जब निक्कू ने डुगडुगी की आवाज सुनी तब माँ रसोई में खाना पका रही थी। वह पालने में बँधी रस्सी को खींचते और ढील देते हुए अपने छोटे भाई बिल्लू को झुला रहा था, और साथ ही भूगोल की पुस्तक में टुंड्रा प्रदेश के घर और पक्षियों के बारे में पढ़ रहा था। वह पढ़ाई ऐसे ही करता था। काम के साथ पढ़ाई भी।
आवाज सुनते ही उसके शरीर में हरहराहट हुई, खून में गरमी सी दौड़ने लगी और पैर मचलने लगे। वह काफी समय से इस आवाज का इंतजार कर रहा था। उसने यह जानने के लिए कि बिल्लू पालना रुक जाने से रोना तो शुरू नहीं कर देगा, पालने में बँधी डोर को हाथ में थाम लिया। मक्खियों का एक रेला, जो पालना झूलने से बेचैन था, उसके चेहरे पर चिपक गया। वह कुनमुनाया लेकिन जागा नहीं। उसने राहत की साँस ली। बिल्लू आज अनायास उस पर मेहरबान था। वरना पालना रुकते ही वह भद्दी तरह रोने लगता। पैं पैं। और माँ जहाँ भी होती वहीं से उसे चेतावनी दे देती। वह मन ही मन बिल्लू को पसंद नहीं करता था। उसने उसका खेल का मैदान छीना था। लेकिन आज उसके मन में बिल्लू के लिए ममता उमड़ने लगी। वह पीला, कमजोर और चिड़चिड़ा था। और शायद बहुत दिन जीनेवाला नहीं था। उसने उसके चेहरे से मक्खियाँ उड़ाई और उसे मुँह तक चादर से ढक दिया। बिल्लू सो गया था।
बिल्लू को सुलाकर उसने रसोई में खाना पकाती माँकी ओर देखा। रसोई में धुआँ भरा हुआ था। माँ उसे दिखाई नहीं दी। वह धुएँ में खोई खाना पका रही थी। यह एक मुश्किल खाना था। दरअसल उन दिनों उनका खाना बहुत मुश्किल हुआ करता था…
उसके पिता उन दिनों बेराजगार थे और उसकी तलाश में दर दर की ठोकरें खा रहे थे। वैसे जब वे नौकरी में होते तब भी उनकी आर्थिकी में कोई गुणात्मक सुधार नहीं होता था। उनकी नौकरी बहुत छोटी होती और रोटी बराबर संशय में रहती। और जब वे आर्थिक छलाँग लगाने के लिए कोई छोटा-मोटा धंधा खोल लेते तब तो हालात और भी निराशाजनक हो जाते। उन्हें धंधे से जुड़ी हेराफेरी वगैरह की औपचारिकता पूरी करना नहीं आता था और वे औंधे मुँह गिर पड़ते थे। माँ पता नहीं कैसे कैसे घर चला लेती थी और चला रही थी।
उसे लगा कि यह तप्पड़ में भाग जाने के लिए उपयुक्त समय है। वह तुरंत नंगे पैर दौड़ने के लिए तैयार हो गया। दरअसल उन दिनों उसकी जैसी औकातवालों के पास जूते नहीं होते थे। तब जूते जरूरत नहीं विलासिता थे।
सहसा उसे माँ की सिसकियाँ सुनाई दी। उसके पैर ठिठक गए। माँ इन दिनों रसोई में खाना पकाते हुए सुबकने लगती थी। इसके अलावा वह इतनी व्यस्त रहती कि उसके पास सुबकने का कोई मौजू वक्त ही नहीं होता था। पिछले दिनों उसका बच्चा मर गया था। यह कोई अनहोनी घटना नहीं थी। उन दिनों बच्चे मरते ही रहते थे। लेकिन वह बिना इलाज के मरा था। और देश आजाद हो चुका था। आजाद देश में उसका बच्चा बिना इलाज के मरा था। यह अपराधबोध माँ की सिसकियों में बदल जाता।
यह उस घर में दूसरे बच्चे की मौत थी।
पहले बच्चे की मौत उस दौरान हुई थी, जब उसने शिक्षा के संसार में प्रवेश किया था।
पिता ने उसे अगली सुबह नहा-धोकर अपने सबसे अच्छे कपड़ों में तैयार रहने को कहा था। उसे स्कूल में भर्ती किया जाना था। उसके जीवन का एक नया अध्याय लिखा जा रहा था।
अपने पिता के साथ बेसिक प्राइमरी पाठशाला में हैडमास्टर के कमरे में घुसते ही उसने झुककर उसके पैर छू लिए। बड़ों के पैर छूने का संस्कार उसने बचपन में ही सीख लिया था।
हैड प्रसन्न हो गया। बच्चा संस्कारी है। ‘क्या नाम हे रे तेरा?’ उसने पूछा।
‘निर्मल कुमार पांडे, श्रीमान। घर में मुझे निक्कू कहते है।’
मास्टर ने पिता से कहा, ‘खड़ा क्यों है? कुर्सी पर बैठ जा।’
‘आप के सामने कुर्सी पर कैसे बैठ सकता हूँ हुजूर। गरीब आदमी हूँ।’ पिता ने कहा और खड़ा रहा। उसकी बगल में सटकर सुरक्षा ढूँढ़ता वह भी खड़ा हो गया।
‘कोई खेल-वेल खेलता है?’ हैड ने पूछा।
‘नहीं, श्रीमान जी। जब लड़के मैदान में खेलते हैं तब मुझे अपने छोटे भाई को पालने में झुलाकर चुप कराना पड़ता है। वह रोता भौत है। माँ को काम नहीं करने देता।’
‘कोई तमाशा-वमाशा पसंद है।’
‘जी श्रीमान, मदारी, सँपेरे, भालू का तमाशा अच्छा लगता है। हमीद खाँ बंगाली का तो बता नहीं सकता कितना अच्छा लगता है।’
‘लड़का टेचन है। इसे स्कूल में भर्ती किया जा सकता है।’ हैड ने कहा फिर पिता की ओर निगाह घुमाकर पूछा, ‘लड़के की उमर क्या है? इसकी जन्मतिथि?’
पिता हड़बड़ा गया। दरअसल वह काम की तलाश में वह इतना व्यस्त रहता कि अपने बच्चे की जन्मतिथि जैसी मामूली चीजें उसके दिमाग में कोई जगह नहीं घेर सकती थी। ‘जन्मतिथि तो मालूम नहीं। बस इतना याद है कि इसके पैदा होने के कुछ दिनों बाद दूसरा विश्वयु़द्ध शुरू हुआ था। उमर तकरीबन पाँचेक साल की तो होना चाहिए,’ उसने कहा।
‘छै साल से पहले बच्चा स्कूल में भर्ती नहीं किया जा सकता।’
‘मास्टरजी इसकी उमर छै ही लिख लें।’
‘ठीक है। मैं इसकी जन्म तिथि चौदह फरवरी उन्नीस सौ उनतालिस लिख रहा हूँ। यह जुलाई पैतालिस है। उमर हुई छै साल पाँच महीना।’
‘मेहरबानी मास्साब।’
‘लड्डू लाया है?’ हैड ने पूछा।
‘जी।’ पिता ने कहा और झोले में से थैली निकालकर मास्टर जी की मेज पर रख दी। उसमें असली घी के चार लड्डू थे। कमरा सुगंधित हो गया। हैड ने मेज की दराज में थैली सँभालकर रजिस्टर निकाल लिया। उसमें विद्यार्थी का नाम, पिता का नाम, उमर और पता वगैरह जानकारियाँ अंकित कर दी। रजिस्टर बंद किया और कहा, ‘निर्मल कुमार पांडे को अलीप में भर्ती कर लिया गया है। ठीक से पढ़ेगा तो छै महीने बाद बे में तरक्की हो जाएगी। और अगले साल पहली किलास में। कल से कलम-दवात, तख्ती और पहली बालपोथी लेकर स्कूल भेज देना। ठीक नौ बजे स्कूल की सामूहिक प्रार्थना होती है। जो बच्चा प्रार्थना के समय तक स्कूल नहीं पहुँचता उसे बेंत खानी पड़ती है और दोबारा देर से आने पर कक्षा में नहीं जाने दिया जाता।’
‘हमारे पास घड़ी नहीं है।’ पिता ने कहा, ‘फिर भी ऐसा नहीं होगा कि यह देर से स्कूल आए। अब यह आपकी शरण में है। बेटा मेरा है लेकिन इसकी चाम आपकी है। यह किसी लायक हो जाए। मैं गरीब आदमी हूँ।’
‘ठीक है। वैसे बच्चों को मारने का मुझे शौक नहीं है। लेकिन जो बच्चे शरारत करते हैं या पढ़ने से जी चुराते हैं, मैं उनकी खाल खींच लेता हूँ।’ हैड ने कहा और मेज पर रजिस्टर की बगल में रखी बेंत को गर्व से देखा।
‘एक अरज और है। स्कूल का सामान खरीदने में दो एक दिन का टैम लग जाएगा। कुछ मोहलत दे दें तो हुजूर की बड़ी मेहरबानी होगी।’
‘ठीक है। कल की छूट है। परसों से स्कूल भेज देना। परसों नहीं आया तो स्कूल से नाम कट जाएगा।’
पिता को स्कूल के सामान की व्यवस्था करने में बहुत दिक्कत हुई। व्यवस्था के लिए उनके पास एक दिन का समय था। तख्ती, बस्ता, भोलका और पहली बालपोथी पुस्तक के लिए एक-डेढ़ रुपए की जरूरत थी और रकम उन दिनों काफी परेशानी में डाल देनेवाली थी। उन्हें कई जगह हाथ-पैर पटकने पड़े लेकिन वे सफल हो गए।
उसके मन में भी स्कूल को लेकर मिश्रित से भाव थे। वह इस बात से तो उत्साहित था कि उसका एक नया जीवन शुरू हो रहा है। जितनी देर वह स्कूल में रहेगा, उतनी देर उसे पालना नहीं झुलाना पड़ेगा और माँ की गालियों से बचा रहेगा। नए लड़कों से दोस्ती होगी और दिन में खाने की छुट्टी में वह उनके साथ खेल सकेगा। तभी जब वह यह सोच रहा होता। उसे मास्टरजी की मेज पर पड़ी बेंत दिखाई देने लगती और पिता के शब्द याद आ जाते – इसकी चाम आपकी है। वह उससे मन हटाने की कोशिश करता, लेकिन बेंत साँप बनकर हवा में अपना फन लहराने लगती…
पिता स्कूल का सामान ले आए। उसने गर्व से उसे देखा। यह उसका निजी संसार था। पड़ोस के एक अनुभवी लड़के ने, जो उसी स्कूल का छात्र था और जो पास कम और फेल ज्यादा होता था, उसे तवे के पिछली ओर की कालिस से तख्ती पोतना, सूखने पर दवात की तली से रगड़ना और स्याही में धागा डुबाकर एक ओर सीधी तथा दूसरी और पड़ी लकीरे खींचना सिखा दिया। स्कूल की औपचारिकताएँ निबटाकर वह अपने छोटे भाई को पालने में झुलाने लगा। पालना झुलाते हुए ही उसने पहली बालपोथी के अक्षरों को सहलाया। वह अनोखी अनुभूति से रोमांचित हो गया। उसे लगा जैसे उसकी बालपोथी के अक्षर कुछ बोल रहे हैं…
अगले दिन वह दो मील पैदल चलकर प्रार्थना की घंटी बजने से पहले स्कूल पहुँच गया। उसके एक हाथ में तख्ती थी जिसके हत्थे में सुतली से भोलका बँधा था। कंधे पर बस्ता लटक रहा था, जिसमें पहली बालपोथी, सरकंडे की कलम और एक पुड़के में थोड़े से भुने चने और और गुड़ का एक टुकड़ा था। उसने निक्कर और मलेसिया की कमीज पहन रखी थी जिसकी कॉलर और कोहनियाँ फटी हुई थी, लेकिन जिन्हें अनाड़ी हाथों से दुरुस्त किया गया था। पैर नंगे थे। उसने जूते नहीं पहन रखे थे।
वह हाथ जोड़े प्रार्थना सभा की उस कतार में शामिल हो गया, जो सबसे छोटी उम्र के बच्चों की कतार थी। हैड मास्टर तानाशाह की तरह हाथ में छड़ी लिए खड़ा था। तीन सहायक अध्यापक बच्चों की कतारें ठीक कर रहे थे। कोई बच्चा झुका होता तो उसकी पीठ पर धौल मारकर सीधी कर दी जाती।
फिर सहायक अध्यापक ने दो बच्चों का नाम पुकारा। पुकारे गए बच्चे शान से आए और बच्चों की कतारों के सामने खड़े होकर प्रार्थना करने लगे। उनके साथ सुर में सुर मिलाकर सभी बच्चे प्रार्थना में शामिल हो गए। इस सामूहिक प्रार्थना में उसने भी हाथ जोड़कर प्रार्थना की।
‘हे परभो अनंद दाता गियान हमको दीजिए
शीघ्र सारे दुरगुणों को दूर हमसे कीजिए…’
प्रार्थना समाप्त होने के बाद भी सभा विसर्जित नहीं की गई। एक एक करके कुछ लड़को के नाम पुकारे जाने लगे। पुकारा गया लड़का बलि के बकरे की तरह हैड के सामने आता और चुपचाप अपनी हथेलियाँ पसार देता। सहायक अध्यापक उसके अपराधों की तफसील बताता और हैड अपराध की गंभीरता के अनुसार उसकी पसरी हथेली पर बेंत से प्रहार करता। मार खाकर लड़का दर्द से कराहते हुए अपनी पंक्ति में जाकर खड़ा हो जाता और उस लड़के की ओर देखने लगता जिसे उसके बाद बेंत की सजा दी जानी होती और मन ही मन प्रार्थना करता कि भगवान इस लड़के को उससे ज्यादा बेंत मारी जाएँ।
वह अपनी लाइन में खड़ा डर से काँप रहा था। लेकिन उसके साथ कोई हादसा नहीं हुआ। उसकी तख्ती ठीक से घुटी हुई थी। उस पर ठीक से लाइने पड़ी थीं। कलम, दवात, वगैरह सब ठीक थे। बाल भी लंबे नहीं थे और नाखून ठीक से कटे हुए थे। सिर्फ उसके पैरों में जूते नहीं थे और कमीज दो एक जगह से धसकी हुई थी लेकिन उसकी मरम्मत की हुई थी। गरीबी तब अपराध नहीं थी। उन दिनों ज्यादातर लोग गरीब थे। उसे कोई सजा नहीं मिली। उसने मन ही मन पड़ोस के अनुभवी छात्र के प्रति आभार प्रकट किया, जिसने उसे स्कूल की आचार संहिता के बारे में बता दिया था और जो खुद इस समय हैड से बेंत खा रहा था।
उसके शिक्षा जीवन की यह एक अच्छी शुरुआत थी। लेकिन घर में सब ठीकठाक नहीं था। दोएक हफ्ते के बाद जब वह सुबह स्कूल के लिए निकला उस समय उसका भाई पालने में आनंद में था। उसने स्कूल जाने से पहले उसे पालने में झुलाया तो उसने खुशी में हाथ-पैर चलाए और मुँह से बुलबुले बनाए। पंडितों ने बताया था कि उसकी कुंडली में राजयोग है और यह दीर्घजीवी होगा। इसके ग्रह इतने शुभ हैं कि घर की सारे दरिद्र दूर होंगे और सुख-शांति रहेगी। पिता के लिए तो यह इतना शुभ है कि वह मिट्टी भी छुएगा तो वह सोने में बदल जाएगी।
शाम को वह स्कूल लौटा तो उसका मन पता नहीं कैसा कैसा हो रहा था। मन भारी था और पैर चलने से इनकार कर रहे थे। घर पहुँचा तो सन्न रह गया। खाली पालना आँगन की दीवार से सटा भाँय भाँय कर रहा था। घर के भीतर से औरतों की सांत्वना सुर और माँ की सिसकियाँ आ रही थीं। पिता अपराधी की तरह सीढ़ी की पहली पैड़ी पर थके-हारे बैठे थे। बाड़े में गैंती और फावड़ा पेड़ के तने के पास औंधे पड़े थे। उसे पूछने की जरूरत नहीं हुई। समझ गया कि छोटा भाई लुभावनी अदाएँ दिखाकर रंगमंच से विदा हो गया है और पिता, जिनका चेहरा धूल और पसीने से मटमैला था, उसे दफना आए हैं।
भाई बिना इलाज के मरा था। वह बिना जूतों के स्कूल जाता था।
पता नहीं कितने बच्चे बिना इलाज के मर जाते थे। कितने बिना जूतों के स्कूल जाते थे और कितने स्कूल नहीं जाते थे।
देश तब गुलाम था।
लेकिन गुलामी के खिलाफ लोग लड़ रहे थे। अनशन और भूख हड़तालें कर रहे थे। लाठी और गोलियाँ खा रहे थे। जेल की सीलनभरी अँधेरी कोठरियों में सड़ रहे थे और फाँसी के फंदों पर लटक रहे थे।
छह साल बाद वह पाँचवी कक्षा का स्कूल का होनहार छात्र था। उसे कई बार ब्लैकबोर्ड पर सवाल हल करने पर जिसे कक्षा का कोई विद्यार्थी हल नहीं कर सका था, सहपाठियों के मुँह पर थप्पड़ मारने का सम्मान भी प्राप्त हो चुका था। इतना ही नहीं, कई मर्तबा उसे स्कूल में पीपल की शाख पर लटका घंटा बजाकर छुट्टी का ऐलान करने का अवसर भी मिल चुका था, जिस सम्मान के लिए स्कूल का हर छात्र लालायित रहता था। अध्यापक उसके बारे में भविष्यवाणी करते कि पूत के पैर पालने में ही दिख जाते हैं। यह लड़का किसी दिन देश में नाम कमाएगा।
शिक्षाकाल के इन स्वर्णिमकाल में पाँच बरस बाद घर में फिर हादसा हो गया। दूसरे भाई की मौत के बाद माँ ने जोड़िए बच्चों को जन्म दिया था। उनमें से एक की मौत हो गई। वह भी बिना इलाज के मरा था। देश आजाद हो गया था और वे लड़ाइयाँ खत्म हो चुकी थीं, जो आजादी के लिए लड़ी जा रही थी। उसकी समझ में नहीं आया कि आखिर गलती कहाँ हुई… माँ रसोई के धुएँ में खोई हुई उसकी याद में सुबक रही थी। उसका मन अंदर से पता नहीं कैसा हो गया। शायद ऐसा कुछ मानों भीतर बर्फ की सिल्ली पिघल रही है। उसने चाहा कि माँ के गले में लिपटकर खुद भी रोने लगे। लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकता था। उसके और माँ के बीच तब से ही एक युद्ध चल रहा था, जब से उसका जन्म हुआ था और वह इसके लिए जिम्मेदार नहीं था।
उसे जन्म देने के लिए घर में अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं थी। दादा-दादी नहीं थे। उनके तीन बेटे थे और उनके परिवार थे। पैत्रिक घर और जमीन का टुकड़ा तीन हिस्सों में बँट गया था फिर भी उनके बीच संशय और अविश्वास था और आए दिन झगड़े होते रहते थे जो कई मर्तबा मारपीट तक भी पहुँचते रहते थे। एक नए बच्चे के जन्म के लिए यह कतई खुशगवार माहौल नहीं था।
माँ के पिता अपनी बेटी को प्रथम प्रसूति के लिए गाँव ले गए थे। वे किसी दूरस्थ गाँव में स्कूल अध्यापक थे। गाँव में उनका रुतबा था। जमीन, आम का बाग और कच्चा मकान होने के साथ वे माने हुए ज्योतिषी थे। उनके पास हाथघड़ी और रैले की साइकिल थी, जिसके एक हैंडपंप भी बँधा रहता था।
प्रसूति के लिए घर की सुरक्षित कोठरी चुनी गई, जिसमें हवा आने के लिए कोई जंगला नहीं था। उन दिनों लोग हवाओं से बहुत डरते थे। सुहेली के तकिए के अलाबला से बचाने के लिए एक चाकू रख दिया गया था, जो ऐसा चाकू था जैसा बच्चे मेले-ठेले से खेलने के लिए खरीदते हैं, जिसमें धार नहीं होती। कुल देवताओं के आले में कड़ुए तेल का दीया जला दिया गया था और पुरखों के की कृपा बनी रहने के लिए कोरी धोती उठाने के लिए मिनसली गई थी। आसपास के गाँवों की प्रसूति विशेषज्ञा तेलन रजिया बेगम को दो दिन पहले ही घर में रोक लिया गया था और विनम्रता के साथ उसके नाज-नखरे उठाए जा रहे थे। सुहेली की अछवायान और पंजरी के सामान के साथ आपातकालीन आवश्यकता के लिए घोड़ाछाप रम की बोतल का भी प्रबंध कर लिया गया। याने, आनेवाले मेहमान की अगवानी के लिए सारी व्यवस्था चाक-चौबंद थीं। मौसम भी सुहावना था। बसंत था और सर्दियाँ जा रही थी।
लेकिन सारी सावधानियों के बावजूद प्रसव की रात संकट की रात में बदल गई। सहसा पानी बरसने लगा और रात भर बरसता ही रहा। कच्चा आँगन गारे से भर गया और पहाड़ बर्फ से सफेद हो गए। बारिश बर्फ और ठिठुरती रात में माँ प्रसव वेदना में छटपटाती रही। मौसम के इन आक्रामक तेवर के खिलाफ उसने इस धरती पर पहली साँस ली और पहली बार आँख खोलकर इस अनोखी दुनिया को देखा। एक और हिंदुस्तानी के जन्म ने ठंडी, भीगी और पहाड़ों पर बर्फ गिराती रात को उत्सव में बदल दिया। और जब उसे नहला, नजर न लगने के लिए उसके माथे पर काली बिंदी लगा और दीर्घ जीवन के लिए परिवार के किसी बच्चे के पुराने कपड़े पहनाकर माँ की गोद में दिया गया तो उसका प्रसूति से थका चेहरा गर्व से तन गया। उसकी गोद में उसकी सर्वश्रेष्ठ रचना थी, जिसे उसने नौ महीने तक हर पल और क्षण अपनी मांस-मज्जा और लहू से गढ़ा था।
लेकिन दसठौन के दिन जब आसमान में सूरज चमक रहा था और पहाड़ों की बर्फ पिघल गई थी और माँ हवन की पवित्र अग्नि के सामने अपने पति की बगल में उसे गर्व से गोद में लिए बैठी, गोमूत्र से सुच्ची हो रही थी और पंडित उसकी कुंडली बाँच रहा था, तब सब घोर उदासी में डूब गए। वह मूल नक्षत्र के प्रथम चरण में पैदा हुआ था। उसकी कुंडली ने बताया कि शीघ्र ही जातक के सिर से पिता का साया उठ जाएगा। वह अपने बाद पैदा होने वाले बच्चों का विनाशक होगा और घर को घोर दरिद्रता के कुंड में डुबा देगा। माँ ने सुना तो उसकी ओर से मुँह फेर लिया। ‘इसे किसी को दे दो। मुझे क्या मालूम था, मैं अपनी कोख में अपने सुहाग को डसनेवाले नाग को पाल रही।’
‘कोई उपाय?’
‘इस नक्षत्र में गोस्वामी तुलसीदास पैदा हुए थे। उन्हें त्याग दिया था। इस अनिष्टकारी बच्चे को भी त्याग दिया जाना श्रेयसकर रहेगा।
ननिहाल में सभी की यही राय थी। अपने सुहाग की रक्षा के लिए माँ की भी। वह उस समय माँ की गंध के अलावा इस दुनिया के बारे में कुछ भी नहीं जानता था लेकिन उसके खिलाफ एक पूरा तंत्र सक्रिय हो चुका था जो उसे घर से निकालने पर आमादा था। सिर्फ पिता नहीं माने और गलती यहीं हो गई।
जैसे कोई नहीं जानता वैसे ही वह भी अपने जन्म और उसके साथ जुड़ी कहानी के बारे में कुछ भी नहीं जानता था। लेकिन जब उसे शब्दों और भाषा का ज्ञान होने लगा तब उसे नाना-नानी, माँ वगैरह से टुकड़े टुकड़े जानकारियाँ होती रहीं। और हर जानकारी के बाद उसे लगा कि वह बच्चे की तरह नहीं किसी अपराधबोध की तरह बड़ा हो रहा है…
‘अगर तेरे पिता उस समय मोह न करके तुझे किसी को दे देते तो तू भी ठीक रहता और इस घर को भी ऐसे गर्दिश के दिन नहीं देखने पड़ते।’ माँ अकसर उसे ताना देती।
माँ की बात सुनने पर वह अपने को अपराधी मानने लगता।
पिता ने उसे निष्कासित नहीं किया और घर ही नहीं पूरी दुनिया ही संकटग्रस्त हो गई। उसके जन्म के कुछ महीनों बाद ही विश्वयु़द्ध शुरू हो गया। और अभी वह साल भर का ही था कि पिता इतने बीमार हुए कि उनके बचने की कोई उम्मीद नहीं रही। घर पूरी तरह डगमगा गया। माँ को बस यही लगता कि बच्चे के दुष्ट ग्रह उसका सुहाग छीनकर ही रहेंगे। वह जैसे अपनी आस्तीन में अपने सौभाग्य को डसनेवाले साँप को पाल रही है। कई बार वह इतनी भयातुर उत्तेजना में होती कि उसका गला घोंट दे। ये नहीं रहेगा तो मारक ग्रह भी नहीं रहेंगे। लेकिन कोई भी माँ ऐसा नहीं कर सकती… पिता का वैद्य से इलाज कराने के साथ मृत्युंजय जप भी हो रहा था। एक बार फिर भविष्यविदों, ज्योतिषियों और पंडितों ने उसकी कुंडली का बारीकी से अध्ययन किया और चेतावनी दी बच्चा घर में रहेगा तो इसके पिता की हानि को रोका नहीं जा सकता। जितनी जल्दी हो सके इसे किसी को दे दो। लेकिन पिता ने फिर इनकार कर दिया। उन दिनों वे मिनर्वा टॉकीज में सहायक मशीनचालक थे। उन्होने कहा, ‘सर्दियों में जब पहाड़ बर्फ से ढक जाते हैं और हवा ठंडे खंजर की तरह शरीर को काटती है, उन ठंडी रातों में गरम कपड़ों की कमी से मैं काँपता हुआ अपने काम से लौटता हूँ, उस ठंड से मेरे फेफड़ों में सूजन हुई और मैं बीमार हुआ। इसमें इस बच्चे का नहीं, गरीबी का कसूर है। आइंदा मैं यह बात न सुनूँ…’
पिता के इनकार के बाद माँ ने अपने हाथ की चूड़ियों की ओर देखा। पता नहीं ये कब तक इन कलाइयों में हैं। और फिर सच्चे मन से भगवान की मूर्ति के सामने प्रार्थना की, ‘इसके दुष्ट ग्रहों को शांत करो प्रभू और मेरे सुहाग की रक्षा करो। इसके पिता की इच्छा के विरुद्ध मैं इसे मैं घर से बाहर नहीं कर सकती। पर संकल्प करती हूँ, इसे अपना बेटा नहीं मानूँगी।’
माँ की प्रार्थना सुनी गई। पिता छह महीने बिस्तर पर रहने के बाद ठीक हो गए। इस दौरान वे अपनी नौकरी खो चुके थे। और वह अपने घर में अपनी जगह खो चुका था। वे किसी नई नौकरी की तलाश में दर दर की ठोकरें खा रहे थे। उन्हें नौकरी नहीं मिल रही थी। वह माँ की भर्त्सना और अवहेलना सहते हुए उसका मन जीतने की कोशिश कर रहा था। उसे अपना बचपन नहीं मिल रहा था।
फिर घर में दूसरा बच्चा आया। तो वह खेल और खेल का मैदान और दोस्तों को भूलकर उसे पालने में झुलाने लगा। उसकी कुंडली में राजयोग, दीर्घ आयु, घर की दरिद्रता को दूर करनेवाले शुभ ग्रहों का संयोग था। उसका अपना जन्म परिवार के शोक गीत की तरह हुआ था। इसका जन्म परिवार का उत्सव था। जैसे बर्फीले गहन अंधकार में अँधेरे को काटता और बर्फ को पिघलाता सूरज निकला हो। अब उनके अच्छे दिन आनवाले थे। नए के लिए पालना खरीदा गया और वह खेल और खेल का मैदान और दोस्तों को भूल कर उसे पालना झुलाने लगा। पिता के पास घर की आर्थिकी सुधारने की संजीदा योजना थी लेकिन उसे आकार देने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे। माँ सहसा उदार हो गई। उसने अपने गहने दे दिए। गहने बेचकर पिता ने ताँगा-घोड़ा खरीद लिया और सवारियाँ ढोने के लिए एक अनुभवी ताँगाचालक रख लिया। घर देखते ही देखते सतह से ऊपर उठ गया। उन दिनों जब लोगों के पास साइकिल भी नहीं होती थी, वे ताँगे-घोड़े के मालिक थे। लेकिन अंदर ही अंदर घर की कलई उतर रही थी। ताँगाचालक सवार ढोकर जितना भाड़ा लाता उससे ज्यादा उसकी दिहाड़ी और घोड़े के दाने में निकल जाता। और जब एक दिन जब ताँगे का पहिया नाली में फँसा और उसकी वह किल्ली टूट गई, जिसके गिर्द वह घूमता था तो घर की आर्थिक घुरी भी टूट गई। पिता ने हारकर ताँगा किश्तें तय करके चालक को ही बेच दिया। उसने दो एक महीने किश्तें दी और फिर ताँगे के साथ शहर छोड़कर भाग गया।
पिता पूरी तरह टूट गए और माँ हर समय बौखलाई रहने लगी। वह उसे खुश करने की उतनी ही कोशिश करता, जितना उसकी उम्र का बच्चा कर सकता है और हर बार उसका जीवन अधिक कठिन हो जाता। खासकर तक जब इस बच्चे को दूध पिलाना होता, जो राजयोग के साथ पैदा हुआ था। माँ बच्चे के गले में बीप बाँध देती और उसे कटोरी में नमाया दूध और चम्मच थमाकर कहती, ‘मेरे पास तो मरने तक की फुर्सत नहीं है। तू इसे दूध पिला दे। होशियारी से पिलाना, समझा।’
माँ झूठ नहीं कहती थी। उसके पास घर बुहारने, कपड़े धोने, अनाज साफ करने, मसाला कूटने, गाय दूहने, गोबर उठाने, कंडे पाथने, रोटी पकाने, बर्तन माँजने, धिसे कपड़ों की मरम्मत करने, नहाने, पूजा करने वगैरह बेहद काम होते। इनके अलावा वह आस पड़ोस के उत्सवों के भी कुछ काम हथिया लेती और घर के सामने के जमीन के टुकड़े में टिमाटर, मिर्च, बैंगन वगैरह के पौधे लगाने की जुस्तजू में लगी रहती। फूलों से उसे परहेज था, उनकी सब्जी नहीं बनाई जा सकती थी। वाकई उसके पास इतने काम रहते थे कि उसे साँस लेने की भी फुर्सत नहीं होती थी।
यह उसके लिए गहरे संकट का काम होता। नमाए दूध को ठंडा होने में बहुत कम समय लगता और इस बीच बच्चे को चम्मच से पूरा दूध पिलाया जाना होता। वह बहुत सावधानी बरतता लेकिन कई मर्तबा उसका हाथ डगमगा जाता और दूध बच्चे के मुँह में जाने की जगह उसके होंठों से टकराकर गाल पर बह जाता। कई बार बच्चा अपना मुँह हटा लेता या हाथ हिला देता और चम्मच उसकी नाक से टकरा जाता और दूध उसकी किसी आँख में चला जाता। कई बार उसका निशाना अचूक होता तो वह दनादन इतने चम्मच दूध बच्चे के गले में ठूँस देता कि बच्चा दूध उगल देता। ऐसे हर अवसर पर बच्चा किलकारी मारकर चीखने लगता। उसकी चीख सुनते ही माँ अपने हाथ का काम छोड़कर दनदनाते हुए दौड़कर आती। ‘उगट जा, उगट जा मेरी आँखों के सामने से। इतना सा काम भी नहीं होता तेरे से।’ वह उसे झिड़कती और दो चार रैपट उसके चेहरे पर जड़ देती और अपनी धोती के पल्ले से बच्चे का मुँह पोंछकर उसे दूध पिलाने लगती।
वह किसी अपराधी की तरह सिर झुकाकर कोने में खड़ा हो जाता।
कभी वह सफलतापूर्वक बच्चे को दूध पिला देता और कटोरी को चम्मच से बजाकर अपनी खुशी का इजहार करता तो माँ शक करते हुए उसे पूछती, ‘सच बता तूने बच्चे को दूध पिलाया कि खुद पी लिया।’
उसके भीतर कुछ धपधपाने लगता… जैसे भीतर कोई फोड़ा है, और वह फूटने को व्याकुल है।
उसका हर दिन इसी तरह शुरू होता और फिर दिन भर वह माँ का बताया जो भी काम करता तो वो गलत हो जाता। वह गलती पर गाली खाता और कभी गाली के साथ पिट जाता। कई बार वह अपना विरोध दर्ज कराने के लिए भूखा रहने का निश्चय कर लेता। लेकिन जैसे ही माँ उसे खाने के लिए पुकारती, ‘कहाँ मर गया ज्वानमरे, रोटी नहीं खानी।’ वैसे ही उसका निश्चय टूट जाता और वह रसोई में पाटी पर बैठकर ऐसे रोटी खाने लगता जैसे वह रोटी नहीं खा रहा है, रोटी उसे खा रही है…
और जब आर्थिक बोझ से घर की पीठ टूटने के कगार पर होती तो माँ बिफरी हुई शेरनी की तरह उस पर आक्रामक हो जाती। तब उसके भीतर इस नर्कभरी जिंदगी से भाग जाने का विकट दुस्साहस जन्म ले लेता। लेकिन इस अदम्य इच्छा के बावजूद वह कभी घर से नहीं भाग सका। उसके पास जूते नहीं थे। वह बिना जूते ज्यादा से ज्यादा एक-दोमील की दूरी ही तय कर सकता था और वह ऐसा अमूमन करता भी रहता था। लेकिन घर से भागना पकड़ लिए जाने को निःशेष करती वह अलभ्य दूरी होती जिसे बिना जूतों के तय नहीं किया जा सकता था…
वह न कभी भूख हड़ताल कर सका और न घर से भाग सका। जिंदगी अपनी गति से ऐसे ही धिसटती रही। आश्चर्य की बात यह थी कि इस उपेक्षित और अपमान भरी जिंदगी में वह सपने भी देख लेता जो उसे आसन्न संकटों से मुकाबला करने की ऊर्जा से भर देते।
ऐसा तब होता जब हमीद खाँ बंगाली मुहल्ले के तप्पड़ में अपना तमाशा दिखाता। वह रूमाल को हवा में लहराता और रूमाल कबूतर में बदल जाता। कागज को टुकड़े टुकड़े करके निगल जाता और फिर मुँह से साबुत कागज निकालता और निकालता ही जाता। गिलास में पानी भरता और पानी गायब हो जाता। ऐसे ऐसे पता नहीं कितने हैरतअंगेज तमाशे कि आँखें फटी रह जातीं। लेकिन सबसे बड़ा जादू उसे वह लगता जब वह अपने जमूरे के नाक, कान और बगल से सिक्कों की बरसात करता।
और हमीद खाँ बंगाली का जमूरा! अरे साहब उसकी तो बात ही क्या?
वह लगभग उसकी उमर का था। सलवार कमीज पहनता और सिर पर मेहरून टोपी सजाता, जिस पर लंबा काला फुंदना लटकता रहता जो उसकी हर भाव-भंगिमा के साथ इधर-उधर नाचता रहता। वह दर्शकों को इतना हँसाता कि हँसते हँसते उनके पेटों में बल पड़ जाते। उसमे मासूमियत और चालाकी का ऐसा मिश्रण था कि दोनों में फर्क करना संभव नहीं होता था। समाँ बाँधने, भीड़ जुटाने और शब्दों के जादू से भीड़ के विवेक को तर्कहीन कर देने की उसमे अद्भुत महारत थी।
हमीद खाँ बंगाली के पास हैरतअंगेज जादू था। और जमूरे के पास मोहित कर देनेवाली विलक्षण वाक् कला थी।
दोनों ही इस तमाशे की जरूरत थे। वह इस तमाशे में आग की लपटों के से बीच से कूद जाने का जोखिमभरा खेल भी दिखाता था। लेकिन यह तमाशा हमीद खाँ बंगाली का तमाशा था। जमूरे का नहीं… जमूरा इस तमाशें खुद एक तमाशा था। उसका कोई नाम नहीं था। वह बस एक जमूरा था…
हमीद खाँ बंगाली का तमाशा उसे अविश्वसनीय अचंभे से भर देता और जमूरे की भंगिमाएँ उसे हँसी से लोटपोट कर देतीं। और जब वह हँसता तो उसे हैरानी होती कि वह हँसना भी जानता है…
तमाशा खत्म होने के बाद वह खड़ा रहता और भीड़ छँटने का इंतजार करता। भीड़ छँट जाती तो वह दबे पैर तप्पड़ के उस हिस्से में जाकर उसे शिद्दत से खंगालता जहाँ हमीद खाँ बंगाली ने जमूरे के नाक कान और कपड़ो से सिक्के बरसाए थे। बहुत ढूँढ़ने पर भी उसे सिक्के नहीं मिलते थे। फिर भी वह हताश नहीं होता था। मन ही मन निश्चय कर लेता कि वह अगले तमाशों के बाद तब तक अपनी खोज जारी रखेगा जब तक उसे सिक्के नहीं मिल जाते। उसके हाथ में कभी कोई सिक्का नहीं रहा जिसे वह खर्च कर सके। लेकिन वह सिक्कों की ताकत जानता था। उनके अभाव में ही घर का यह हाल था और वह ऐसी जिंदगी जी रहा था…
तमाशा चला जाता लेकिन उसका जादू उसके दिमाग में चलता रहता। वह उसके सपनो तक फैल जाता। वह उसके ही सपने देखता और लगातार वे ही सपने देखता रहता। उन सपनों में जमूरा नहीं, हमीद खाँ बंगाली होता। और हमीद खाँ बंगाली वह खुद होता। उसके हाथ में एक काल रूलर होता, जिसे वह हवा में घुमाता और झनझन सिक्के बरसने लगते। भीड़ की जगह बस माँ होती। वह पागलों की तरह सिक्के बटोरकर ब्लाउज के भीतर भरती जाती… फिर धोती के पल्ले में… फिर आलों में, ताखों में… पता नहीं कहाँ कहाँ… जहाँ जगह मिले वहाँ… वह सारे सिक्के बटोर लेती और खेल खत्म हो जाता तो वह हमीद खाँ बंगाली से निक्कू में बदल जाता। माँ उसे अपनी बाँहों में भरकर सुबकने लगती जैसे किसी अपराध के आत्मबोध में सुबक रही हो…
फिर वह स्कूल जाने लगा। उसके शरीर का एक हिस्सा और मस्तिष्क का बहुत बड़ा हिस्सा स्कूल हो गया। जब वह पिता के साथ दाखिले के लिए स्कूल गया था, तब जिबह किए जानेवाले बकरे की तरह सहमा हुआ था, जिसकी आँखों के सामने पत्थर पर घिसकर वह छुरा पैना किया जाता है जिससे उसे जिबह किया जाना है। पड़ोस के अनुभवी लड़कों ने स्कूल की ऐसी ही छवि उसके दिमाग में बनाई थी। और फिर पिता के हैडमास्टर के कहे सनातन शब्दों ने कि अब इसकी चाम आपकी है, उस छवि में आतंकित करनेवाले भयावह रंग भर दिए थे। लेकिन जब उसके हाथ में पहली बालपोथी आई और उसके अक्षरों ने उसकी उँगली को पोरों में कुछ कहा, जिसे स्कूल ही उसे बता सकता था, वे क्या कह रहे, उसके मन में भय के साथ स्कूल के प्रति कहीं एक ललक भी पैदा हो गई। तख्ती को कलिस से पोतते, दवात की तली से घोटने और उस पर भोलके की खड़िया में धागा डूबाकर एक तरफ खड़ी और दूसरी तरफ पड़ी लकीरे खींचते हुए उसे आनंद आने लगा। जैसे वह कुछ रच रहा है। एक निष्कासित दुनिया में जैसे बस्ते, कलम दवात, किताब और तख्ती की उसकी अपनी दुनिया बसती जा रही है। स्कूल उसे घर की ज्यादतियों में सुकून और सुरक्षा देते अभ्यावरण की तरह लगने लगा।
जब तख्ती पर अध्यापक के चाक से लिखे अक्षरों पर कलम फेरकर अभ्यास करने के बाद उसने पहली बार बिना सहायता के खुद अक्षर लिखे तो वे इतने सुथरे और संतुलित थे कि अध्यापक चकित हो गया। और जब गुरूजी ने उसे शाबाशी दी तो उसकी आँखें नम हो गई। पहली बार उसे किसी ने शाबाशी दी थी। यही शाबाशी थी जिसने उसे अपनी कक्षा और अगली कक्षाओं का सबसे योग्य विद्यार्थी बनाती चली गई थी।
ये छह बरस पहले की बात है। तब वह अलीप का छात्र था। अब वह बेसिक प्राइमरी पाठशाला की सबसे बड़ी क्लास पाँचवी का सबसे योग्य विद्यार्थी है। उसके अध्यापकों को विश्वास है कि वह बोर्ड की परीक्षा में प्रथम आएगा और स्कूल का नाम रोशन करेगा। उसका आत्मविश्वास जाग गया है और वह नए ढंग से सोचने लगा है।
दिन में खाने की छुट्टी में स्कूल के सामने सड़क पर चलता फिरता बाजार सज जाता। जहाँ बर्फ के रंगबिरंगे गोले, आमपापड़ और चूरण, बुढ़िया के बाल, कुल्फी, शरबत वगैरह बेचे जाते और एक बूढ़ा बच्चों को ललचाकर ठगने के लिए लाटरी की बिसात बिछा देता। हाफ टाइम की छुट्टी का घंटा बजते ही कुछ बच्चे इस बाजार की ओर दौड़ पड़ते और कुछ अलग अलग टोलियों में विभिन्न खेल खेलने लगते।
वह इन दोनों से निरपेक्ष चुपचाप सड़क के उस मोड़ की तरफ चला जाता जहाँ एक घेर में कुम्हारों के मिट्टी के कुछ घर थे। वहाँ की गतिशीलता उसे बहुत मोहित करती। कहीं खच्चरों से मिट्टी उतारी जा रही होती। कहीं मिट्टी कूटी, छानी और आटे की तरह गूँथी जा रही होती। कहीं चाक पर मिट्टी के बर्तन बन रहे होते। कहीं भट्टी पर मिट्टी के बर्तन पक रहे होते… कुम्हार चाक की किल्ली पर मिट्टी का लौंधा रखाता और एक डंडे से चाक घुमाता और उसके हाथ मिट्टी के लौंधे के शीर्ष से रूपाकार गढ़ते जाते। पतली सी डंडी में बँधे पानी में डूबे घागे से वह लौंधे के शीर्ष से रूपाकार को अलग करके सजाता जाता। वह अपलक देखता रहता और उसके दिमाग में द्वंद्व चलने लगता। जादू कुम्हार की कलाई, हथेली, उँगलियों और नाखूनों में है, जो मिट्टी को विभिन्न रूपाकारों में बदलता है, या हमीद खाँ बंगाली के पास है जो रूमाल को कबूतर में बदल देता है, जो कभी उड़ता नहीं और सिक्के बरसाता है जो खोजने पर कभी मिलते नहीं। कुम्हार के इन रूपाकारों को वह छू सकता है और उपयोग में ला सकता है…
एक दिन कुम्हार ने हाथ रोक कर उससे पूछा, ‘बच्चे तू कौन है, और रोज यहाँ आ कर क्या देखता रहता है?’
उसका चाक और चाक के केंद्र में रखा मिट्टी का लौंधा घूमता रहा। लेकिन मिट्टी से रूपाकार बनने बंद हो गए।
‘मैं बेसिक प्राइमरी पाठशाला में पढ़ता हूँ,’ उसने जवाब दिया, ‘दिन में खाने की छुट्टी में स्कूल के सामने चलता-फिरता बाजार सज जाता है। कुछ बच्चे उस बाजार की ओर दौड़ जाते हैं। बाकी लड़के स्कूल के मैदान में कई तरह के खेल खेलने लगते हैं। मेरी जेब में पैसे नहीं होते। बाजार मेरे लिए बेकार है… मैं यहाँ आकर चाक पर बर्तन बनते देखने लगता हूँ।
‘तेरे लिए बाजार बेकार है तो तुझे बच्चों के साथ खेलना चाहिए।’ कुम्हार ने घूमते हुए चाक को हाथ से रोकते हुए कहा।
घूमता हुआ चाक रुक गया तो उसे ऐसा लगा मानों जीवन की सारी गतियाँ थम गई हैं। उसे घूमते हुए चाक को इस तरह रोक दिया जाना अच्छा नहीं लगा। लेकिन उसने यह बात कुम्हार से नहीं कही और उसी बात का जवाब दिया जो उसने पूछा गया था। ‘खेल में मैं लद्धड़ हूँ। पढ़ाई में अच्छा हूँ तो सारे बच्चे मुझसे जलते हैं और खेल में इसका बदला लेते है।’
‘ऐसा है, फिर भी खेलने से डरना ठीक बात नहीं है…’
‘लेकिन मुझे यहाँ चाक पर कुछ बनते देखना खेलने से कहीं अच्छा लगता है। और मैं सोचने लगता हूँ कि जादू आपके पास है या हमीद खाँ बंगाली के पास..’
‘हमीद खाँ बंगाली। अरे वह यहीं तो रहता है। करीब डेढ़ फर्लांग आगे गंदे नाले के मोड़ पर बमपुलिस के सामने उसका मकान है। सुना वह तमाशे दिखाता है, लेकिन मैंने उसका तमाशा कभी नहीं देखा। वैसे हर वो चीज जो रोटी देती है जादू है।’
तभी हाफ टाइम खत्म होने का घंटा बजने लगा। उसने स्कूल की ओर दौड़ते हुए कहा,’ अच्छा किया जो आपने बता दिया। मुझे उसके जमूरे से मिलना है।’
हमीद खाँ बंगाली का घर देखकर उसे ऐसा लगा मानों वह एकाएक आसमान से धरती पर गिर गया है। वह मिट्टी का भद्दा-कच्चा मकान था, जिसके छत की टिने वैसी ही बेतरतीब थी, जैसी उसके अपने घर की थीं, जो तूफान में उड़ जाती थीं और पिता खुद अपने हाथों से ठोकठाक कर उन्हें छत पर बैठा देते थे, लेकिन वे कभी एकसार नहीं होती थीं। मकान का दरवाजा इतना नीचा था कि बिना सिर झुकाए अंदर नहीं जाया जा सकता था और वह कई जगह से सड़ रहा था। बाहरी दीवार पर कुछ बोरे लटक रहे थे और दरवाजे के पास कच्चे आँगन में कुछ पिटारियाँ और टिन के बक्से थे, जिन्हें बारिश से बचाने के लिए एक पुरानी त्रिपाल से ढका हुआ था। शायद इन पिटारियों और बक्सों में जादू दिखाने के काम आनेवाला सामान रहा होगा, जिसके किसी अज्ञात डर से चोरी हो जाने की संभावना लगभग नहीं के बराबर थी। घर के बगल में गंदा नाला खदबदा रहा था और हवा से संड़ाध से भरी हुई थी। आँगन में बिछी कुर्सी पर एक बौनी औरत बैठी थी, जिसकी पीठ में एक बड़ा कूबड़ था। शायद यह हमीद खाँ बंगाली की औरत थी क्योंकि वह जिस कुर्सी पर बैठी थी, उसकी सीट और पीठ पर मोटी गद्दियाँ बिछी हुई थीं और वह उस लड़के को गालियाँ बक रही थी, जो कच्ची नाली की मुंडेर पर तसले में बर्तन माँज रहा था। उसकी भीतर कुछ धपधपाने लगा। मानों कोई फोड़ा है, जो फूटने को व्याकुल है। वह जमूरा था।
दर्शकों को अपनी वाणी से मुग्ध कर देनेवाला जमूरा कुबड़ी-बौनी औरत से, जो एक तानाशाह की तरह बैठी थी, ऐसे झिड़कियाँ खा रहा था, मानों उसके पास जुबान ही न हो…
उन दिनों जब उसने तमाशा देखना शुरू किया था, जमूरा उसे दिलचस्प लगता था लेकिन उसका नायक हमीद खाँ बंगाली था। वह उसके ही सपने देखा करता था, जिनमें वह खुद हमीद खाँ बंगाली होता। लेकिन पाँचवीं क्लास तक आते आते और पचासों तमाशे देखने के बाद उसके मन में हमीद खाँ बंगाली की आभा धूमिल होती चली गई थी। और जमूरा उसके दिल में ज्यादा जगह घेरता जा रहा था। हमीद खाँ बंगाली के पास पाँच-सात खेल थे। इन खेनों को दोहराते हुए वह हर बार दर्शकों की भीड़ नहीं जुटा सकता था। लेकिन जब भी वह अपना खेल खत्म करता, जमूरा आगे दिखाए जाने वाले खेल का ऐसा तूमार बाँधता कि लोग उसी दिन से अगले खेल का इंतजार करने लगते। वह शब्दों का कारीगर था। इसके अलावा वह तमाशे में एक अपना खेल भी दिखाता था, जिसमें वह आग के गोले में छलाँग लगाता था। यह जादू का धोखा नहीं यथार्थ के जोखिम का खेल था। हर तमाशा देखने के बाद उसका यकीन पुख्ता होता चला गया था कि यह भले ही हमीद खाँ बंगाली का खेल कहा जाता है लेकिन इसकी रीढ़ जमूरा है, जिसके बिना यह तमाशा खड़ा नहीं हो सकता। वही जमूरा सिर झुकाए कच्ची नाली के पास बैठा तसले में बर्तन माँज रहा था और कुर्सी पर बैठी कुबड़ी-बौनी उसे गालियाँ दे रही थी। उसका मन जमूरे से बात करने को तड़प रहा था। लेकिन कुर्सी पर बैठी कुबड़ी-बौनी औरत की झिड़कियाँ सहते हुए सिर झुकाए तसले में बर्तन माँजते जमूरे से कोई संवाद मुमकिन नहीं था। उसे देर भी हो रही थी। हाफ टाइम खत्म होने का घंटा कभी भी बज सकता था। वह इस निश्चय के साथ चुपचाप वापिस लौट गया कि वह हर स्कूल दिन हाफ टाइम में तब तक यहाँ आता रहेगा जब तक उसे अकेले में उससे बात करने का मौका नहीं मिल जाएगा।
दो घंटों के बीच की दौड़-भाग के बाद आखीर वह दिन आ ही गया जिसका उसे शिद्दत से इंतजार था।
जमूरा झाड़ू बुहार रहा था और आँगन में कुर्सी नहीं थी। कुबड़ी-बौनी दिखाई नहीं पड़ी तो उसने धीमें से आवाज दी, ‘दोस्त…’
जमूरा के हाथ में थमा झाड़ू थम गया। उसने अचंभे से उसकी तरफ देखा। मानों उसे विश्वास नहीं हुआ।
‘हाँ, तुझसे ही कह रहा…’
‘मुझे! मैं तो जमूरा हूँ। जमूरे का कोई दोस्त नहीं होता।’
‘मैं हूँ, जब से मैंने मेरा तमाशा देखा।’
‘अफसोस! मैं इतनी भीड़ को तमाशा दिखाता हूँ और किसी को पहचानता नहीं। किसी ने मुझे कभी दोस्त भी नहीं कहा। तूने कहा तो पता नहीं मेरा दिल कैसा कैसा हो गया। जैसे वह रोना चाह रहा…’ जमूरे ने कहा और अपना हाथ बढ़ा दिया।
उसने तपाक से उसका करिश्माई हाथ थाम लिया, जिसकी काँख से सिक्के बरसते थे, और गर्मजोशी से उसे हिलाने लगा।’
‘भूल तो नहीं जाएगा? तमाशा दिखानेवाले को कौन याद रखता है..
‘विद्या माँ की कसम। कभी नहीं…’
‘मैं भी तमाशे की कसम खाता हूँ… अब हम पक्के दोस्त हुए। यह दोस्ती कभी नहीं टूटेगी। चाहे कुछ भी हो जाए।’
‘मैं दोस्ती का हाथ बढ़ाने के लिए कई दिन से यहाँ आ रहा था। लेकिन ये कुबड़ी बौनी औरत… वो तुझे गालियाँ दे रही थी और तू सिर झुकाए सुन रहा था। क्या वह नहीं जानती कि तेरे बिना हमीद खाँ बंगाली का तमाशा नहीं हो सकता। और कि तू आग के गोले में कूदता है।’
‘वह मालकिन है। उसने कभी तमाशा नहीं देखा। वो मुझे पसंद नहीं करती। सारे काम करवाती है और गालियाँ भी देती है।’
‘और हमीद खाँ बंगाली?’
‘वह मुझे जान से भी जियादा चाहता है। बस इसी से मैं मालकिन की आँख में खटकता हूँ।’
‘तू डोभालवाले की तरफ तमाशा दिखाने कब आएगा?’
‘दो-एक महीने में उधर का चक्कर लगेगा। वैसे मैं अब जादा दिन तमाशे में नहीं रहूँगा।’
‘क्या कहा? तमाशा छोड़ देगा।’
‘नहीं, तमाशा मुझे छोड़ देगा। लोग तब तक ही जमूरे को पसंद करते है तब तक वह कमसिन है। मेरी उमर उससे बाहर हो रही है… मालकिन का दबाव है और हमीद खाँ बंगाली ऐसे लड़के की तलाश कर रहा जिसे जमूरा बनाया जा सके।’
‘तो फिर…’ उसका गला रुँध गया जैसे किसी ने उसकी छाती पर मुक्का कार दिया।
‘इसमें अभी टैम है,’ जमूरे ने उसे आश्वस्त किया,’ अभी तो कोई ढूँढ़ा नहीं गया। फिर मैं उसे तमाशे की जबान, सलीका और अदाएँ सिखाऊँगा। जब तक वह पक्का जमूरा नहीं बन जाएगा तब तक मैं तमाशा दिखाता रहूँगा। और जब वो पक्का जमूरा बन जाएगा तो मैं कहीं चला जाऊँगा। तमाशे में एक ही जमूरे की जगह होती है।’
‘कहाँ चला जाएगा?’ उसने गमजदा आवाज में पूछा।
‘कह नहीं सकता। मैं यतीम था। मेरा कोई घर नहीं है। इसे ही अपना घर समझा लेकिन अब यह मेरा घर नहीं रहेगा। मैं तमाशे के अलावा कुछ नहीं जानता। पेट के लिए आदमी को कुछ न कुछ तो करना ही पड़ता है। इस्टेशन पर चादर फैलाकर भीख तक माँगनी पड़ जाती है…’
उसने जमूरे के पैरों की तरफ देखा। वह फटे और भद्दे जूते पहने हुए था। उसे यकीन हो गया। वह कहीं जा सकता है। ‘ऐसा हुआ तो…’ उसने कहा, ‘तू कुछ भी कर लेना, चोरी ही सही… पर भीख मत माँगना तुझे दोस्ती की कसम है।’
‘दोस्ती की कसम दी है तो वायदा रहा।’
‘अच्छा दोस्त अब चलता हूँ। हाफ टाइम खतम होनेवाला है। मैं यहीं प्राइमरी पाठशाला में पढ़ता हूँ।’
‘पढऩा भौत अच्छी बात है। अगर मैं भी पढ़ सकता… पर एक मिनट रुक…’ जमूरे ने कहा और घर के भीतर चला गया और हाथ में धातु में मढ़ा और उसी के हत्थेवाला एक गोलाकार शीशा लेकर वापिस आया। ‘यह जादुई शीशा है सूरज को कैद करके यह उसे बिंदू में बदल देता है। ऐसे।’ उसने उसने शीशे को ऊपर नीचे किया और जमीन पर एक बिंदू जैसा सूरज बना दिया। ‘अब यहाँ कागज या सूखी घास रखो तो उसमें धुआँ निकलने लगेगा और फूँक मारने पर आग पैदा हो जाएगी।’
‘यह तो वाकई जादुई शीशा है।’ उसने आश्चर्य से शीशे की ओर देखा।
‘दोस्ती के लिए मैं यह तुझे देता हूँ। स्कूल में लड़कों को इसका जादू दिखाना। बस तू हो गया छोटा जादूगर। अगली बार मैं तुझे जीभ के आर पार होनेवाला सुआ भी दूँगा।’ जमूरे ने शीशा उसकी ओर बढ़ा दिया।
उसे शीशा पकड़ने में झिझक हुई तो जमूरे ने कहा, ‘यह हमीद खाँ बंगाली का नहीं, मेरा है। इसे मैंने नुमाइश में खरीदा था।’
उसने शीशा ले लिया। वह खुश भी था और उदास भी। ‘पर मेरे पास तो तुझे देने के लिए कुछ भी नहीं है।’
‘तो क्या हुआ। तूने दोस्ती का हाथ बढ़ाया मैंने दोस्ती पक्की करने के लिए जादुई शीशा दे दिया। हाँ एक बात है। कल से हम तमाशा दिखाने निकल रहे हैं। दिन में मैं यहाँ नहीं मिलूँगा। अच्छा।’ जमूरे ने कहा और हवा में हाथ उठाकर हिलाने लगा।
उसने भी हाथ हिलाया और स्कूल के लिए दौड़ने लगा। दौड़ते हुए पीछे मुड़कर देखा। जमूरे का हाथ अब भी हवा में लहरा रहा था।
डुगडुगी डग् डग् बज रही थी। उसे अजीब लगा। उसकी आवाज बदली बदली सी थी। पहले आवाज ऐसी होती थी जैसे पानी की लहरों पर तैर रही हो। यह गुलेल से छोड़ गए अंटे की तरह चोट करती सी और सपाट थी। बहरहाल यह ऐलान तो था ही कि हमीद खाँ बंगाली का तमाशा आया है।
जब भी तमाशा आता था, वह माँ से पूछे बिना उसे देखने दौड़ जाता था। लौटने पर डाँट पड़ने की उसे कोई परवाह नहीं होती थी। तमाशा तमाशा है… उसे किसी डर से छोड़ा नहीं जा सकता। इस बार जो तमाशा आया है, उस तमाशे का जमूरा उसका दोस्त है। यह गर्व की बात थी। एक मन उसे तुरंत दौड़ पड़ने को उकसा रहा था। एक मन उसके दौड़ पड़ने को उत्सुक पैरों को थाम रहा था। माँ रसोई में खाना बनाते हुए सुबक रही थी…
उनके बीच बहुत दूरियाँ थीं। माँ उसे फूटी आँखों नहीं देख सकती थी। हर समय डाँटती, फटकारती दुत्कारती रहती थी। वह उसकी परछाईं तक से डरता था। लेकिन माँ का सुबकना… कोई अदृश्य तार है, दोनों उसे जानते नहीं, लेकिन वह दोनों को जोड़े हुए है… वह माँ के लिए सिक्के खोजता था… और मुश्किल दिनों में भी माँ पहले उसे खिलाती, तब खुद खाती और कई मर्तबा बिना खाए रह जाती थी…
उसका मन काऊ-बाऊ हो गया। माँ को ऐसे छोड़कर नहीं जाया जा सकता। वह किसी अज्ञात डोर से बँधा चुपचाप उसके पास चला गया। उसका आँचल पकड़ा, ‘ऐसे नहीं रोते माँ। वह जो चला गया रोने से वापिस नहीं आएगा।’
उसे मालूम था। माँ उसे दुत्कार कर परे हटा देगी। पर सहसा माँ को पता नहीं क्या हुआ उसने उसे बाँहों में भरकर अपने सीने से चिपटा लिया और फफक-फफक कर रोने लगी। उसकी भी रुलाई फूट गई।
वे दोनों पहली बार एक दूसरे के गले में हाथ डालकर रो रहे थे। यह एक छोटा सा लम्हा था लेकिन यह ग्यारह साल लंबा लम्हा था…
पल्ले से उसके आँसू पोछते हुए माँ ने कहा, रो क्यों रहा कमबगत और मुझे भी रुला रहा। डुगडुगी बज रही है तेरा तमाशा आया है। तू तो डुगडुगी सुनते ही सिर पर पैर रखकर दौड़ता था। पूछता भी नहीं था। आज क्या हुआ?’
‘तू रो रही थी, कैसे जाता?’
‘इतनी फिकर है? फिर तमाशे के बाद इतनी देर से क्यों आता था? मैं कितनी बेचैन हो जाती थी… कहीं तू तमाशे के साथ तो नहीं चला गया…’
‘तमाशा खतम होने के बाद मैं उन सिक्को को ढूँढ़ता था जिन्हें जादूगर तमाशे में बरसाता था।’
‘सिक्के!’ माँ अचानक उसके भोलेपन पर हँसने लगी। ‘तू उन सिक्कों का क्या करता?’
‘तुझे देता कि तू मुझे प्यार करे।’
‘माँ का प्यार क्या सिक्को से खरीदा जाता है?’
‘मैने तो बस यही सोचा, तेरे पास सिक्के नहीं है इसलिए… और तो मेरा कोई कसूर नहीं है… मैंने तो हर तरह से तुझे खुश करना चाहा पर तू…’
‘तुझे सिक्के नहीं मिलते फिर भी तू तमाशे में जाने के लिए उतावला क्यों रहता है?’
‘जादूगर के लिए नहीं, सिक्कों के लिए भी नहीं। सब आँखों का धोखा है। मैं अब जमूरे के लिए जाता हूँ। वह तमाशे में खूब झूठ बोलता है। लेकिन तमाशे में वही सच्चा है। इतना हँसाता है कि पेट में बल पड़ जाते हैं। पर मैं जानता हूँ वह खुद कितना दुखी है…’
‘बड़ा वही है जो दूसरे का दुख समझे और जरूरत पर मदद के लिए खड़ा हो सके। जा, तमाशा शुरू होने को है। पर देर मत करना… तेरे लिए मैं वो सौगंध तोड़ रही, जो मैंने कुलदेवता के सामने खाई थी। शायद कोई भी माँ उस सौगंध को नहीं निभा सकती, जो वह अपने बच्चे को बच्चा न मानने के लिए खाती है। एक दिन वह टूट ही जाती है… उसे टूटना ही होता है…’
वह तप्पड़ में पहुँचा और आश्चर्य में पड़ गया जैसे वहाँ एकत्रित सारी भीड़ आश्चर्य में थी।
तमाशे का सारा ताम-झाम था। हमीद खाँ बंगाली भी था। लेकिन जमूरा नहीं था। डुगडुगी जिसे जमूरा नाचते-कूदते बजाता था और उसकी ध्वनि पानी की लहरों पर तैरती सी आती थी, उसे हमीद खाँ बंगाली खड़े हुए बजा रहा था जो ऐसी आवाज निकाल रही थी मानों गुलेल से अंटा फेंका जा रहा हो। सबकी निगाह हमीद खाँ बंगाली पर थी। उसका सिर झुका हुआ था जैसे उसका सारा सत निचुड़ गया हो… उसने डुगडुगी बजानी बंद की और भर्राई आवाज में कहा, ‘मेहरबरनों, कद्रदानों हमीद खाँ बंगाली का सलाम कबूल हो।’
तमाशा शुरू करने से पहले वह ऐसे ही सलाम करता था। पता नहीं उसका सलाम कबूल होता था या नहीं, दर्शकों की ओर से इस सलाम का जवाब कभी नहीं दिया जाता था।
फिर वह शब्द टटोलने लगा या फिर उसे अगले शब्द कहने में तकलीफ हो रही थी। वह हारे हुए शब्द कहने जा रहा था। उसने कहा, ‘आज मैं तमाशा दिखाने नहीं, मदद माँगने आया हूँ। आपका चहेता जमूरा बीमार है। उसके इलाज के लिए मुझे पैसों की जरूरत है। मैं भिखारी नहीं हूँ। तमाशा दिखता हूँ और आप खुश होकर मुझे पैसे देते हैं। मैं कोई माँग नहीं करता। आप जो भी देते हैं उसे सिर झुकाकर माथे से लगा लेता हूँ और आपको दुआ देता हूँ… जो नहीं देते उन्हें भी… आज आप मेरी जो भी मदद करेंगे वह मेरे सिर पर उधार रहेगी। जमूरे के ठीक होने पर मैं तमाशा दिखाकर यह उधार उतार दूँगा। मैं जमूरे की टोपी लेकर आप साहबानों के पास आऊँगा। आप मेहरबानी करके उसमें मदद के लिए जितनी अपकी मर्जी हो उतने पैसे डाल दीजिए।’
उसने हथठेले में लटके थैले से जमूरे की काली फुंदनेवाली मेहरून तुर्की टोपी निकाली, जिसमें पैसे एकत्रित करते हुए उसका काला फुंदना नाचता रहता था। वह इस समय चूहे की पूँछ की तरह लटक रहा था।
तभी भीड़ में से एक आवाज आई। ‘तमाशा नही तो पैसा तो पैसा नहीं।’ यह सिर्फ एक आवाज थी, लेकिन यह भीड़ का सामूहिक प्रतिनिधित्व कर रही थी।
हमीद खाँ बंगाली एकदम जड़ हो गया। उसके हाथ में थमी जमूरे की टोपी और उस पर लटका फुंदना हवा मैं स्थिर लटके रह गए।
वह भीड़ में खड़ा था। उसका दिल हवा में बिखरे सेमल की रुई के रेशों के तरह छिदरा रहा था। उसने इस छोटी-सी उमर में अपने दो भाइयों को बिना इलाज के मरते देखा था। जमूरे के साथ भी ऐसा नहीं होना चाहिए… वह उसका सच्चा दोस्त है।
‘मैं तमाशा दिखाने ही आया था मेहरबानों’, हमीद खाँ बंगाली ने गमजदा आवाज में कहा, ‘जमूरा बुखार में तप रहा था। वह फिर भी तमाशे के लिए तैयार हो गया और हथठेले पर सामान सजाने लगा। मैं मना करता रहा, वह नहीं माना। ‘तमाशा हमारी रोटी है। उसे होना चाहिए।’ उसने कहा और सड़क पर हथठेला निकाल लिया। वही हमेशा उसे खींचता है। वह दो कदम ही चला होगा कि लडखड़ाकर गिर पड़ा। मेरे पास उसके इलाज के पैसे होते तो मैं उसे तुरंत डाक्टर के पास ले जाता। नहीं थे। आपके पास हाथ फैलाने आ गया।’
‘जमूरे की बिमारी का हमें दुख है। लेकिन तेरा और हमारा रिश्ता तमाशा दिखाने और देखने का है। तमाशा दिखा तो इस बार ज्यादा पैसे मिल जाएँगे।’
‘जमूरे के बिना तमाशा नहीं हो सकता। खुदा मालिक है, वही मेहरबान होगा।’ हमीद खाँ बंगाली ने कहा और हताशा में सामान समेटने लगा।
सहसा पता नहीं उसे क्या हुआ। वह आवेश में भीड़ से बाहर निकल कर चिल्लाया, ‘ठैरजा जादूगर। तू तमाशा दिखा। मैं इस तमाशे में जमूरा बनूँगा।’
भीड़ हँसने लगी। हमीद खाँ बंगाली ने मुड़कर हैरानी से उसकी ओर देखा। ‘जमूरा बनेगा? क्या यह इतना आसान है?’
‘हाँ, उसके लिए। तुझे रोजी की कसम है। तमाशे के पैसे से जमूरे का इलाज कराएगा।’
‘खुदा तुझे उम्रदराज करे बच्चे। जमूरा बनना मुश्किल काम है। इसके लिए बहौत टरेनिंग लेनी पड़ती है, तब कोई जमूरा बनता है। और मैं रोजी की कसम खाता हूँ…’
‘मैंने वो सारे तमाशे देखे जो यहाँ हुए और जमूरे को ऐसे पढ़ा जैसे किताब का सबक पढ़ा जाता है। मैं वह सब कर सकता हूँ, जो वह तमाशे में करता है। बस मैं उसकी तरह अदाएँ नहीं दिखा सकता और भीड़ को हँसा नहीं सकता।’
हमीद खाँ बंगाली ने भीड़ से पूछा, ‘क्या हुक्म है मेहरबानो?’
‘ये जमूरा बनने को राजी है, तो तमाशा दिखा।’
‘जमूरेऽऽऽ’ हमीद खाँ बंगाली उसकी ओर देखकर बोला।
‘हाँ, उस्ताज।’ उसने जवाब दिया।
‘जो पूछूँगा, बताएगा?’
‘बताएगा, उस्ताज।’
‘जो कहूँगा, करेगा?’
‘करेगा उस्ताज।’
‘बताएगा कि सामने खड़े पोपले साहबान के मुँह में कितने दाँत हैं?’
‘बताएगा उस्ताज।’
‘तो बता जमूरे दाईं ओर खड़े चारखाने की कमीज पहने साहबान का मुँह क्यों लटका हुआ है?’
‘ये अपनी बीबी से पिटकर आए हैं उस्ताज।’
उसकी आवाज आत्मविश्वास से भरी हुई थी। हमीद खाँ बंगाली को यकीन हो गया कि तमाशा दिखाया जा सकता है। उसने जमूरे की काले फुंदनेवाली मेहरून तुर्की टोपी उसे पहनाते हुए कहा, ‘जमूरे जो साहिबान यहाँ तमाशा देखने आए हैं,उन्हें बता कि मैं कौन हूँ ओर मैं कैसा जादू दिखाऊँगा।’
उसने डुगडुगी बजाते हुए चक्कर लगाया। ‘हिंदुओं को नमस्कार, मुसलमानों को सलाम। मेहरबानों, कद्रदानों आपके मुलक में जादूगरों का जादूगर हमीद खाँ बंगाली अपना जादू दिखाने आया है। वह आपको ऐसे हैरतअंगेज जादू दिखाएगा जैसे जादू आपने कभी नहीं देखें होंगे। तालियाँ बजाकर उसका सुवागत करे साहबान।’
तालियाँ बजने लगी। करलत ध्वनि थमते ही हमीद खाँ बंगाली ने झुककर भीड़ का अभिवादन किया। फिर उसकी ओर अपनी छड़ी से इशारा करते हुए कहा, ‘जमूरे साहबान को वे वायदे बता जो हमीद खाँ बंगाली का खेल दिखाने के लिए जरूरी है।’
‘सुनो, सुनो, मेहरबानों गौर से सुनों हमीद खाँ बंगाली अपना तमाशा तब शुरू करेगा जब आप तीन वायदे करेंगे। पहला, मैं तप्पड़ में जो दायरा बनाऊँगा कोई भी उसके अंदर आने की गुस्ताखी न करे। दायरे के भीतर जादू का असर रहेगा। जो भी उसे लाँघेगा वह नुकसान उठाएगा। दूसरा, कोई भी मेहरबान तमाशा खतम होने से पहले अपने पैरों की मिट्टी न छोड़े। उसे अपने अजीजों की कसम है। और तीसरा, इस भीड़ में कोई जादू विद्या जानता हो तो उससे हाथ जोड़कर प्रार्थना है, वह हमीद खाँ बंगाली के जादू की काट न करे। यह रोजी-रोटी का सवाल है। इस पर भी वह नहीं मानता तो इसका नतीजा भौत बुरा होगा।’
दर्शको से तीन वायदे कराने के बाद उसने छड़ी से एक गोल दायरा खींचा। हमीद खाँ बंगाली ने मंत्र फूँक कर दायरे के भीतर अपना जादू फैलाया और तमाशा शुरू हो गया। ताश का खेल, कागज के टुकड़े चबाकर साबुत कागज निकालने का खेल। गिलास में पानी भरकर उसे गायब करने का खेल। जमूरे की जीभ के आरपार सुआ निकालने का खेल। रूमाल को कबूतर में बदलने का खेल। और भी बहुत खेल और अंत में जमूरे का काँख, नाक, मुँह से सिक्के बरसाने का खेल। इसके बाद तमाशा खत्म होने का ऐलान हो गया। जमूरे ने बख्शीश एकत्रित करने के लिए टोपी उतार कर उसे उलटकर कटोरे की तरह हाथ में थाम लिया। लेकिन इससे पहले कि वह टोपी के कटोरे को लेकर भीड़ में घूमता, वहाँ से एक आवाज आई, ‘तमाशा अभी अधूरा है जादूगर। जमूरे ने आग का खेल नहीं दिखाया। वही इस तमाशे का असली खेल है।’
यह सिर्फ एक आवाज थी। लेकिन पहली आवाज होने की वजह से यह भीड़ की आवाज हो गई।
हमीद खाँ बंगाली ने झुककर इस आवाज की ओर देखते हुए कहा, ‘इस बच्चे के दिल में जमूरे के लिए जगह है। उसकी बीमारी की सुनकर यह उसके लिए जमूरा बना। आप ने देखा ही है। इसने उसका काम कितनी अच्छी तरह अंजाम दिया। मेहरबानों मैं इसे आग के गोले के भीतर से नहीं कुदा सकता। इसके लिए भौत टरेनिंग की जरूरत। यह मेरा जमूरा नहीं, आपका बच्चा है। आप नहीं चाहेंगे कि यह खतरे का खेल खेले और कोई हादसा हो जाए।’
भीड़़ चुप थी। किसी ने न हाँ नहीं कहा और किसी ने मना नहीं किया। चुप्पी से हताश हमीद खाँ बंगाली ने कहा, ‘आप बेशक मुझे बख्शीश न दे। लेकिन यह नहीं हो सकता…’ और वापिस लौटने के लिए हथठेले में सामान इकट्ठा करने लगा।
‘आँकड़े पर छल्ला लगा जादूगर। मैं उसके लिए जमूरा बना। उसके लिए आग को भी पार करूँगा।’
‘आह! बच्चे, मैं ऐसा नहीं कर सकता। तू नहीं जानता आग के भीतर से कूदना कितना खतरनाक खेल है।’
‘जब यह तैयार है…’ भीड़ में से किसी ने कहा, ‘भौत ऐंठ रहा। देखें तूमड़ी में कैसे तीर मारता है?’
हमीद खाँ बंगाली के पास कोई चारा नहीं रहा। उसने धड़कते दिल से तप्पड़ में स्टैंड खड़ा किया। उस पर लोहे का छल्ला लटकाया। उसे दोनो ओर से हुकों में फँसाया ताकि वह अपनी जगह से हिले नहीं। जिधर से कूदा जाना था उसकी दूसरी तरफ एक फटा सा गद्दा बिछाया और ऐतिहात के लिए उसकी बगल में रेत का बोरा और पानी का पीपा रखा। रिंग पर लिपटे कपडे को किरोसिन से भिगाया और माचिस की तिल्ली से उस पा आग लगा दी। लपटें फैलीं और छल्ला आग के सैलाब में बदल गया।
‘बच्चे लपटों को देखकर एक बार फिर सोच ले…’ जादूगर ने कहा।
‘सोच लिया।’ उसने जवाब दिया।
जादूगर आसमान की ओर दोनों हाथ उठाकर खुदा से उसकी सलामती की दुआ करने लगा।
भीड़ स्तब्ध थी। जैसे गहरे अपराधबोध में हो। लेकिन अब खेल को रोकना संभव नहीं था। यह उसकी हार थी।
जमूरा आग के गोले के भीतर कूदने से पहले कई तरह के अभिनय करके दर्शकों को हँसाता था। उसके पास जोखिम, उत्तेजना और तनाव के चरम क्षणों में हास्य उत्पन्न करने की विलक्षण कला थी। कभी वह दौड़ता हुआ आता और डरने का अभिनय करता। कभी आग के गोले से बचते हुए एक ओर से कभी दूसरी ओर से भागता हुआ निकल जाता। और जब दर्शक नाउम्मीद हो जाते कि जमूरा बस हँसाता रहेगा आग के गोले में नहीं कूदेगा तब वह अचानक लपटों को ऐसे पार कर लेता जैसे पानी में तैरा हो। पार बिछे गद्दे पर गिरता और उछलकर खड़ा होता और दर्शकों को सलाम करता, जबकि सलाम का हकदार वह खुद होता…
उसके पास जमूरे की तरह का कोई अभिनय नहीं था। उसने विनम्रता से यह स्वीकार कर लिया था कि वह दर्शको को हँसाने की कला नहीं जानता। उसने ऐसा कोई प्रयास भी नहीं किया और अपनी कमीज उतारी, जो उसके लिए बहुत कीमती थी। फिर सिर से जमूरे की काले फुंदने की महरून तुर्क टोपी निकाल कर कमीज के ऊपर सहेजी। इस टोपी ने तमाशा दिखाने के दौरान उसे गहरे आत्मविश्वास से भर दिया था। इसके अलावा वो उसके दोस्त की टोपी थी, जिसे वह भागते और कूदते समय अपने सिर से जमीन पर गिरने नहीं देना चाहता था। वह अपने भीतर का साहस एकजुट करते हुए चुपचाप खड़ा आग की लपटों को देखता रहा। और जैसे ही उसे लपटों के पार हाथ फैलाए जमूरा दिखाई दिया, वह साँस रोककर दौड़ा और कूदकर आग की लपटों से पार हो गया। गद्दे पर गिरा और विजयी योद्धा की तरह उछलकर खड़ा हो गया।
दर्शकों को कतई विश्वास नहीं था कि वह आग में कूद जाएगा। उसने उन्हें हैरान कर दिया और जीत लिया। तालियों की गडगड़ाहट में उसने अपना कमीज पहना और तुर्की टोपी को कटोरे की तरह हाथ में थामकर उनके सामने से गुजरने लगा। लोग उसे नायक की निगाह से देख रहे थे और उसकी टोपी में पैसे डाल रहे थे। हर दर्शक उसमें पहले जितने पैसे डालता था, उससे ज्यादा पैसे डाल रहा था। इकन्नीवाला, दुवन्नी। दुवन्नीवाला चवन्नी। किसी किसी ने उसमें रुपया भी डाल दिया। भीड़ के सबसे प्रतिष्ठित ने जो उस आसन पर बैठा था, जिसे तमाशा देखने के लिए उसके नौकर ने बिछया था, उसकी टोपी में मुट्ठी भर सिक्के उड़ेलकर उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘शाबाश! लड़के तूने मुहल्ले की नाक बचा ली। ये दस रुपए तेरा इनाम है।’
हमीद खाँ बंगाली हथठेले में तमाशे का सामान भर रहा था। उसने सिक्कों की टोपी उसके हाथ में थमाते हुए पूछा, ‘इतने से हो जाएगा?’
हमीद खाँ बंगाली ने टोपी को हाथ से तोलते हुए कहा, ‘यह टोपी कभी इतनी भारी नहीं हुई, जितनी आज तमाशा दिखाने के बाद आज हुई। उम्मीद है हो जाएगा। वैसे इलाज के बारे में क्या कहा जा सकता है… तेरा शुक्रिया अदा करने के लिए मेरे पास लफ्ज नहीं हैं। खुदा तुझे लंबी उमर दे और बड़ा आदमी बनाए।’
उसके हाथ में दस रुपए का वह नोट था। वह इसे माँ को दे सकता था, जिसके लिए वह तमाशे में बरसे सिक्के खोजा करता था और वे उसे मिलते नहीं थे और वह अपनी खोज तब तक जारी रखना चाहता था, जब तक वे उसे मिल नहीं जाते। इस तमाशे में उसकी खोज पूरी हो गई थी उसे दस रुपए मिल गए थे। इनसे उसका बहुत सा काम सध जाता। वह अपने लिए जूते भी खरीद सकता था, जिनके लिए वह कभी से तरसा था। और भी पता नहीं कितने अटके काम… लेकिन पता नहीं उसके मन में क्या आया। उसने वह नोट भी जमूरे की टोपी में डाल दिया।
‘ये तो तेरा इनाम है…’
‘नहीं, ये जमूरे के लिए है…’
हमीद खाँ बंगाली सड़क पर हथठेला घसीटते हुए जा चुका था। तमाशा खत्म हो गया था और भीड़ छँट गई थी। वहाँ बस वही अकेला रह गया था और तप्पड़ में उस जगह खड़ा था, जहाँ तमाशे में सिक्के बरसते थे और इस बार भी बरसे थे। लेकिन वह सिक्के ढूँढ़ने की जगह सिर झुकाए मन ही मन वे सारी प्रार्थनाएँ बुदबुदा रहा था, जो उसे याद थीं…