में ड्यूटी करते, तीसरे में पहुनाई जाते। जाड़े के लिए एक जोड़ी जूता मोजा, एक फुल स्वेटर, एक बंदरछाप टोपी और एक ऊनी आसमानी चद्दर था। गरमी के लिए, जाड़ा वाला कपड़ा हटाकर जो बचता, वही था। बरसात में एक छाता और एक जोड़ी प्लास्टिक का जूता अलग से जुड़ता था। और एक स्याही बोकरती सवा रुपये की फाउंटेन कलम बरहोमासा थी, तीनों कुर्ते की जेब पर उसके निशान थे। जब भी लोकबाबू से बात करते समय कोई उनके कुर्ते की जेब पर नजरें गड़ाता, लोकबाबू देखने वाले के चेहरे का गणित पढ़ते हुए मंद मंद मुस्कराते, मुस्कराहट में अगहनी बाजरे सा एक ललछऊँ भाव फूटता कि हम पढ़े लिखे आदमी हैं, चोर नहीं हैं लोकबाबू के साथ ऐसा अक्सर होता था।

लोकबाबू का घर गाँव के पश्चिमी सीमाने से थोड़ा और किनारे पर था। घर के किनारे एक नीम का पेड़ था। सुबह से नीम की छाँव दूसरे गाँव के सीमाने में गिरती थी। तिजहरिया को नीम अपनी छाँव को समेटकर इस गाँव में आ बसता। लोकबाबू का खानदान पिछले तीन पीढ़ियों से इस गाँव में आकर नवरसा पर बसा था। लोकबाबू आज भी गाँव में एक पेईंग गेस्ट की तरह रहते थे। साफ सुथरा, चुपचाप कि कुछ भी बोलें तो मात्रा गड़बड़ हो जाए कि कब आकर एडीटर डाँट दे कि ‘पुनर्प्रकाशन’ होता है कि ‘पुर्नप्रकाशन’? लोकबाबू हर जगह सतर्क, चौकस और चुप रहते। नीम का पेड़, बरसों से, चुपचाप, भर गाँव को दान बाँटता था। जैसे आम का पेड़ आम बाँटता है।

हमारे आवारा दिनों की जितनी भी बड़ी और बेवकूफ घटनाएँ थीं चुपके से लोकबाबू के चश्मे के नीचे से होकर गुजरी थीं। उन्होंने हर घटना का प्रूफ देखा था। हर घटना का तारकुन ‘कु’ बारझुन ‘कू’ ठीक किया था।

मृत्यु और चश्मे की बड़ी सरपट फिलॉस्फी है। दोनों कब चढ़नी शुरू होती हैं पता नहीं चलता।

अब लोकबाबू बस के पीछे नहीं भागते थे। शान के साथ चौराहे तक आते, बस मिली तो मिली नहीं तो साइकिल से।

साइकिल पर सवार लोकबाबू चले जा रहे थे। चेनकवर चेन से रगड़ खा रही थी और लोकबाबू के पीछे एक आवाज छूटती चली जा रही थी तकुन ‘कु’, बरझुन ‘कू’। मैंने चिल्लाकर कहा लोकबाबू, मेरा ठीक ठीक लिखिएगा, कन्या राशि।

लोकबाबू पीछे मुड़कर चिल्लाकर बोले, ”शनि का साढ़ेसाती है, नीलम धारण करो, बाकी मैं देख लूँगा।” और साइकिल सड़क से उतर गई।

और यह उन्हीं दिनों की घटना है, जब इतिहास में मुझे सौ में तेइस नंबर मिले थे और मैंने एक कहानीकार बनने की बात सोची थी। तब मेरे पास कुल अधूरी और सिर्फ अधूरी मिलाकर सात एकतरफा प्रेम कहानियाँ थीं।

दिन तालाब के किनारे चुपचाप खड़ा रहता। शाम ढले लड़कियाँ कोरस में हँसती थीं। सब तरफ अच्छा अच्छा घटने के आसार बने रहते थे कि लोकबाबू एक बढ़िया आदमी थे कि उनके अखबार में कहानियाँ भी छपती थीं और लोकबाबू ने उन तमाम कहानियों की हीरोइनों के ‘अस्तन’ को ‘स्तन’ किया था।

लोकबाबू देर शाम साइकिल चलाते हुए लौटे थे। ऑफिस से महाविद्यालय तक लौटे थे। पूरब से पश्चिम में लौटे थे। दोपहर से शाम में लौटे थे। लौटे तो साथ साथ कैरियर पर बैठी एक उदासी भी लौटी थी। कह रहे थे कि मालिक कह रहा है, अखबार घाटे में जा रहा है। उन्होंने यह भी बतलाया कि उनकी उम्र सैंतालीस की है। उन्हें उदास देखकर मैंने आधी दर्जन अधूरी प्रेम कहानी वाली बात छुपा ली।

महाविद्यालय से डेढ़ किलोमीटर दूर बड़कागाँव में हम लोगों ने चाय पी। लोकबाबू बिना चीनी वाली चाय पीते। उन्हें कोई बीमारी नहीं थी। चाय दुकान पर खड़े लोकबाबू जगलाल को बुलाकर धीरे से कहते, बिना चीनी वाली एक और चीनी वाली एक। जगलाल बहुत ही लाचारी से लोकबाबू को देखता, उसकी आँखों में लोकबाबू शरीफ शरीफ बीमार लगते। वह लोकबाबू को ताककर थोड़ा मुस्करा देता। लोकबाबू थोड़ा बीमार हो जाते। वह मुस्कराकर लोकबाबू की चाय में दो दाना चीनी मिला देता। वह इस फिराक में अक्सर रहता कि जिस दिन लोकबाबू बिना चीनी वाली चाय कहना भूल जाएँगे, उस दिन उन्हें वह चीनी वाली कम चीनी वाली चाय पिला देगा।

लोकबाबू को बिना चीनी वाली चाय देने में जगलाल को थोड़ा दोष सा कुछ लगता था और उसका मन फीका फीका हो जाता। जगलाल हमेशा इस फिराक में रहता कि किसी दिन लोकबाबू की जेब में पैसा नहीं रहा, उस दिन भी वह उन्हें चाय पिला देगा और कहेगा, कोई बात नहीं जाइए, फिर कभी दे दीजिएगा, इनसान से ही तो भूल गलती होती है न। इस तरह उसका दोष कट जाएगा। ऐसा लोकबाबू को भी लगता था।

लोकबाबू की दाढ़ी एक दिन की बढ़ी हुई थी। एक दिन की दाढ़ी में लोकबाबू अक्सर उदास लगते। चेहरे पर एक दिन की हरी दाढ़ी अक्सर रहती। टोपाज ब्लेड से दाढ़ी बनाते और सेविंग क्रीम नहीं लगाते थे। लाइफबॉय साबुन मलते थे। जिस दिन दाढ़ी बनाते उस दिन भी एक दिन जतनी दाढ़ी छूट जाती।

चाय पीकर, हम लोग दुबारा साइकिल नाधे तब मैंने चुपके से आधी दर्जन प्रेम कहानी वाली बात बता दी। पहली बार लोकबाबू ने दिलीप कुमार की तरह रियेक्ट किया – ना मुन्ना… ना मुन्ना ना…, वाले स्टाइल में, पर यह बदला हुआ समय था। लोकबाबू शाहरुख की तरह लगे उम्म्म्म्म न्न्न्नाह वाला स्टाइल था। लोकबाबू बाजीगर वाला चश्मा पहने थे… गरीबी पर लिखो, भुखमरी पर लिखो, चोर पर लिखो, दलाल पर लिखो पर प्रेम कहानी मत लिखो… उम्म्म्म न्न्नाह।

और यही वह जगह थी, जहाँ से कई बार हम पक्की सड़क छोड़कर खेतों के बीच से होते हुए, मैदान पारकर पगडंडी पकड़ लेते। जल्दी पहुँचने की गरज से। वहीं बीच मैदान में साइकिल रोककर लोकबाबू ने झोला से एक पोस्टकार्ड निकालकर दिखलाया। उनका चेहरा बर उठा। पोस्टकार्ड लोकबाबू के नाम था। पोस्टकार्ड पर एक गंदी राइटिंग में उनको धन्यवाद दिया गया था। भेजनेवाले का नाम विष्णु प्रभाकर था। लोकबाबू के घर और दस बारह ऐसे ही पोस्टकार्ड थे दूसरे तीसरे साहित्यकारों के लिखे।

लोकबाबू के प्रति इज्जत और बढ़ गई।

मिलो, सबसे मिलो। परसों वाली कहानी की खासियत देखे थे? लेखक को मोची, पानवाला, सब्जीवाला, ठेलावाला, अंडावाला, डाकिया सबका नाम याद है। सबके बारे में पता है। तुम जहाँ साइकिल बनवाते हो उसका नाम तुम्हें पता है? सबके बारे में जानो और जानो कि वहाँ क्या है – लोकबाबू साइकिल चला रहे थे। मैं थक गया था। कैरियर पर असवार होने से ज्यादा थकान होती थी। फिर भी सुकून रहता कि हम सुस्ता रहे हैं।

पर लिखूँ किस पर?

कहा तो, उस पेपर बेचनेवाले पर लिखो। बहुत गरीब है। रोज पचास किलोमीटर साइकिल चलाता है – पचपन साल का बूढ़ा।

चारों तरफ गेहूँ के खेत बिछे थे। बीच की पतली पगडंडी, धरती पर राकेट का धुआँ सा दिखता था। लोकबाबू का झोला लेकर, मैं पीछे कैरियर पर बैठा था। मैं थका जा रहा था। पेड़ों के नीचे बैठे बैठे लोग सुस्ता रहे थे। एक टिटिहरी हमारे पीछे पीछे बोलती आ रही थी। वीरान, शांत, खेत, खलिहान और सरसराती हवा में एक टिटिहरी की पीछा करती आवाज – प्रेम कहीं नहीं था।

पगडंडी के बीचोंबीच एक जामुन का पेड़ था। रास्ता पेड़ की परिक्रमा कर फिर सीधा हो जाता। वहीं से गुजरते हुए, जामुन पर बैठा तोता बोला – लोकबाबू। लोकबाबू ऊपर ताकने लगे। साइकिल खेत में डगर गई।

तब! लिखूँ?

साइकिल मैं चला रहा था। लोकबाबू ने धीरे से कहा – लिखो।

लोकबाबू अपने घर चले गए। घर में पत्नी थी। दो बेटियाँ, एक बेटा था। बेटियों का नाम निधि और रेनू था। मयंक बेटा था। पत्नी के घुटनों में हमेशा दर्द रहता। कभी कभार चिल्हकता था। लोकबाबू घर में होमियोपैथिक गोलियाँ रखते थे। पत्नी का नाम पेउली था। शाम को सब बच्चे ओसारे में लालटेन बारकर पढ़ रहे थे। लोकबाबू को आते देख सब और जोर जोर से पढ़ने लगे। उनके बच्चे उन्हें सिर्फ बाबू कहते। दुनिया लोकबाबू कहती। पोस्टकार्ड पर आलोक नाथ राय लिखा था।

लोकबाबू सीधे घर के अंदर चले गए। पत्नी आँगन में सब्जी काट रही थी। लोकबाबू जब घर में नहीं रहते थे, तब पत्नी ओसारे में बैठे दिन काटती। आँगन में अभी अँजोर था। गरमी में देर तक अँजोर रहता है। पत्नी ने अपना पीढ़ा लोकबाबू की ओर सरका दिया। लोकबाबू पीढ़ा पर बैठ गए।

– मैं आ रहा था कि रास्ते में एक तोता बोला, लोकबाबू।

– पत्नी हँसने लगी – अरे ओ महंतजी का तोता होगा।

– लेकिन, मैंने कभी अपना नाम उसे नहीं बतलाया।

– किसी दूसरे के मुँह सुना होगा।

– तो उसे कैसे पता कि यह मेरा ही नाम है?

– तो तुम्हें कैसे पता कि वह तुम्हें ही बोला?

– अरे, मेरे ऊपर बोला।

– हो सकता है कि वह ऊपर बोला हो और उसी वक्त तुम ठीक उसके नीचे से गुजरे हो।

– पर वो बोला क्यों?

– उसे अच्छा लगता होगा। जैसे लाल मिर्च अच्छी लगती है, वैसे लोकबाबू।

– तो हर कहीं बोलेगा?

– हो सकता है।

– तब तो बदनामी होगी।

– तब क्या करोगे, उसे पकड़ोगे?

– नहीं, मैं पकड़ नहीं पाऊँगा।

– तब, उसे ढेला मारोगे?

– नहीं, तब वह और बोलेगा और गाली भी देगा।

– तब?

– तब, महंत जी से बोलूँगा।

भूतनाथ महाविद्यालय से गाँव आते वक्त डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर जो चौराहा था, वही गाँव से महाविद्यालय जाने में ढाई किलोमीटर की दूरी पर था। चौराहे के बीचोंबीच सड़क की बाईं तरफ एक बरगद का पेड़ था। पेड़ की मोटी डाल पर लटकती एक पीली तख्ती पर लिखा था – ऊँचकागाँव, ब्लाक ऊँचकागाँव। ऊँचकागाँव को लोग बड़कागाँव बोलते थे। बड़कागाँव कहीं नहीं लिखा था। तख्ती पर लिखे ऊँचकागाँव को सब ऊँचकागाँव पढ़ते थे और बड़कागाँव बोलते थे।

दुनिया में हर कहीं धोखा था फिर भी हम सरकार पर विश्वास कर लेते थे। लोकबाबू कहते सरकार पर विश्वास करो। सरकार लाचार है।

मैंने कहा, छपरा स्टेशन की पीली तख्ती पर छपरा लिखा है – हिंदी में। अंग्रेजी थोड़ी थोड़ी आती है सो अंग्रेजी में भी छपरा लिखा है। उर्दू पढ़नी नहीं आती; पर उर्दू में भी छपरा ही लिखा होगा, इतना विश्वास करूँ सरकार पर?

– हाँ करो, इतना तो जरूर करो – कैरियर पर बैठे लोकबाबू कहते।

– बंगाल में स्टेशनों के नाम तीन भाषाओं में लिखे होते हैं – अंग्रेजी, बांग्ला और हिंदी में। हिंदी वाला नाम अक्सर गड़बड़ लिखा होता है। गणेश मास्टर कहते हैं इसलिए कभी कभार विश्वास डोलता है कि हमें भाषा में धोखा दिया जा रहा हो तो? कि हमें चिंता होती है – मैं कहता। लोकबाबू कैरियर पर थोड़ा व्यवस्थित हुए तो साइकिल डगमगा गई। एक बच्चा भिड़ते भिड़ते बच गया। बच्चा दूर जाकर गुस्से में चिल्लाया – ऐ लोकबाबू लउकता नहीं है? लोकबाबू तुरंत समझ गए कि महंतजी के तोते ने ही सब जगह उनका नाम प्रचार किया है। नहीं तो इतना छोटा बच्चा उनका नाम आखिर कैसे जानता। लोकबाबू को फिर तोते की हरकत पर चिंता हुई। और चिंतित लोकबाबू ने कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है। तुम गणेश मास्टर से दूर रहो। वह ऐसी ही भड़काऊ बात सोचता है।

इस बदहवास भागते समय में लोकबाबू ने एक छोटा सा छुईमुई का पौधा लगाया था कि दुनिया थोड़ी सी ऑक्सीजन यहाँ से भी ले सके। कुछ दिन और जी सके। लोकबाबू इस व्यवस्था में नुक्ते जितनी जगह घेरते थे। सबका राशिफल अच्छा अच्छा लिखते थे कि लोग अपने अच्छे हिस्से से खुश हो सकें बस।

मुझे लगता है कि मैं पेपर बेचने वाले पर कहानी नहीं लिख सकता। मैंने बहुत पूछा तो उसने सिर्फ अपना नाम बतलाया – मुकेश।

– उसका नाम बदलकर रामसहाय कर दो। कहानी में पेपर बेचने वाले का नाम मुकेश, अच्छा नहीं लगता। बाकी सब मैं बतला दूँगा।

– सुनिये ना लोकबाबू, मैंने उन्हें साइकिल पकड़ा दी, उसका नाम बदलना ठीक नहीं होगा। उसके माँ बाप ने यह नाम बड़ी हसरत से रखा होगा। हमें क्या हक है, किसी का नाम बदलने का।

– कहानीकार के पास बस इतना ही हक तो होता है। बाकी तुम उसे तो बदल नहीं पाओगे। जितना बदल पाते हो बदलो। और रही बात हसरत की तो उस हसरत में कि वह बड़ा होकर पेपर बेचेगा, नहीं होगा।

महाविद्यालय आ गया था। लोकबाबू साइकिल पर सवार अब चले जा रहे थे। कैरियर पर एक झोला था। झोले में एक पुरानी डायरी, एक अखबार और एक पोस्टकार्ड था। पोस्टकार्ड में लिखा था – आप एक सुदूर गाँव में रहकर हमें इतना पढ़ते हैं, जानकर अच्छा लगा। बहुत बहुत धन्यवाद – निर्मल।

लोकबाबू बहुत बाद में बी.ए. किए थे। और उन्हें शिक्षक होना था। वे कभी कभार मास्टर मास्टर लगते भी थे। बहुत दूर बस से ऑफिस जाते समय बहुतों को लोकबाबू मास्टर ही लगते। मेघदूत बस का कंडक्टर मोती उन्हें माट्साब पणाम कहता। लोकबाबू धीरे से हाथ उठाकर पणाम पणाम कहते। उन्हें अच्छा लगता था।

– लोकबाबू! मास्टर पर कहानी लिखें?

– हाँ, जगन्नाथ मास्टर पर लिखो – लोकबाबू ने बड़े उत्साह में कहा।

– जगन्नाथ मास्टर का नाम बदलकर गणेश मास्टर कर दें?

– नहीं, जगन्नाथ तो ठीक है।

– पर मैंने तो जगन्नाथ मास्टर से पढ़ा ही नहीं है, गणेश मास्टर से पढ़ा है।

– नहीं, जगन्नाथ मास्टर पर लिखो। वे बहुत गरीब थे। दयालु थे, विद्वान थे। हर साल एक लड़के की फीस माफ करते थे – यह कहते हुए लोकबाबू भावुक हो गए। भावुक लोकबाबू ताड़ के पेड़ पर ताकने लगे। ताड़ के पेड़ पर एक कौवा का घोंसला था। कौवा शराफत से अपने घोंसले के पास बैठा था। जामुन के पेड़ पर तोता का घोंसला नहीं था। तोता जहाँ तहाँ अकेला घूमता था और उत्पात करता था। तोता बाँड़ था। लोकबाबू ने सोचा तोता का भी घोंसला होता तो तोता इतना उत्पाती नहीं होता।

ऐसा अक्सर होता है कि पता भी नहीं चलता और महाविद्यालय आ जाता। साइकिल पर सवार लोकबाबू जाते हुए बहुत दूर दिखते। कभी कभी मन करता कि क्लास न करूँ। चुपके से साइकिल के कैरियर पर बैठ जाऊँ, धीरे से कहूँ – लोकबाबू। लोकबाबू ऊपर ताकने लगे। उन्हें लगे कि तोता बोला। तब बहुत बाद में मैं कहता – मैंने बोला, लोकबाबू। और इस झूठ मूठ के कहे पर सचमुच के खुश हो जाएँ लोकबाबू। और यह देखकर कितनी खुशी, कितनी राहत कि मेरे मुँह से लोकबाबू सुनकर उनके चेहरे की रंगत वापस अपनी जगह लौट आए। ऐसा अक्सर होता।

कॉलेज में हमारे साथ बहुत कम लड़कियाँ पढ़ती थीं। मैं उन सब लड़कियों के पैरों की एड़ियाँ देखता। फटी एड़ियों वाली लड़कियाँ मुझे गरीब गरीब लगतीं। मैं उन पर कहानियाँ लिखने के बारे में सोचता। प्रेम कहानी। गरीबी में प्रेम कहानी।

इस तरह मैं सोचता रहता कि साइकिल पर सवार लोकबाबू धीरे धीरे आ जाते। मैं उन्हें गरीबी में प्रेम कहानी वाला प्लॉट सुनाता। लोकबाबू मायूस होकर कहते – अखबार मालिक पर कहानी लिखो।

टी.वी. में सैकड़ों चैनल आ गए थे। कई न्यूज चैनल भी। अखबार और पत्रिकाएँ भी बढ़ी थीं। अब ये दुनिया ब्लैक एंड वाइट नहीं रही थी। अखबारों, पत्रिकाओं के प्लास्टिक पेज पर, ब्रैसियर अंडरवियर के प्रचार में तैलीय त्वचा वाली नायिकाओं के फोटो छपते थे। जो जितना दिखता था, वो उतना बिकता था। वहाँ ये छहपेजिया ‘दुनिया जगत’ उन सारी पत्रिकाओं में पोतन सा दिखता था। यह अखबार साहित्य को ज्यादा कवर करता। रेणु के कई फीचर्स और रिपोर्ताज इसमें छपे थे – बहुत पहले।

इसके संस्थापक एवं संपादक हिंदी के जाने माने ललित निबंधकार पंडित भैरव प्रसाद थे। इस अखबार से जुड़े और भी कई बड़े नाम थे। यह अखबार 21 फरवरी 1933 को बिहार के मीरगंज नामक एक कुनबे से प्रकाशित हुआ – छिंदवाड़ा से प्रकाशित साप्ताहिक लोकमित्र 16 फरवरी 1923 के ठीक दस साल बाद। कहते हैं कि दुनिया जगत निकालने से पहले भैरव बाबू तब लोकमित्र से ही जुड़े थे। बाद में, हिंदी जिलों की प्रांतीय कांग्रेस कमेटी को लेकर हुई किसी खींचातानी में भैरव बाबू उससे अलग हो गए और यहाँ कलम दवात लेकर दुनिया जगत निकालने लगे।

एक समय अपने संपादकीय के बल पर यह अखबार हिंदी के टॉप पाँच अखबारों में शामिल हुआ।

बाबू भैरव प्रसाद ने ही पहली बार दुनिया जगत के संपादकीय में यह खुलासा किया कि 1934 में गांधी क्यों सक्रिय राजनीति से अवकाश ग्रहण कर ग्रामोद्धार एवं अछूतोद्धार के कार्य में जुट गए थे।

कि जवाहर लाल नेहरू के अथक राजनीतिक प्रयासों से नवयुवकों का एक छोटा सा दल, कांग्रेस समाजवादी दल के नाम से सन 34 में पटना में गठित हुआ। इस दल के अध्यक्ष नरेंद्र देव तथा सचिव जयप्रकाश नारायण थे। कौंसिल प्रवेश का विरोधी यह दल, गांधी की राजनीति का भी घोर आलोचक था।

कहते हैं कि अखबार की इस बेबाक दृष्टि ने उस समय भारत के तमाम बुद्धिजीवियों को अपनी तरफ आकृष्ट किया था और शायद यही वजह थी कि बाद के दिनों में इस अखबार से और भी कई नाम जुड़े जिनमें शिवपूजन जी, फणीश्वर नाथ, रामधारी सिंह, अनंत नाग, उमाशंकर आदि कई उल्लेखनीय हैं।

और उन बड़े नामों की फेहरिश्त में एक नाम तारक नाथ राय का भी था।

…और क्या यह एक गर्व था या उसी जैसा कुछ कि लोकबाबू मास्टर न बन पाने के मलाल के बावजूद इस अखबार से जुड़कर खुश थे। और अब उसी अखबार के बंद हो जाने की खबर उन्हें कहीं अंदर तक तोड़ रही थी।

भैरव बाबू का पोता अनुज अखबार का मालिक था। अखबार से इतर भी उसके कई कारोबार थे। वह भोजपुरी फिल्मों और शेयर बाजार में पैसा लगाता था और बहुत बाद के दिनों में दुनिया जगत के पिछले पन्ने पर, हर तरह के प्रूफ से छनकर आई, भोजपुरी सिनेमा की ‘बेबों’ की ब्लैक एंड ह्वाइट तस्वीरें छपने लगी थीं। बावजूद इसके, अनुज के हाइटेक और रंगीन कारोबारी दुनिया में यह अखबारवाला पोर्शन कहीं नहीं फबता था। बहुतों ने उसे सलाह दी कि वह अखबार को बंदकर स्टारडस्ट या फिल्मी कलियाँ जैसी पत्रिकाएँ निकाले। पर अखबार पत्रिका वाला काम उसे सिहुर सिहुर लगता था। वह भोजपुरी का एक चैनल लांच करना चाहता था और उसने अखबार को बंद करने का निर्णय लिया था।

लोकबाबू अक्सर सोचते कि अपने अखबार में अपना राशिफल अपनी तरह से लिखा जा सकता है, लेकिन दूसरे के अखबार में दूसरे का झूठ अपना राशिफल होगा।

अपना अखबार तो अपनी किस्मत। दूसरे का अखबार मतलब…

लोकबाबू का एक दाँत नकली था। मैंने कभी उनके दाँत के बारे में नहीं पूछा। वे हँसते थे तो सारे दाँतों के बीच नकली दाँत अलग से दिखता था। वे मूँछ रँगते थे। बाल नहीं रँगते। मूँछों की सफेदी को देखकर तारीख का अंदाजा लगाया जा सकता था। कोई लोकबाबू से पूछता आज सत्ताइस तारीख है क्या? लोकबाबू समझ जाते कि मूँछ के सारे सफेद बाल दिखने लगे हैं। तीन दिन बाद रंग लेना है। एक तारीख को मूँछ काली होती फिर गिनती शुरू…

जस जस तारीखें बढ़तीं, मूँछों के रास्ते लोकबाबू तस तस अधेड़ लगते। शरीफ शरीफ अधेड़। अक्सर इन दो विशेषणों के साथ लोग विस्मृत हो जाते हैं। पर बावजूद इन दो विशेषणों के लोकबाबू हमेशा हाइलाइटेड रहे।

देर शाम पसीने से तर लोकबाबू महाविद्यालय के सामने सड़क पर आए। मैं उनके आने का ही इंतजार कर रहा था। उनकी राह तकते मैं कभी थकता नहीं था। पाकड़ के नीचे बैठकर, पचीस पैसे की मूँगफली खाते हुए राह तकता था। लोकबाबू साइकिल चलाते हुए मेरा इंतजार करते पहुँचते। वे इंतजार करते करते थक जाते। लोकबाबू के मूँछ पर तेईस तारीख का शनिवार था। पसीने से तर लोकबाबू मुझे ताककर आदतन मुस्करा दिए। नकली दाँत दिखा। मुस्कराहट में सावन का महीना था।

– आज लेट हो गए? मैं पाकड़ के पेड़ के नीचे आपकी राह देख रहा था।

– हाँ, जल्दी जल्दी आए फिर भी लेट हो गया। आज शनिवार है, फाइनल प्रूफ देखना होता है। रविवार को अखबार निकलता है। और जल्दी चलो नहीं तो बारिश भी हो सकती है। मैं इसीलिए जल्दी जल्दी आया – लोकबाबू एक साँस में कह गए।

हम लोगों ने रास्ते में चाय नहीं पी। बारिश कभी भी हो सकती थी। मैंने कहानी की बात नहीं छेड़ी, सिर्फ एक लड़की की बात बतलाई। लोकबाबू ने मुझसे एक साइकिल की बात बतलाई। उन्होंने अपनी पत्नी को मुँहदिखाई में एक चाँदी की चेन दी थी और अपनी साइकिल बेच दी थी। और ये भी कि जब उनके पास साइकिल थी तब उनके बड़े बड़े बाल थे। और ये भी कि जब वे साइकिल से लहराते हुए चलते तब लोग उन्हें जैक्सन जैक्सन कहते थे। माइकल जैक्सन।

यह सब बहुत पहले की बात नहीं थी। पर मैंने लोकबाबू के बड़े बाल कभी नहीं देखे थे। लोग बीते समय का हवाला देकर सट्टा खेलते हैं। मैंने उन्हें संदेह से नहीं देखा। आखिर आदमी अपनों से ही तो झूठ बोलता है। मैं लोकबाबू का अपना था। लोकबाबू अक्सर अकारण झूठ बोलते थे। और चूँकि वे हमेशा चुप चुप और अकेला रहते सो उनकी उम्र का पता किसी को नहीं चलता था। और वे उम्र की बात भी झूठ बोल जाते। लोकबाबू के सभी अपने थे।

लोकबाबू जब घर पहुँचे तब सचमुच का अँधेरा था। ओसारे में बच्चे पढ़ रहे थे। उनके साथ साथ लालटेन भी पढ़ रही थी। लालटेन से दूसरा काम नहीं होता। बच्चे कहते यह पढ़ने वाली लालटेन है।

लोकबाबू ने बच्चों को पढ़ते देखा और उन्हें बेटी की शादी की चिंता हुई। बड़ी वाली चौदह की थी। वे सीधे आँगन में चले गए। पत्नी अँधेरे में उनकी राह तक रही थी। उन्होंने अँधेरे में एक गिलास पानी माँगा। पत्नी गुड़ और एक गिलास पानी लेकर उनके सामने खड़ी हो गई। गुड़ साँझ जितना काला और रात जितना मीठा था।

– आज इधर बारिश हुई? लोकबाबू आँगन में पीढ़ा पर बैठे थे।

– नहीं, उधर हुई? पत्नी लालटेन का शीशा साफ करने लगी।

– नहीं।

– तो, फिर क्यों पूछे?

– उधर नहीं हुई थी, इसीलिए पूछा?

– उधर हुई होती तो नहीं पूछते?

– नहीं, तब समझ जाता कि इधर भी जरूर हुई होगी।

– उधर नहीं हुई तो क्यों नहीं समझ लिए कि इधर भी जरूर नहीं हुई होगी।

– बाहर रहने पर घर की बारिश की चिंता होती है।

– घर में रहने पर बाहर की चिंता होती है?

– चिंता होती है, पर बारिश की नहीं, तोते की।

– तुमने महंतजी से कहा?

– हाँ, कहा था।

– उन्होंने क्या कहा?

– कहा कि अब तोता मेरे बस में नहीं है, अब उसकी गलती मेरी गलती नहीं है।

पत्नी ने लालटेन जल दी। लोकबाबू पत्नी को ताककर मुस्करा दिए। नकली दाँत दिखा। लोकबाबू की आँखें भूरी नहीं थीं। नकली दाँत थोड़ा हल्का भूरा था। पत्नी ने कहा – तुम राज कपूर की तरह लगते हो।

– और तुम नरगिस की तरह।

इतने में पत्नी के हाथ पर सचमुच की बारिश की दो चार बूँदें गिरीं। पत्नी ने कहा – बरसात।

लोकबाबू ने कहा – प्यार हुआ, इकरार हुआ, प्यार से फिर क्यूँ डरता है दिल।

पत्नी ने कहा, धत्त् श्री चार सौ बीस।

सुबह रविवार था।

रविवार की सुबह लोकबाबू खुश थे। सुबह सुबह दातुन तोड़ने गए। लोकबाबू ने नीम के पेड़ पर एक चिरई का खोंता देखा और खुश हो गए। खुश हो गए कि आज दफ्तर नहीं जाना था। पहुनाई जाना था। उनकी बहन बीमार थी।

लोकबाबू सुबह सुबह साइकिल माँगने आए।

– अरे! आज नया बुशर्ट पहने हैं? लोकबाबू आज सुंदर लग रहे थे। मूँछों पर भदवारी की पहली तारीख थी। लोकबाबू ‘टाइड सर्फ’ के विज्ञापन वाले लड़के सा चहककर बोले, धत्त ई तो हमरा पुराना बुशर्ट है।

लोकबाबू खुश थे कि पहुनाई जा रहे थे। लोकबाबू दुखी थे कि बहन बीमार थी।

लोकबाबू साइकिल से चले जा रहे थे। मैंने साइकिल का चेनकवर ठीक करवाया था। आज छुट्टी के दिन साइकिल के पीछे कोई आवाज नहीं छूट रही थी। लोकबाबू चले जा रहे थे, आज मैं छूटा रह गया था। वे चले जा रहे थे – सिर को एक तरफ झुकाए, ऐसे मानो हर कदम किसी का समर्थन करते जा रहे हों।

सच कहूँ तो अखबार वाला, जगन्नाथ मास्टर, गणेश मास्टर या अधूरी प्रेम कहानियों पर मुझे कहानी कभी नहीं लिखनी थी। लोकबाबू से मैंने झूठ बोला था। लोकबाबू अपने थे।

साइकिल पर सवार लोकबाबू चले जा रहे थे, आँख से ओझल होते कि साइकिल रुक गई। लोकबाबू साइकिल से कूदकर उतर गए। साइकिल को स्टैंड किया और साइकिल की दाईं तरफ बैठ गए।

मैं जोर से चिल्लाया – लोकबाबू। लोकबाबू ने ऊपर नहीं देखा। मेरी तरफ देखा। मैं वहाँ तक दौड़कर गया था।

– लोकबाबू एक कहानी लिखूँ? मैं हाँफ रहा था।

– लिखो। लोकबाबू सिर नीचे किए चेन चढ़ा रहे थे। परेशान थे कि रास्ते में चेन बार बार उतरेगा।

– लिखूँ कि एक लोकबाबू थे…

सिर उठाए तो नाक पर चेन की कालिख लगी थी, होंठों की दाहिनी कोर पर बरसाती दिन सी एक भीगी मुस्कान, बाजीगर वाले चश्मे के पीछे लोकबाबू आँखों से खुश थे, बोले – और?

– और कुछ नहीं, …बस एक बहुत सुदूर गाँव में एक लोकबाबू रहते थे।

जिंदगी में वह पहली बार था कि तोता एक जिम्मेवारी के साथ नीम की दिशा में उड़ता चला जा रहा था। लोकबाबू को तोते के बारे में दूसरी तरह की चिंता हुई।

कहानी में यह पहली ही बार था कि लोकबाबू ने एक कहानी शुरू करने की दिशा में मारे खुशी के बेपरवाही में कहा था – और!

तोता नीम की दिशा में उड़ते उड़ते बोला –

…कि और एक गुलशन नंदा।

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खाली दिनों में लोकबाबू की जंगलगाथा – Khali Dinon Mein Lokababu Ki Jangalagatha

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