उमेश चौहान
उमेश चौहान

जंगल के राजा चुने नहीं जाते
भय पैदा करने की शक्ति के आधार पर
स्वयमेव नियत हो जाते हैं
जंगल के राजा

कहने को तो जंगल के राजा
न्याय बाँटते हैं
सुरक्षा देते हैं
भूखे-नंगे पेटों की लड़ाई लड़ते हैं
लेकिन कहीं नहीं दिखाई देते वे लोग
जिन्हें अपना अधिकार वास्तव में मिला हो
जीने की स्वतंत्रता मिली हो
जिनकी भूख और नंगापन मिटा हो

जंगल की प्रजा का सुख तो बस
राजा की आँख टेढ़ी होने तक ही सुरक्षित रहता है
सागवन की लकड़ी और तेंदू के पत्तों की तरह
जंगल के राजा देखे जा सकते हैं
प्रायः लूट-खसोट करते
इज्जत पर डाका डालते
लेवी की बंदरबाँट के लिए
राँची, कलकत्ता और ढाका तक की सैर भी
अक्सर कर आते हैं जंगल के राजा

See also  हम सभ्य लोग | दीपक मशाल

पंचतंत्र के किस्से की तरह
जंगली बस्तियों के मोटे-तगड़े जानवर
बारी-बारी से पेश होते हैं
डरे-सहमे उनके सामने
ताकि भरा रहे पेट उनका
और लोग बेतरतीब ढंग से न बनें उनका शिकार
हुकूमत के हाथी प्रायः उन्हें अनदेखा कर
कन्नी काटकर निकल जाते हैं उनके रास्तों से
जब भी कोई चालाक खरगोश
राजा की माँद तक जाकर भी
बच जाता है जिबह होने से
और चालाकी से फँसा देता है उसे
किसी अंध-कूप में
या प्रतिवाद करता है उसके फरमानों का

See also  गाली-2 | प्रमोद कुमार तिवारी

तो ऐसे में
जंगल के राजा की फौज
जमकर प्रतिकार लेती है
अपना परचम ऊँचे तान
क्रांति के नगाड़े बजाकर
वह भरी बस्तियों में खून की होली खेलती है
जैसे ऐसे ही किसी मौके के लिए
पढ़े हों उसने क्रांति के सारे कसीदे
जुटाए हों देश-विदेश से मारक हथियार
और की हों शक्ति-प्रदर्शन की सारी तैयारियाँ

See also  प्रतिभाएँ अपनी ही आग में | अविनाश मिश्र

भूखे पेट की आग बुझाने
काम के बोझ से दोहरी हुई कमर को सीधी होने का मौका देने
बुखार से तपते गाँव के बच्चे को दवा या दुआ देने
जमीन से बेदखल लोगों को उनका वास्तविक हक दिलाने
महानगर की बौद्धिक परिचर्चाओं से बाहर निकलकर
अपनी सेना की रणभेरी बजाने
कभी नहीं आते जंगल के राजा
क्योंकि वे स्वयंभू होते हैं
और कभी अपनी प्रजा के द्वारा नहीं चुने जाते।

Leave a comment

Leave a Reply