कायांतरण | जयनंदन
कायांतरण | जयनंदन

कायांतरण | जयनंदन – Kayantaran

कायांतरण | जयनंदन

आधी रात का सन्नाटा। नींद में बेसुध पापा। सिरहाने की तरफ स्टूल पर बैठ कर उनकी देखभाल करता हुआ आठ वर्षीय श्लेष। उसी समय बाहर बरामदे की तरफ से आती हुई एक आवाज। श्लेष ने उठ कर किवाड़ खोल दिया। चारों और नजरें दौड़ाईं। अचानक उसकी नजर ऊँची काँचदार चारदीवारी पर जा कर ठहर गई। वहाँ से कोई मानवाकृति फलाँग कर इस पार आना चाह रही थी। श्लेष ने निखरे हुए चाँद की रुपहली चाँदनी में साफ-साफ देख लिया… उस मानवाकृति के पैरों से टप-टप कोई द्रव चू रहा था, श्लेष ने दौड़ कर अपने को उसके समीप पहुँचाया और धीरे से कहा, ‘तुम वहीं रुको, मैं उतरने के लिए स्टूल ले कर आता हूँ। इतनी ऊँचाई से कूदने पर टाँगें टूट सकती हैं।’

वह आकृति हकबका कर रह गई – जरूर यह लड़का कोई चालाकी करना चाह रहा है। लेकिन जब तक वह आदमी कुछ निर्णय कर पाता, श्लेष दौड़ कर एक स्टूल ला चुका था। वह आदमी तेजी से नीचे उतर गया और इसके पहले कि लड़के का मुँह दबा कर उसके हाथ-पैर बाँध देने की तत्क्षण सूझी अपनी युक्ति पर अमल करता, लड़के की बात सुन कर ठगा रह गया। लड़का अगले ही पल कह रहा था, ‘तुम्हारे पैर जख्मी हो गए हैं, लेकिन तुम दर्द से रोना या कराहना नहीं, नहीं तो मेरे पापा की नींद खुल जाएगी। बड़ी मुश्किल से कई दिनों बाद आज उन्हें नींद आई है। मैं तुम्हारे लिए मरहम-पट्टी का सामान ले कर आता हूँ।’ कह कर श्लेष अंदर चला गया।

वह आदमी अवाक था – अजीब लड़का है! इसे यह तो पता है कि मैं कौन हूँ? क्या इसे इतनी समझ नहीं कि रात में दीवार से फाँद कर अंदर आनेवाला कौन होता है?

मरहम-पट्टी का सामान ला कर श्लेष ने अपने अबोध हाथों से उसकी मरहम-पट्टी कर दी। वह आदमी अब और भी हैरान था – विचित्र जंतु है यह! कहीं दिमाग से पैदल तो नहीं है! अब तक तो इसे चिल्ला कर पूरे मोहल्ले को जगा लेना चाहिए था, लेकिन यह है कि मरहम… पट्टी… दया… सहानुभूति…। उसने पूछ दिया, ‘तुम मेरे लिए यह सब कर रहे हो, तुम्हें मालूम है, मैं कौन हूँ?’

श्लेष ने उसकी घबराई आँखों में गहरे तक झाँका और निर्द्वंद्व भाव से कह उठा, ‘हाँ मैं जानता हूँ, तुम चोर हो। लेकिन मैं चिल्ला नहीं सकता, चूँकि मेरे बीमार पापा को आठ रोज बाद नींद आई है। डॉक्टर अंकल ने कहा है कि इन्हें नींद लगे तो किसी भी तरह बीच में टूटने न पाए। तुम चोर हो, मगर तुम्हारे पैर जख्मी हो गए हैं, पापा ने मुझे सिखाया है कि आदमी कोई भी हो, कैसा भी हो, अगर वह तकलीफ में है तो उसकी मदद करनी चाहिए।’

वह आदमी जो चोर था, उसके भीतर का बुरा और सख्त आदमी मानो जरा सा हिल गया। श्लेष की नेकी, उसका बचपना और उसके भोलेपन ने चोर के इरादे के समक्ष एक चुनौती खड़ी कर दी। उसने झिझकते हुए पूछा, ‘तुम्हारे घर में क्या सिर्फ तुम्हारे पापा हैं?’

‘हाँ सिर्फ पापा।’ श्लेष का स्वर बेचारगी से अत्यंत बोझिल था।

‘और मम्मी?’

‘मम्मी को मैंने देखा नहीं, पापा कहते हैं कि वे बहुत पहले हमें छोड़ कर ऐसी जगह चली गईं जहाँ से कोई वापस नहीं आता। पापा यह भी कहते हैं कि वह ऐसी जगह है कि एक दिन वे भी वहाँ चले जाएँगे और फिर बाद में मैं भी।’

चोर के भीतर हिलने-डुलने की क्रिया में और भी तेजी आ गई तथा उसके चेहरे पर अनुराग की एक परछाईं उभर आई। स्वर में मिठास भर कर पूछा उसने, ‘तुम्हारा नाम क्या है?’

‘मेरा नाम श्लेष है। मगर तुम यह सब क्यों जानना चाहते हो? सुनो, अब तुम हमारे घर से जो-जो चीजें ले जाना चाहते हो, ले लो और गेट से चले जाओ। मैं ताला खोल देता हूँ… ऊपर से फलाँगना अच्छा नहीं, दीवार पर काँच के टुकड़े गड़े हुए हैं… तुम्हारे पैर फिर जख्मी हो सकते हैं।’ श्लेष ने आहिस्ता से समझाते हुए कहा।

चोर को लगा जैसे किसी ने उस पर जादू चला दिया हो। उसने कहा, ‘नहीं श्लेष! अब मैं तुम्हारे घर में चोरी नहीं करूँगा। एक अर्से से मैं चोरी कर रहा हूँ, लेकिन ऐसी परिस्थिति कभी नहीं आई जब घरवाला जाग कर खुद कहे कि जो ले जाना है, ले जाओ। यह तो फिर चोरी नहीं हुई।’

‘चोर अंकल, तुम विश्वास करो, मैं शोर नहीं मचाऊँगा। घर के सामान से मेरे बीमार पापा की नींद कहीं ज्यादा महँगी है। ऐसे भी जहाँ मम्मी गई हैं, वहाँ पापा को भी चले जाना है और मुझे भी। सामान तो यहीं रह जाएगा।’

निश्छल बाल-वृत्ति पर चोर बुरी तरह पराजित होता गया। दया से उसकी आँखें भीग आईं। श्लेष उसकी आँखों में आँसू देखते ही अंदर को दौड़ पड़ा। दूसरे ही क्षण वह लौटा तो उसके हाथों में एक कैपसूल, दो-चार स्लाइस्ड ब्रेड और एक गिलास पानी था। उसने कहा, ‘शायद तुम्हारे जख्म का दर्द बढ़ गया है, तुम इसे खा लो। पापा के दर्द के लिए डॉक्टर अंकल ने दिया है। भूख लगी हो तो ये ब्रेड खा लो, और तो मेरे घर में कुछ है नहीं। दरअसल मुझे खाना बनाना नहीं आता न। एक नौकर था वह दस रोज पहले घर का कुछ सामान ले कर दिन में ही भाग गया। तब से मैं ऐसे ही ब्रेड खा लिया करता हूँ। कभी डॉक्टर अंकल कुछ ला देते हैं, तो कभी पड़ोस की आंटी रोटी वगैरह दे जाती हैं। दो दिन से शायद वे भी कहीं चली गई हैं।’ श्लेष यों बता रहा था जैसे अपने किसी गुनाह की सफाई दे रहा हो।

चोर को लगा कि जैसे उसके अंदर कोई अलाव जल उठा है, जिसमें उसकी सारी रद्दी, सारा कूड़ा जल कर राख होने लगा। समाज का एक बुरे और घृणित आदमी के साथ ऐसा साधु बर्ताव! उसकी आँखों में आँसू की धार और भी तेज हो गई। श्लेष समझ नहीं पा रहा था कि ऐसा क्यों हो रहा है। वह विचलित हो उठा और बहुत पसीज कर खुशामद भरे लहजे में मनाने की अदा से कहने लगा, ‘चोर अंकल! अगर मुझसे कोई गलती हो गई हो तो माफी दे दो। मैं बच्चा हूँ न! मुझे बड़े आदमी से सलूक करना नहीं आता… किस बात को कैसे कहना है, मैं नहीं जानता… खास कर चोर से तो बिल्कुल नहीं। विश्वास करो, मैं अपनी आँखों से पहली बार चोर देख रहा हूँ।’

चोर में अब और खुद को रोकने की सामर्थ्य नहीं थी। उसने श्लेष को अपनी गोद में उठा कर गले से लगाते हुए चूम लिया। भरे गले से कहा, ‘भैया श्लेष! तुम्हें जो सलूक का ढंग आता है वह तो बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों को भी नहीं आया होगा। अब मैं इस घर से नहीं जाऊँगा। तुम्हारे पापा जब जाग जाएँगे तो उनसे मैं एक विनती करूँगा।’

विस्मय करते हुए श्लेष ने पूछा, ‘क्या?’

‘यही कि आपके घर से एक नौकर चोर बन कर भाग गया था और अब एक चोर आ कर नौकर बन जाना चाहता है।’

श्लेष फटी-फटी आँखों से उस चोर को देखते हुए सोचने लगा कि पापा के जागने पर वह पूछेगा कि ऐसा क्यों हुआ?

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