किराए पर सब कुछ | जयनंदन
किराए पर सब कुछ | जयनंदन

किराए पर सब कुछ | जयनंदन – Kirae Par Sab Kuchh

किराए पर सब कुछ | जयनंदन

घर का सारा काम अब बहुउद्देशीय सेवा केंद्र (मल्टीपरपज सर्विसेज सेंटर) नामक एजेंसी के द्वारा संपन्न होने लगा था। प्रेरणा खिन्न थी… अन्यमनस्क थी। अभिराम केडिया अपने होलसेल मेडिकल शॉप से देर रात में आने पर यांत्रिक ढंग से खाने-पीने के बाद बस एक ही काम करता था… रात में उसके साथ सोने का। प्रेरणा कभी-कभी सोच जाती थी कि कल कहीं यह काम भी एजेंसी के हवाले न कर दिया जाए और उसे अपने पति की जगह मल्टीपरपस के किसी लड़के के साथ रात गुजारना पड़े। अभिराम की जिस तरह व्यापार में संलिप्तता बढ़ती जा रही थी और उसके शरीर के आयतन में गुणात्मक परिवर्तन होने लगा था कि यह खतरा भी असंभव जैसा नहीं रह गया था।

कल फुन्नू की गेंद खेलते वक्त दाहिने हाथ की कोहनी किसी टूटी हुई टहनी की तरह झूल गई। प्रेरणा एकदम नर्वस सी हो गई, फिर भी दुकान पर फोन करना उचित नहीं समझा। क्या फायदा ? वह आदमी अपनी गद्दी-गल्ला छोड़ कर आनेवाला तो है नहीं। बहुत हुआ तो टेलीफोन पर ही उसे कोसने, डाँटने और हिदायत देने का काम करने लगेगा, ‘ध्यान नहीं रखती हो ठीक से…पता नहीं घर में क्या करती रहती हो दिन भर? अब बैठ कर रोती मत रहो…ले जाओ उसे गुप्ता नर्सिंग होम में। खुद से नहीं जा सकती तो मल्टीपरपज में रिंग करके किसी को बुला लो।’

प्रेरणा यह स्टीरियो भाषण सुनने में समय क्यों जाया करती। उसने खुद ही मल्टीपरपज में फोन कर दिया। एक ऑटो ले कर फौरन एक लड़का दाखिल हो गया। वह फुन्नू को उसके साथ ले कर चली गई।

रात में अभिराम लौटा तो काफी देर तक अपने बही-खाते में उलझा रह गया। दो हजार रुपए का हिसाब नहीं मिल रहा था। गुणा-भाग के बीच उसे होश ही नहीं आया कि फुन्नू के साथ आज कोई दुर्घटना भी हुई है।

प्रेरणा बस इंतजार ही करती रह गई कि बेटे को जरा दुलार-पुचकार करेगा यह आदमी। उसने खाना लगा दिया तो अनमने से वह खा कर सो गया।

प्रेरणा अपने बेटे के पास चली गई। फुन्नू अब तक जगा हुआ था और उसकी आँखें दरवाजे की तरफ ही निहार रही थीं। उसने पूछा, ‘ममा, क्या डैड अब तक हिसाब-किताब में ही उलझे हुए हैं?’

‘नहीं, वे सो गए। शायद काफी थके हुए थे।’ बेटे का मन रखने के लिए एक बहाना गढ़ लिया प्रेरणा ने।

फुन्नू का चेहरा उतर गया और देखते ही देखते उसकी आँखों में आँसू भर आए। वह अपने को रोक न सका और अपनी माँ के गले से लग कर सिसक पड़ा।

सुबह अभिराम जब दुकान जाने के लिए तैयार हो रहा था तभी एन के मल्टीपरपज सर्विसेज का एन के यानी नवल किशोर आ गया।

‘अरे एन के! कैसे हो भाई? कैसा चल रहा है तुम्हारा मल्टीपरपस ?’

‘बहुत अच्छा चल रहा है, केडिया साहब। अब तो इस एरिया का शायद ही कोई घर बचा हो जो अब तक मेरा कस्टमर नहीं बन गया।’

‘वेरी गुड। मुझे बहुत खुशी हुई जान कर। तुम अपना कार्यक्षेत्र इतना बढ़ा लोगे, इसकी तो मुझे वाकई उम्मीद नहीं थी। मेरा तो भाई सारा काम तुम्हारे जिम्मे ही है। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि तुम्हारी एजेंसी यहाँ न शुरू होती तो शायद मेरे घर की सारी व्यवस्था चरमरा जाती।’

‘यह मेरा सौभाग्य है, केडिया साहब। अच्छा, फुन्नू कैसा है ? दर्द तो बहुत रहा होगा रात में। गोली खाने से नींद तो आ गई होगी उसे। डॉक्टर ने बताया कि मेजर कंपाउंड फ्रैक्चर है…लेकिन बच्चा है इसलिए हड्डी जुड़ जाएगी। मुझसे रहा न गया और मैं उसे देखने चला आया।’

एक सेकेंड के लिए तिलमिला गया अभिराम केडिया। उफ! उसकी मानसिक दशा क्यों इस तरह है कि रात में इस बारे में पूछने का उसे जरा भी ध्यान न रहा। उसने खुद को संभालते हुए कहा, ‘जा कर देख लो अंदर।’

नवल अंदर चला गया। अभिराम एक खीज से भर उठा। इस औरत से इतना नहीं हुआ कि उसे जरा याद दिला दे। मनहूस की तरह भीतर ही भीतर घुमड़ते रहती है। इतना भी नहीं समझती कि मैं जो कर रहा हूँ…कमा रहा हूँ, सब उसी के लिए है। बिजनेस में आजकल कितनी प्रतिस्पर्धा हो गई है, यह बताने से भी इसे समझ में नहीं आता।

वह दुकान के लिए बिल-वाउचर-बही आदि समेटने लगा। एन के अंदर से देख कर फिर ड्राइंग हॉल में आ गया। कहने लगा, ‘आपका यह फुन्नू बहुत भावुक और होशियार है, केडिया साहब। मुझे देखते ही रो पड़ा और कहने लगा कि आपने जिस तरह प्यार-दुलार दे कर संभाला है अंकल, उसे मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा।’

क्षण भर के लिए एक अपराध बोध उसके भीतर किसी पिन की तरह चुभ गया – सचमुच, चाहे कितनी भी भौतिक सुविधाओं से भरा हो आदमी, लेकिन प्यार-दुलार और जज्बात का हाशिया जीवन में बना ही रहता है। उसने बात बदलते हुए कहा, ‘अपना बिल लाए हो एन के?’

‘नहीं सर। आपसे बिल लेने की मुझे कोई जल्दी नहीं रहती। मैं बाद में भिजवा दूंगा। इस समय तो मैं सचमुच फुन्नू को देखने आया हूँ और आ गया हूँ तो सोचता हूँ कि एक और जरूरी काम निपटाता जाऊँ। अपने हाथों से मुझे आपको यह निमंत्रण पत्र देना है। मैंने अपना एक घर बनाया है…अगले सप्ताह सोमवार को गृहप्रवेश का रस्म पूरा करना है। इस अवसर पर आपको मेरा सबसे खास मेहमान हो कर आना है। डिनर का शुभारंभ आपको ही करना है।’

अभिराम अविश्वास से एन के का मुँह देखता रह गया। जब यह लड़का उससे मिला था तो दो जून की रोटी का इंतजाम भी इसके पास नहीं था। उसकी दुकान में कैसा भी रूखा-सूखा काम देने के लिए निहोरा कर रहा था। इसकी एमएससी की डिग्री देख कर अभिराम के अन्तर्मन ने स्वीकार नहीं किया कि उसे एक छोटे-मोटे काम में लगा कर उसकी मजबूरी का दोहन किया जाए। उस समय उसे खुद एक ऐसी एजेंसी की तलब थी जो टेलीफोन, बिजली, सेटलमेंट, इंश्योरेंस, कारपोरेशन आदि के कार्यालयों में उसके बार-बार पड़नेवाले काम सलटा सके। इन कार्यालयों के लफड़ों से वह ही नहीं बल्कि उसके संपर्क के कई अन्य व्यापारी तथा कई ग्राहक भी त्राहि-त्राहि की स्थिति में थे।

अभिराम ने उसे काम का पूरा प्रारूप समझाते हुए सलाह दी कि वह सबके काम इकट्ठे ले-ले कर इन कार्यालयों में जाए तथा साम-दाम और बुद्धि-बल लगा कर उन्हें अंजाम तक पहुँचाए। इनके बदले में एक वाजिब मेहनताना तय कर ले तो लोग खुशी-खुशी दे डालेंगे।

नवल किशोर को रोजी कमाने का यह रास्ता अच्छा लगा और वह अभिराम की दुकान में ही बैठ कर जॉब जुटाने लगा। बाद में जब वह पूरी तरह स्थापित हो गया और सभी लोग उसे जान गए तो उसने उस मोहल्ले में ही एक भाड़े की कोठरी ले ली, जहाँ उसके अधिकांश ग्राहकों के आवास थे। उसने अब बजाब्ता एन के मल्टीपरपस सर्विसेज सेंटर का एक बोर्ड लगा लिया और साथ में एक अन्य लड़के को भी रख लिया।

दो-ढाई साल बाद अभिराम को नवल ने बताया कि मल्टीपरपस ने अब कई तरह के काम, मसलन कोई लंबा मुकदमा लड़ना…खाली मकान के लिए किराएदार ढूँढ़ना…गाड़ी या जमीन बेचना…पासपोर्ट-वीजा बनवाना…ड्राइविंग लाइसेंस या आवासीय प्रमाणपत्र बनवाना…पुलिस से कोई मामला सलटवाना आदि शुरू कर दिए हैं। इसके लिए अब स्थायी रूप से और भी छह-सात लड़के बहाल करने पड़े हैं। कुछ लड़के पार्ट टाइमर हैं जो काम बढ़ जाने पर कभी भी बुला लिए जाते हैं।

इसी तरह एक-एक सीढ़ी चढ़ते हुए एन के आज इतनी ऊँचाई पर पहुँच गया कि ऐसे पॉश इलाके में अपना मकान बनवा लिया! अभिराम ने कहा, ‘भाई एन के! तुम्हें तो मैंने सिर्फ एक आइडिया भर दिया था, उसे साकार तो तुमने अपनी मेहनत लगा कर किया है। इस श्रेय के हकदार तुम खुद ही हो, मुझे इतना मान क्यों दे रहे हो। तुम जानते हो कि मेरा खुद का काम ऐसा है कि जरा सी भी मुझे फुर्सत नहीं देता। तुम क्यों नहीं अपने जश्न में मेरी जगह किसी सरकारी अफसर को बुला लेते…तुम्हारा एक कॉन्टैक्ट भी डेवलप हो जाएगा।’ अभिराम ने कन्नी काटने की मंशा से कहा।

‘केडिया साहब, अब कॉन्टैक्ट का मैं मोहताज नहीं हूँ। आपकी दुआ से मैंने यह रहस्य जान लिया है कि किससे कॉन्टैक्ट कैसे बनाना और बढ़ाना है। सब पैसे का खेल है। आप मुझे इस काम से जोड़ने के प्रेरणास्रोत रहे हैं। अतः मेरी यह खवाहिश है कि जीवन की पहली बड़ी उपलब्धि के रूप में जो मकान मैंने बनाया है, उसके जश्न में आपकी शिरकत जरूर हो और वह भी एक खास मेहमान के तौर पर। जानता हूँ कि समय निकालने में आपको बहुत मुश्किल आएगी…आपको ही क्या इस मोहल्ले में रहनेवाले किसी भी शख्स को फुरसत कहाँ है…लेकिन फिर भी अपने इस सेवक के लिए थोड़ा-सा वक्त निकालने की गुजारिश मैं हरेक से कर रहा हूँ…आपसे तो मेरी खास दरख्वास्त है।’

‘कन्विंस करने की तुम्हारी अदा बहुत लाजवाब है एन के…शायद इसीलिए यह काम तुम्हें रास आ गया। मेरे लिए इतना आदर रखते हो मन में, यह जान कर भी न आऊं तो सचमुच तुम पर ज्यादती हो जाएगी। लेकिन भाई, तुमने मकान बनाया कहाँ है?’

नवल किशोर भौंचक रह गया, ‘केडिया साहब…आप मजाक कर रहे हैं या सचमुच नहीं जानते?’

‘अरे यार, मैं मजाक क्यों करने लगा…मेरा यह टाइम तो भाग कर दुकान पहुँचने की है।’

‘आपका दो मिनट और चाहूँगा केडिया साहब…जरा सा आप मेरे साथ अपनी छत पर चलें।’

छत पर आ गया अभिराम केडिया। सुबह के इस पहर में छत से आसपास का मंजर एक गजब की सुखद अनुभूति भरने लगा उसके भीतर। उसे याद नहीं कि इस बेला में वह छत पर कब आया था।

नवल किशोर ने अपनी उंगली के इशारे से बताया, ‘वह सामने लगभग चार सौ गज दूर जो नया घर दिख रहा है, वही मेरा घर है।’

अभिराम आँखें फाड़ कर वह चमचमाता हुआ नया दोमंजिला मकान देखता रह गया। उसके घर के इतने पास एक बड़ा मकान बन गया और उसे पता भी नहीं चल पाया! उसने चारो ओर घूम कर पूरे मोहल्ले पर अपनी एक सरसरी नजर दौड़ायी…अरे यह अमलताश का पेड़ गुप्ता जी के घर में तो नहीं था और शर्मा के लॉन में इतना लंबा यूकिलिप्टस कहाँ से आ गया? तिवारी जी की खिड़की से एक लड़की और उसके सामने ठाकुर जी की खिड़की से चिपके एक लड़के के बीच ये क्या इशारेबाजी हो रही है? ये दोनों हैं कौन? एन के ने बताया कि लड़की तिवारी की बेटी है और लड़का ठाकुर जी का बेटा है। दोनों में बहुत दिनों से इश्क चल रहा है। अभिराम ठगा रह गया…तो ये दोनों इतने बड़े हो गए? लग रहा था जैसे कल ही उसने दोनों को तीन-साढ़े तीन फुट की लंबाई में गली में एक गेंद के लिए झगड़ते देखा है। नीचे की गलियों में टेलीफोन के तार जाल की तरह कब फैल गए? मतलब अधिकांश घरों में टेलीफोन पहुँच गया!

उसे लगा जैसे कई साल बाद वह विदेश से लौटा हो… जबकि वह लगातार अपने इसी मकान के बीचवाले तल्ले में कायम रहा जो इस छत से महज छत्तीस पायदान नीचे है। ऐसा भी नहीं है कि वह छत पर इस बीच आया नहीं। गर्मियों में तो अक्सर बिजली गुल के समय छत पर ही सोया लेकिन बिजली आते ही आँख मलते हुए सीधे नीच उतर गया। कभी जरूरत नहीं समझी कि दो-एक मिनट ठहर कर आसपास निहार लें। पहले तो एक-एक परिवर्तन पर उसकी निगाह रहती थी। आखिर जीने का यह कौन-सा ढंग उसने कब अख्तियार कर लिया ? उसने मन ही मन विचार किया कि कभी फुर्सत में इस पर सोचेंगे। अभी तो दुकान पहुँचने की जल्दी है। उसने घड़ी देखी…ओ माई गॉड! आठ बज गए! साढ़े आठ बजे उसे दुकान पहुँचना है वरना कई होल सेल कस्टमर वापस हो जाएँगे।

‘एक्सक्यूज मी एन के, मुझे देर हो रही है।’

फटाफट वह नीचे उतर गया। नाश्ते के टेबुल पर प्रेरणा और फुन्नू बैठे थे। उसने जल्दी-जल्दी एक-दो पराठे चबा लिए और बिना चाय पिये ही बैग उठा लिया। जाते-जाते ठिठक कर उसने कहा, ‘तो तुमलोगों ने डाँट खाने के डर से मुझे रात में हाथ टूटने के बारे में याद तक नहीं दिलाया। लेकिन मुझे फिर भी सारी खबर हो गई।’

हाथ लहराते हुए वह चला गया। प्रेरणा सन्न रह गई। मतलब अब अपने परिवार के बीच संवाद और सूचनाओं के आदान-प्रदान भी एजेंसी के ही मार्फत होंगे!

प्रेरणा को अपने भाई की शादी में इंदौर जाना था। पिता की दो-तीन चिटि्ठयां आ गई थीं। उन्होंने लिखा था कि हम यह सौ प्रतिशत मान कर चल रहे हैं कि तुम अभिराम को साथ ले कर आ रही हो। वे शायद जानते थे कि अभिराम को ले आना आसान नहीं है। ठीक यही हुआ। उसने इनकार करते हुए प्रेरणा को समझा दिया।

‘तुम जानती हो कि मेरा जाना कतई मुमकिन नहीं है। मैं ज्यादा से ज्यादा शादी में एक दिन के लिए आ सकता हूँ। लेकिन तुम इत्मीनान रहो, तुम अकेली नहीं जाओगी। एन के को मैं आज ही फोन कर देता हूँ, वह कोई रिलायबल लड़का तुम्हारे साथ भेज देगा।’

प्रेरणा ने बड़े बुझे मन से कहा, ‘पापा इसका बहुत बुरा मानेंगे। एक बार मम्मी को मामा ने अपने नौकर के साथ इंदौर भिजवा दिया था। पापा गुस्से से एकदम लाल हो गए थे…तुम्हारे भाई को इतनी भी फुर्सत नहीं मिली कि अपनी बहन को खुद से पहुँचा दें। रिश्तेदारी में और रखा ही क्या है ? इन्हीं छोटे-छोटे निर्वहनों से रिश्ते की सघनता का अनुमान होता है। हम समझ गए कि तुम्हारा भाई तुम्हें कितना महत्व देता है।’

‘तुम्हारे पिता ने ऐसा कहा और उनका यह खयाल है कि साथ आने-जाने से ही रिश्तों में निहित घनिष्टता उजागर होती है तो यह जरूरी नहीं कि वे सही थे और तुम्हारे मामा गलत थे। मैं तो कहूँगा कि बदलते वक्त के अनुरूप तुम्हारे मामा की समझ ही ठीक थी। मेरा अपना निर्णय तो इस वाकिए को सुन कर और भी पुख्ता हो गया है। मल्टीपरपस के लड़के के साथ तुम्हारा जाना कहीं से भी अनुपयुक्त नहीं है। हो सकता है तुम्हारे मामा के नौ कर में कुछ अपात्रता रही हो लेकिन मल्टीपरपस आज एक रेपुटेटेड ब्रैंड का नाम है। इसके लड़के तत्पर, शिक्षित और समर्पित हैं। रास्ते में तुम्हारे सहूलियत का खयाल जितना वे रख सकेंगे, शायद उतना मैं भी नहीं रख सकूँगा।’

इतने ठोस अनुशंसा और प्रस्तावना के बाद प्रेरणा के कुछ भी कहने का न कोई फायदा था, न कोई औचित्य। उसने अपनी मूक सहमति दे दी। मल्टीपरपस के लड़के के साथ ही वह चली गई इंदौर।

बाद में ऐसा हुआ कि अभिराम शादी में भी एक दिन के लिए न जा सका। दो दिन पहले उसकी मां आ गई बीमार हो कर मामा घर से। वह भी अपने भतीजे की शादी में गई हुई थी और बहुत दिनों तक वहीं पड़ी रह गई। अभिराम फोन से पूछता तो कह देती कि मुझे यहीं मन लग रहा है। वह अपना ज्यादातर समय तफरीह, तीर्थाटन और रिश्तेदारों से मेलजोल में ही बिता देने की अभ्यस्त रही थी। साथ आने-जाने के लिए कुछ लोगों का एक ग्रुप मिल गया था। मामा के यहाँ जब इलाज के बावजूद तबीयत बिगड़ती गई तो मामला नाजुक समझ कर मामा ने उचित समझा कि उसे यहाँ पहुँचा दिया जाए। अभिराम ने तत्काल मां को सबसे महंगे नर्सिंग होम में भर्ती करा दिया। डॉक्टर ने बताया कि उसे जॉन्डिस हो गया है। तीसरे दिन वह रात में चल बसी।

उसने अपनी मां के पार्थिव शरीर को घर लाना जरूरी नहीं समझा। प्रेरणा घर में होती तो शायद लाने का कुछ मतलब होता। सुबह स्थानीय अखबार में अंतिम संस्कार की सूचना छपवा दी गई। मोहल्ले में भी कुछ लोगों को फोन से सूचित कर दिया गया।

अर्थी निकालने का समय जब हो गया तो पड़ोस के सिर्फ तीन आदमी ने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी। अभिराम को किसी ने याद दिलाया कि आज भारत और पाकिस्तान के बीच एक अति रोमांचक और संघर्षपूर्ण क्रिकेट मैच हो रहा है, जिसके प्रसारण देखने के लिए लोग अपने-अपने टीवी सेट से चिपके हुए हैं।

अभिराम को आभास हो गया कि अब और कोई नहीं आएगा। इन चार-पांच वर्षों में आखिर वह भी तो किसी की शवयात्रा या श्राद्ध में शामिल नहीं हुआ।

उसने मल्टीपरपज को फोन मिलाया और कहा कि शवयात्रा निकालने के लिए अविलंब दस लड़कों को भेज दे।

आधे घंटे में दस लड़के हाजिर हो गए। पड़ोस के जो दो-तीन जन आए थे, अभिराम ने उनकी भी छुट्टी कर दी, ‘बेकार आप लोग जहमत क्यों उठाएँगे…लड़के आ गए हैं, काम हो जाएगा। आने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया।’

लड़कों ने मिल-जुल कर अपने कंधों पर अर्थी उठा ली और ट्रक पर लोड कर दिया।

श्मशान-घाट पर लकड़ी से भी जलाने का प्रबंध था और विद्युत शव-दाह गृह भी था। लकड़ी में पूरी तरह जलाने के लिए तीन-चार घंटे का समय चाहिए था। उसने फर्नेस को ही उचित समझा। कोई झंझट भी नहीं और पौन घंटे में काम समाप्त।

अभिराम ने एक डब्बे में अस्थि-भस्म ले लिया और उसे मल्टीपरपज के लड़कों को सुपुर्द करते हुए हिदायत कर दी कि वे कल ही जा कर इन्हें चार प्रमुख नदियों में विसर्जित कर दें।

प्रेरणा जब वापस आई तो माँ की मृत्यु के बीस-पच्चीस दिन हो गए थे। उसे इसकी अब तक कोई जानकारी नहीं थी। आने के सात-आठ दिन बाद मल्टीपरपज की ओर से एक बिल आया, जिसमें ‘बिल फॉर फ्यूनरल प्रोसेशन’ लिखा हुआ था। पूछने पर लड़के ने उसे पूरी जानकारी दी। वह हैरान रह गई…माँ के मरने की खबर भी उसे एजेंसी से मिल रही है! अभिराम ने फोन करने की या यहाँ आ जाने पर भी खुद से बताने की कोई जरूरत नहीं समझी? क्या माँ का मरना भी आज के वक्त में एक मामूली वाकिया हो गया?

सास बहुत मानती थी उसे और जाने के समय उसने कहा था, ‘जब मैं मायके से लौट कर आऊँगी बहू तो तुम्हें अपने साथ भारत-भ्रमण पर ले चलूँगी। अभिराम तो तुम्हें सामनेवाले पार्क में भी साथ नहीं ले जाएगा।’ प्रेरणा को लगा कि इस घर में अब उसे प्यार करनेवाला कोई नहीं रहा और वह सचमुच बहुत अकेली हो गई। वह जार-जार रो पड़ी।

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