हिजड़े | हरीशचंद्र पांडे
हिजड़े | हरीशचंद्र पांडे

हिजड़े | हरीशचंद्र पांडे

हिजड़े | हरीशचंद्र पांडे

ये अभी अभी एक घर से बाहर निकले हैं
टूट गए रंगीन गुच्छे की तरह
काजल लिपस्टिक और सस्ती खुशबुओं का एक सोता फूट पड़ा है

एक औरत होने के लिए कपड़े की छातियाँ उभारे
ये औरतों की तरह चलने लगे हैं
और औरत नहीं हो पा रहे हैं

ये मर्द होने के लिए गालियाँ दे रहे हैं
औरतों से चुहल कर रहे हैं अपने सारे पुन्सत्व के साथ
और मर्द नहीं हो पा रहे हैं
मर्द और औरतें इन पर हँस रहे हैं

सारी नदियों का रुख मोड़ दिया जाए इनकी ओर
तब भी ये फसल न हो सकेंगें
ऋतु बसंत का ताज पहना दिया जाए इन्हें
तब भी एक अँकुवा नहीं फूटेगा इनके
इनके लिए तो होनी थी ये दुनिया एक महासिफर
लेकिन
लेकिन ये हैं की
अपने व्यक्तित्व के सारे बेसुरेपन के साथ गा रहे हैं
जीवन में अँकुवाने के गीत
ये अपने एकांत के लिए किलकारियों की अनुगूँजें इकट्ठा कर रहे हैं

विद्रूप हारमोनों और उदास वल्दियत के साथ
ये दुनिया के हर मेले में शामिल हो रहे हैं समूहों में

नहीं सुनने में आ रही आत्महत्याएँ हिजड़ों की
दंगों में शामिल होने के समाचार नहीं आ रहे

मर्द और औरतों से अटी पड़ी इस दुनिया में
इनका पखेरुओं की तरह चुपचाप विदा हो जाना
कोई नहीं जानता !

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *