हावड़ा ब्रिज | अभिज्ञात
हावड़ा ब्रिज | अभिज्ञात

हावड़ा ब्रिज | अभिज्ञात

हावड़ा ब्रिज | अभिज्ञात

बंगाल में आए दिन बंद के दौरान
किसी डायनासोर के अस्थिपंजर की तरह
हावड़ा और कोलकाता के बीचोबीच हुगली नदी पर पड़ा रहता है हावड़ा ब्रिज
जैसे सदियों पहले उसके अस्थिपंजर प्रवाहित किए गए हों हुगली में
और अटक गया हो वह दोनों के बीच

लेकिन यह क्या
अचानक पता चला
डायनासोर के पैर गायब थे
जो शायद आए दिन बंद से ऊब कर चले गए हैं कहीं और किसी शहर में तफरीह करने
या फिर अंतरिक्ष में होंगे कहीं
जैसे बंद के कारण चला जाता है बहुत कुछ
बहुत कुछ दबे पाँव

फिलहाल तो डायनासोर का अस्थिपंजर
एक उपमा थी
जो मेरे दुख से उपजी थी
जिसका व्याकरण बंद के कारण हावड़ा ब्रिज की कराह की भाषा से बना था
जिसे मैंने सुना
उसी तरह जैसे पूरी आंतरिकता से सुनती हैं हुगली की लहरें

क्या आपने गौर किया है बंद के दिन अधिक बेचैन हो जाती हैं हुगली की लहरें
वे शामिल हो जाती हैं ब्रिज के दुख में

बंद के दौरान हावड़ा ब्रिज से गुजरना
किसी बियाबान से गुजरना है महानगर के बीचोंबीच

बंद के दौरान तेज-तेज चलने लगती हैं हवाएँ
जैसे चल रही हों किसी की साँसें तेज-तेज
और उसके बचे रहने को लेकर उपजे मन में रह-रह कर संशय

बंद के दौरान बढ़ जाती है ब्रिज की लंबाई
जैसे डूबने से पहले होती जाती हैं छायाएं लंबी और लंबी
बंद में कभी गौर से सुनो तो सुनाई देती है एक लंबी कराह
जो रुकने की व्यवस्था के विरुद्ध उठती है ब्रिज से
और पता नहीं कहाँ-कहाँ से, किस-किस सीने से

प्रतिदिन पल-पल हजारों लोगों और वाहनों को
इस पार से उस पार ले जाने वाले ब्रिज के कंधे
नहीं उठा पा रहे थे अपने अकेलेपन का बोझ

देखो, कहीं अकेलेपन के बोझ से टूटकर किसी दिन गिर न जाए हावड़ा ब्रिज

सोचता हूँ तो काँप उठता हूँ
हावड़ा ब्रिज के बिना कितना सूना-सूना लगेगा बंगाल का परिदृश्य

ब्रिज का चित्र देखकर लोग पहचान लेते हैं
वह रहा-वह रहा कोलकाता
अपनी ही सांस्कृतिक गरिमा में जीता और उसी को चूर-चूर करता
तिल-तिल मरता

सामान्य दिनों में हावड़ा ब्रिज पर चलते हुए
कोई सुन सकता है उसकी धड़कन साफ-साफ

एक सिहरन सी दौड़ती रहती है उसकी रगों में
जो हर वाहन ब्रिज से गुजरने के बाद छोड़ जाता है अपने पीछे
देता हुआ – धन्यवाद, कहता हुआ – ‘टाटा, फिर मिलेंगे!!’

वाहनों की पीछे छूटी गर्म थरथराहट
ब्रिज के रास्ते पहुँच जाती है आदमी के तलवों से होती हुई उसकी धमनियों में
और आदमी एकाएक तब्दील हो जाता है
स्वयं हावड़ा ब्रिज की पीठ में, उसके किसी पुर्जे में
जिस पर से हो रहा है होता है पूरे इतमीनान के साथ आवागमन

और यह मत सोचें कि यह संभव नहीं
पुल दूसरों को पुल बनाने का हुनर जानता है
हर बार
एक आदमी
एक वाहन
एक मवेशी का पुल पार करना
पुल को नए सिरे से बनाता है पुल
हर बार वह दूसरे के पैरों और चक्कों से करता है अपनी ही यात्रा
पुल दूसरों के पैरों से चलता है अपने को पार करने के लिए

अपने से पार हुए बिना कोई कभी नहीं बन सकता पुल
जो यह राज जानते हैं वे सब हैं पुल के सगोतिए

अँग्रेजी राज में गांधी जी ने भी बंद को बनाया था पुल
– ‘लेकिन अब बंद पुल नहीं है
पुल नहीं रह गया है बंद!!’
सुबह से शाम तक
हर आने जाने वाले से कहता है हावड़ा ब्रिज

यह पुल और आदमी
दोनों के पक्ष में की गई जरूरी कार्रवाई है

यह पुल के अर्थ को बचाने की पुरजोर कोशिश है
और आखिरकार हर कोशिश
एक पुल ही तो है!

कई बार मुझे लगा है कि बंगाल के ललाट पर रखा हुआ एक विराट मुकुट है – हावड़ा ब्रिज
यदि वह नहीं रहा तो…
तो उसके बाद बनने वाले ब्रिज होंगे उसके स्मारक
लेकिन मुकुट नहीं रहेगा तो फिर नहीं रहेगा।

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