इस दूर तक पसरे बीहड़ में 
रह-रह कर मेरी नदी उग आती है 
तुमने नहीं देखा होगा

नमी से अघाई हवा का 
बरसाती संवाद 
बारिश नहीं लाता 
उसके अघायेपन में 
ऐंठी हुई मिठास होती है

अब तक जो चला हूँ 
अपने भीतर ही चला हूँ 
मीलों के छाले मेरे तलवों 
मेरी जीभ पर भी हैं

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मेरी चोटों का हिसाब 
तुम्हारी अनगिनत जय कथाओं में जुड़ता होगा 
इस यात्रा में लेकिन ये नक्शे हैं मेरी खातिर 
उन गुफाओं तक जहाँ से निकला था मैं 
इन छालों पर 
मेरी शोध के निशान हैं 
धूल हैं तुम्हारी यात्राओं की इनमें 
सुख के दिनों में ढहने की 
दास्तान है

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जब पहुँचूँगा 
खुद को लौटा हुआ पाऊँगा 
सब कुछ गिराकर 
लौटना किसी पेड़ का 
अपने बीज में 
साधारण घटना नहीं 
यह अजेय साहस है 
पतन के विरुद्ध