जाड़े की दोपहर | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता
जाड़े की दोपहर | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता

जाड़े की दोपहर में
वे भीली-सयानी औरतें
जो रिश्ते में हमारी काकी, बुआ, बड़ी माँ और बड़ी भाभी
होतीं
आँगन में एक समूह में बैठ जातीं
उनके पास अपने लगभग एक ही तरह के
अपने-अपने किस्से होते
घर की औरतें जेमती जातीं और
उनकी बातें भी चलती रहती
आई हुई औरतें अवश्य बतातीं
कि किसके घर आज क्या पका है
बातों-बातों में पता नहीं कब कैसे
वे अपने अतीत की ओर चली जातीं
जहाँ उनके किसी असमथ बिछड़े बच्चे,
भाई, माँ-पिता का शोक होता
अपनी करुण-कथाएँ कहते-कहते
उनकी आँखें डबडबाने लगतीं
फिर वे भीतर ही भीतर कुछ बुदबुदातीं
और थोड़ी देर को सब कुछ ठहर जाता

आँगन में अचानक हमारी धमक पर
माँ, बड़ी माँ या मायके आई कोई बुआ
हमारी हथेलियों पर भाजी-भात का एक लोंदा रख देतीं
शायद इसलिए कि उनकी बातों में व्यवधान न हो

अपने किस्सों की तरह वे औरतें
अपनी उम्र में बीतते-बीतते
आखिर एक दिन खुद ही बीत गयीं
उन भोली-सयानी औरतों को
उस समय कहाँ पता रहा होगा कि –
एक नादान बच्चा जो उनके सामने उछल-कूद कर रहा है
उनके गुजर जाने के बाद जाड़े की किसी दोपहर में
अपनी कविता में उनका जिक्र करेगा
और वे उसकी स्मृति में अपने किस्सों के साथ
शांत बैठी रहेंगी
वे भोली-सयानी औरतें जो अपने भीतर
ममता, करुणा और दुलार लिए
हमारी दुनिया को झाड़ती, पोंछती और बुहारती रहती हैं
प्रतिष्ठित हैं –
श्रद्धा, सम्मान और आदर के साथ
हमारी कविता में हमेशा के लिए।

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