जल | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता
जल | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता

(एक)

आरंभ से ही
रखा होगा प्रकृति ने
हर बीज में जल

वनस्पतियों में वनस्पति-जल
खगकुल में खग-जल
मछलियों में मत्स्य-जल
मनुष्यों में मनुष्य-जल
रखा होगा प्रकृति ने
आरंभ से ही

आरंभ से ही जल की लहर है
हमारे पेट में

हमारे पेट में जल की आदिम लहर है
और जल की आदिम लहर में
हमारी आदिम प्यास का
वास है

(दो)

पानी का सुनते
सुनाई देते हैं
‘मम’ कहते शिशु
घुटनों के बल
आयु-प्रवेश करते
लाँघ जाते हैं
भाषा की दीवार
‘मम’ कहते शिशु

‘मम’ कहते शिशु
एकदम आरंभिक नाम से
पुकारते हैं पानी को
और शिशु-कंठ में उतरता पानी
किलक से भर जाता है
औचक सुन –
अपने बचपन के नाम को।

(तीन)

नेह-जल
छलका
उदासी उड़ गई

बरबस हँसा
लड़का

बहुत अच्छा लगा

(चार)

गगरी उठाए स्त्रियाँ
गुनगुनाती या गाती चलती हैं
पानी जितना पुराना गीत
होता है जितना मीठा उनका गीत
उतनी ही कठिनता से आता है
घर की प्यास तक पानी

पानी के लिए खटपट से शुरू होता है
उनका ब्रह्ममुहूर्त
लेकिन वे –
धीरज से-मेहनत से
बचाए रखती हैं
प्यास में शीतलता का अर्थ

जेठ की दुपहरिया में
जल के लिए जाते
जल जाते हैं
उनके पाँव
लेकिन वे – झुलसने नहीं देतीं
प्यासे कंठ

पानी लाती स्त्रियाँ :
प्यासे कंठों का गीत हैं
बहती चली आई हैं
हमारी आँखों में
बचाए हुए पानी को।

(पाँच)

टिमटिमा रहा है
जीवन-दीप
ईंधन है
जल

जल ईंधन है
और जीवन-दीप
टिमटिमा रहा है

(छः)

पानी-पा
महक उठते हैं
परती खेत
चहक उठती है
किसान की घरवाली
पानी-पा

पानी-पा
अशक्त बुढ़िया की आँखों में
भर आता है पानी
नदी –
नदी बन जाती है
पानी-पा

पानी-पा
धरती में सोया बीज
जाग जाता है
नया रूप धरने को
हलचल करने को
फिर-फिर से
धरती में

(सात)

(अमृतलाल वेगड़ के लिए)

बहुत धरती है तुम्हारे भीतर
अमृतलाल वेगड़
इसीलिए वर्षों से बह रही है
नर्मदा
तुम्हारे भीतर अबाध

तुम नर्मदा की परिकम्मा पर हो
कई जन्मों से तुम
नर्मदा की परिकम्मा पर हो

पेड़ों-पहाड़ों-पक्षियों-नदियों से
मनुष्य के रिश्ते को
आवाज दे रहे हो तुम
अंतस् में तुम्हारे
बज रहे हैं
नर्मदा के किनारे

अनवरत है तुम्हारी यात्रा
नर्मदानुरागी
आदरणीय है तुम्हारा लक्ष्य

तुम्हारे लिखे नर्मदा किनारे के वृत्तांतों को
पढ़ा है मैंने
बहुत प्रांजल है तुम्हारा गद्य
होनी ही चाहिए तुम्हारी भाषा मधुर
पानी से प्रेम जो करते हो

आदिम-नदी नर्मदा
जो कितने जीवों-जनों की माँ है
को देखा-सुना-कहा है तुमने
हमने भी तुम्हारी धुन को
समझा और सराहा है

बहुत धरती है तुम्हारे भीतर
अमृतलाल वेगड़
और तुम्हारा लक्ष्य
आदरणीय

(आठ)

हमारा डीह है यह
कहते हैं पूर्वज इसी जगह पर
घर-छप्पर का इंतजाम किया था पहली बार
गुजर गई कई पीढ़ियाँ
इसी घर-छप्पर को नया-पुराना करते

भादों का महीना
भहरा रहा है आज
डीह का कुआँ
ओसार के डेहरौटे पर बैठे बड़े पिता
दुखी हैं बहुत
कहते हैं – पूर्वजों की निशानी थी
देखते-देखते इस बारिश में
ढही जा रही

इतना सूखा-राँका पड़ा
पर इस कुआँ का पानी
रहा आया बरहमेश
खेत-खलिहान से आओ
तो इसी का लोटा भर जल
तिरपित करता था आत्मा

देखते-देखते पूर आँखें
बड़े पिता की आँखें
और वे बुदबुदाए
गिरते-गिरते बचा रहा बँधाने लायक
तो बँधाऊँगा इसे फिर
हमारे डीह का कुआँ है
सींचता रहा है
हमारी वंश-बेल!

(नौ)

सूखे की मार से
झुलसी है जिनकी काया
सिहर उठता है
उनकी स्मृति का जल
सुनते ही ‘सूखा’ शब्द

लगभग हर बरस
बाड़मेर-जैसलमेर, कच्छ आदि के इलाके में
पड़ता है भयानक सूखा :
चारा-पानी के बिना
दम तोड़ देते हैं मवेशी
भूखा-प्यासा जन-गण
छोड़ देता है
अपना घर-दुआर
सोख लेती है यह विभीषिका
लोगों की आत्मा का जल
पर इसका समुचित हल
क्या इतना मुश्किल
कि जीवन-खाऊ यह त्रासदी
दूर न हो हमारी धरती से
हमेशा के लिए?

(दस)

सामने के मैदान में
गणतंत्र की स्वर्ण जयंती का
जश्न चल रहा था
और मुहल्ले में
पानी के लिए
इतनी खटपट थी
कि वह –
गुस्सा पीकर सो गया।

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