उस पल जब कोई स्त्री गुजरती है तुम्हारे ठीक सामने से 
क्या पढ़ पाते हो कि वह ज़िंदगी के अंतिम छोर से गुजरी है 
सीता ही नहीं थी अंतिम शिकार प्रेम का 
सुना उसके बाद कोई द्रोपदी भी हुई, 
फिर कोई मीरा भी 
कुछ लहू के घूँट पीती रहीं 
कुछ ने पिया विष का प्याला 
कुछ गईं पाताल 
कुछ चढ़ गईं सीधे स्वर्ग को उर्वशी की तरह 
उस पल जब कोई स्त्री गुजरती है बिलकुल शांत 
गहमागहमी में विचरती अपने ही भीतर 
गहरी साँसें लेती ऐसे जैसे हवा हो ही न बिलकुल 
कौन समझ ही पाता है 
कि प्रेम की अंतिम परिणति बस अब आ ही चुकी है 
गहरी स्त्री सलीके से छोड़ती है पृथ्वी 
जैसे वह माँ का गर्भ का छोड़ती है 
पृथ्वी ही कराहती है इस बार 
स्त्री सौंप देती है अपना हृदय और आँखें 
अपनी माँ को 
अपनी बेटी को 
और ज़िंदगी के चाक से एक मूरत उतर जाती है

See also  धान जब भी फूटता है | बुद्धिनाथ मिश्र