हाथियों की लड़ाई | निकोलाई जबोलोत्स्की
हाथियों की लड़ाई | निकोलाई जबोलोत्स्की

हाथियों की लड़ाई | निकोलाई जबोलोत्स्की

हाथियों की लड़ाई | निकोलाई जबोलोत्स्की

ओ शब्‍दों के योद्धा!
वक्‍त आ गया है कि तुम्‍हारी तलवारें
रात में गीत सुनायें।

संज्ञाओं के कमजोर शरीर पर
झपट रहे हैं विशेषणों के घोड़े।
काले रंग के घुड़सवार
पीछा कर रहे हैं क्रियाओं की सेना का
और विस्‍मयबोधक शब्‍दों का गोला-बारूद
फट रहा है सिरों के ऊपर
जैसे सिग्‍नल देने वाले रॉकेट।

शब्‍दों का युद्ध! अर्थों का घमासान!
वाक्‍यों की मीनार पर-लूटमार।
चेतना के यूरोप में
विद्रोह की आग में
शत्रुओं की तोपों की परवाह किये बिना
टूटे अक्षरों से निशाना साधते
अवचेतन के जुझारू हाथी
निकल आये हैं बाहर।
कदमताल कर रहे हैं जैसे भीमकाय शिशु।

लो देखो-जन्‍म से ही भूखे
वे भाग रहे हैं रहस्‍यभरी दरारों की तरफ
मानव-शरीरों की दाँतों में दबाये
खुश खड़े हैं अपने पिछले पाँवों पर।
अब चेतन के हाथी!
पाताल लोक के जुझारू जानवर!
आनंदविभोर स्‍वरों में स्‍वागत कर रहे हैं
लूटमार से प्राप्‍त हर चीज का।

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छोटी-छोटी आँखें हाथियों की
भरी हैं हँसी और खुशी से,
कितने खिलौने! कितने पटाखे!
चुप पड़ गई है तोपें खून का स्‍वाद चख कर
वाक्‍याशास्‍त्र बना रहा है दूसरी ही तरह के घर
बेढंगे-से सौंदर्य में खड़ा है संसार।

फेंक दिये गये हैं पेड़ों के पुराने नियम,
युद्ध ने उन्‍हें मोड़ दिया है नई जगह की तरफ।
वे बातें कर रहे हैं, लेख लिख रहे हैं
सारा संसार भर गया है बेढंगे अर्थ से।
भेड़िये ने घायल थोबड़े की जगह
बना डाला है चेहरा मनुष्‍य का,
निकाली बाँसुरी उसने,
गाने लगा शब्‍दों के बिना
युद्ध के हाथियों का पहला गीत।

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कविता युद्ध हार चुकी थी
खड़ी थी तार-तार हुआ मुकुट पहने।
ध्‍वस्‍त हो गई थीं पुरानी मीनारें,
आँकड़ें चमक रहे थे जैसे तारामंडल।
विशुद्ध विवेक द्वारा परखी चमक रही थी तलवारें।
आगे क्‍या हुआ?
युक्तियाँ युद्ध हार गई
जीत हुई परिहास की!
बहुत बड़े कष्‍ट में है कविता
तोड़ रही है अपने विक्षिप्‍त हाथ
फटकार सुना रही है पूरे संसार को –
अपने को ही काट डालना चाहती है
कभी पागलों की तरह हँसती हैं
कभी लेट जाती है धूप में।
बहुत-से दुख हैं कविता के।

पर यह हुआ कैसे?
कैसे पराजित हुआ प्राचीन गढ़?
सारा संसार कविता का अभ्‍यस्‍त था
सब कुछ वह समझता था साफ-साफ।
पंक्तिबद्ध खड़े थे खूंखार सैनिक

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तोपों पर संख्‍या लिखी जा रही थी
और ध्‍वजाओं पर अंकित शब्‍द ‘बुद्धि’
सिर हिला रहा था सबकी तरफ।
और तभी आ टपका कहीं से हाथी –
उलट-पलट दिया उसने सब कुछ!

कविता सोचने लगी ध्‍यान से
गौर से देखती रही नये रूपों की चाल-ढाल।
उसकी समझ में आने लगता है
कि बेढंगेपन का भी अपना होता है सौंदर्य।
समझ आता है पाताल लोक के परित्‍यक्‍त हाथी का सौंदर्य।

समाप्‍त हो गया है युद्ध।
पृथ्‍वी की वनस्‍पतियाँ उग आई है धूल में
और बुद्धि के हा‍थों पालतू बना हाथी
खा रहा है केक, पी रहा है चाय।

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