हतक | नवनीत मिश्र
हतक | नवनीत मिश्र

हतक | नवनीत मिश्र – Hatak

हतक | नवनीत मिश्र

नहीं-नहीं, नाम पर मत जाइए। नाम से अक्सर बड़े धोखे हो जाते हैं। नाम कभी-कभी आदमी के व्यक्तित्व और उसके वास्तविक होने से एकदम उलट होता है। नाम के मामले में हम काफी हद तक बल्कि कहें तो सौ फीसदी पराधीन होते हैं। हमें किस नाम से पुकारा और पहचाना जाएगा, इस पर हमारा कोई जोर नहीं होता। बाद में हम कितनी भी कोशिश कर लें, नाम बदलने के लिए अखबार में कितने ही ‘कॉरीजेंडम’ छपवा दें, एक बार चल पड़े नाम से पीछा छुड़ाना लगभग असंभव ही होता है।

जोखू प्रसाद तिवारी के साथ ऐसा ही हुआ। अब जोखू प्रसाद सुन कर आपके मन में निश्चित रुप से जिस तरह के आदमी की छवि बनेगी, वह वैसी ही होगी जैसी किसी जोखू प्रसाद की हो सकती है। लेकिन मैंने आपसे शुरू में ही कहा कि कभी-कभी नाम आदमी के व्यक्तित्व से बिलकुल उलट भी होते हैं।

दो बार गर्भपात हो चुकने के बाद, सरवाइकल इंकाम्पीटेंसी की मरीज श्रीमती तिवारी ने जब तीसरी बार गर्भ धारण किया तो डॉक्टर ने उन्हें पूरे समय बिस्तर पर लेटे रहना तजवीज किया। पाखाना-पेशाब भी बिस्तर पर ही… उस बार डॉक्टर ने, गर्भ के बढ़ने के साथ ही उसके बढ़ते वजन से खुल जानेवाली कमजोर बच्चेदानी के मुँह पर टाँका लगा दिया था और विश्वास दिलाया था कि अगर पूरा आराम किया गया तो इस बार वह माँ अवश्य बन सकेंगी। लेकिन यह भी बता दिया था बच्चेदानी कोई बोरा नहीं है कि उसे जितनी बार चाहो सिल लो या सुतली उधेड़ कर खोल लो। डॉक्टर ने स्पष्ट कर दिया था कि अगर इस उपाय से भी गर्भपात नहीं रुक सका तो श्रीमती तिवारी को संतान की आस हमेशा के लिए छोड़ देनी होगी। डॉक्टर की बात सुन कर आतंकित हो उठीं श्रीमती तिवारी के सामने ‘करो या मरो’ की-सी स्थिति थी। पिछली दो बार थक्के बन कर नाली में बह गई अपनी संतानों की दुःखद स्मृतियों को उन्होंने परे सरकाया और तीसरी के लिए मनप्राण से तपस्या शुरु कर दी। नौ महीने बाद जब उनका पेट चीर कर एक गदबदा सा बेटा उनकी एक बाँह के घेरे में लिटाया गया तो वह उन्हें किसी देवदूत द्वारा भेजे गए उपहार जैसा लगा।

दूधिया गुलाबी रंग, जरा सी पलकें खुलने पर कौंध सी मारती छोटे कंचे जैसी नीली आँखें और गटापार्चा के गुड्डे जैसे छोटे-छोटे हाथ-पैरों वाले बच्चे को अपने सीने से सटाते हुए श्रीमती तिवारी हर्षातिरेक में रो पड़ीं।

‘अरे, बडे़ जोखों का जाया है तू’ श्रीमती तिवारी ने कहा और बड़ी कठिनाई से मिली निधि को जोर से भींच लिया। श्री तिवारी और कई नाते रिश्तेदारों ने श्रीमती तिवारी की बात सुनी और प्रभु को धन्यवाद दिया।

जोखिम भरे दिन बीत गए थे लेकिन ‘जोखों’ की वह कराह लोगों की जुबान पर जोखू बन कर उतरी और अंततः उसने जोखू प्रसाद तिवारी बन कर ही दम लिया। जोखू प्रसाद तिवारी ने होश सँभालने के बाद लाख अपने आप को जे.पी.तिवारी प्रसिद्ध करना चाहा लेकिन जहाँ कहीं पूरा नाम बोले बिना काम नहीं चलने वाला होता वहाँ तो…

जोखू प्रसाद तिवारी का परिवार शासकों की पंगत में बैठने की चाहना रखनेवाला परिवार था। कई पीढ़ियों से उनके परिवार में यह इच्छा पलती आई थी कि घर में कोई डाइरेक्ट आई.ए.एस. हो। जोखू के पिता खानदान के पहले आई.ए.एस. थे लेकिन प्रमोटी होने के कारण वह खुद अपने भीतर कोई हनक जैसी महसूस नहीं कर पाते थे जो डाइरेक्ट आई.ए.एस. बननेवाला कुर्सी पर बैठते ही दूसरों को महसूस करा देता है। पिता का एक ही सपना था कि जो उनसे नहीं हो सका वह जोखू प्रसाद कर दिखाएँ।

दो-ढाई साल बीतते ही जोखू प्रसाद को गोरी-चिट्टी भाषा और उसका शुद्ध उच्चारण मुगली घुट्टी पाँच सौ पचपन की जगह पिलाया जाने लगा। कुछ समय और बीता और उन्हें ऐसे स्कूल में दाखिल करा दिया गया जहाँ ‘साँवली’ या ‘काली’ भाषा बोलने पर बेंत खाने पड़ते थे। मतलब यह कि जोखू प्रसाद मिट्टी के लोंदे की तरह चाक पर चढ़ा दिए गए थे जिस पर से उन्हें सुन्दर कलश बन कर ही उतरना था।

जोखू प्रसाद जब कभी स्कूल की छृट्टियों में घर आते तो उनको देख कर तिवारीजी और मिसेज तिवारी भ्रम में पड़ जाना चाहते कि क्या सचमुच यह उनका जोखू ही है? गौरांग प्रभुओं जैसा ललाई लिये हुए गोरा रंग, हल्के सुनहरे बाल, बनी हुई दाढ़ी के बाद अपना आभास भर देती हल्की हरीतिमा, नीली-नीली चमकती आँखें, निकलता हुआ कद, मजबूत शरीर… वैसे तो जोखू प्रसाद जो कुछ भी पहन लेते उन पर फबता लेकिन जब वह नीले रंग का सूट पहन लेते तो उनके गोरे रंग के कंट्रास्ट में उनका सारा का सारा व्यक्तित्व सुदर्शन हो उठता। धरती पर अपनी धमक का अहसास कराते जोखू प्रसाद नाक की सीध में देखते हुए चलते। दसवें दर्जे में पढ़ रहे जोखू प्रसाद में ‘आफिसर लाइक क्वालिटीज’ दिखाई पड़ने लगी थीं जिसमें सिखाया जाता है कि तुम किसी की तरफ मत देखो क्योंकि लोगों को तुम्हारी तरफ देखना है। तिवारी जी देखते और सोचते कि यह उनका बेटा नहीं उनके सपने का साकार रुप है।

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लेकिन तिवारी जी को उस दिन अपनी उम्मीदों का महल ढहता हुआ जान पड़ा जिस दिन पत्नी से उन्हें पता लगा कि जोखू डॉक्टरी की पढ़ाई करना चाहते हैं।

‘डॉक्टर बनोगे तुम? डॉक्टर? डॉक्टर होता क्या है? आई.ए.एस. भी नहीं, उसका पी.एस. एक फोन कर दे तो तमाम डॉक्टर हाथ बाँधे खड़े हो जाते हैं’, तिवारी जी ने इससे पहले कि बात हाथ से निकल जाए, जोखू को तलब कर लिया।

‘नहीं डैड, मैं फोन करवाने वाला नहीं फोन करके बुलाया जानेवाला बनना चाहता हूँ।’ जोखू ने पिता की बात से जरा भी प्रभावित हुए बिना शांत स्वर में कहा तो उन्हें लगा कि बेटे की इस भावुकता को वह आसानी से तोड़ ले जाएँगे।

‘देखो जोखू, इस देश में नौकरी सिर्फ एक ही है जो कहलाती तो नौकरी है लेकिन असल में होती बादशाहत है। बाकी नौकरियाँ तो चाकरी से ज्यादा और कुछ नहीं’, तिवारी जी ने जोखू के सामने जाल-सा बुनना शुरु किया।

‘रेलवे का रिजर्वेशन फॉर्म आपने देखा है? उसके एक कॉलम में पूछा जाता है कि क्या आप डॉक्टर हैं? यह नहीं पूछा जाता कि क्या आप आई.ए.एस. हैं?’ जोखू ने पिता के बुने हुए जाल को अपने तर्क के एक ही वार में काट डाला।

‘अव्वल तो आमतौर पर आई.ए.एस. रेल से सफर करता नहीं। वह हवाई यात्राएँ करता है। लेकिन जब कभी रेल से यात्रा करता है तो उसके रिजर्वेशन से लेकर कम्पार्टमेंट में उसका सामान रखने तक और गंतव्य स्थान पर पहुँचने पर उसकी सारी सुख-सुविधाओं का ख्याल रखने के लिए हाथ बाँधे सरकारी नौकरों, जिन्हें मैं चाकर कहता हूँ, की फौज जुटी रहती है, लेकिन डॉक्टर…?’ तिवारी जी ने तुलना प्रस्तुत करते हुए कहा।

‘लेकिन डॉक्टर की पूछ उस समय होती है डैड, जब कभी ट्रेन दुर्घटना हो जाती है और आपके बादशाह सहित तमाम लोग सरकारी इमदाद के पहुँचने से पहले कराह रहे होते हैं। और डैड, आप कितनी जल्दी भूल गए कि मिस्टर शिरोदकर एक डॉक्टर थे कोई आई.ए.एस. नहीं जिन्होंने मॉम जैसी जाने कितनी निराश औरतों के लिए उस टाँके का आविष्कार किया जिसका जीता-जागता परिणाम हूँ मैं, आपका बेटा। उनके ईजाद किए गए उस टाँके को पूरी दुनिया शिरोदकर टैग के नाम से जानती है’ जोखू ने अपने निर्णय के पक्ष में मजबूत तर्क रखा जिसने जरा देर के लिए तिवारी जी की बोलती बंद कर दी।

‘मगर मरीजों की सेवा करो, उनकी जान बचाने के लिए अपनी जान लड़ा दो फिर भी कोई रुतबा नहीं’, तिवारी जी ने भुनभुनाते हुए कहा तो जरुर लेकिन उनको उन दिनों की याद आ गई जब निःसंतान होने की पीड़ा उनकी पत्नी को मथती रहती थी और वह कुछ भी न कर पाने की हालत में असहाय से छटपटाते रहते थे। जोखू प्रसाद ने इंटरनेट के जरिये कितना कुछ जान लिया था और पिता के मर्म को छू दिया था। उन्होंने मन ही मन हथियार डालते-डालते भी एक कमजोर-सी कोशिश और की थी।

‘अरे डैड, सेवा करनेवाले का क्या रुतबा? सेवक का रुतबा किसी किसी को ही मिलता है और वह भी उसे ऊपर से ही अता होता है’, जोखू ने सूफियाना अंदाज में आसमान की ओर देखा और दुआ माँगने के-से भाव से अपने दोनों हाथ उठा दिए।

तिवारी जी ने अपने एकलौते पुत्र की इच्छा के सामने सिर झुका दिया।

जोखू प्रसाद को देश के सबसे प्रतिष्ठित मेडिकल कालेज में दाखिला मिल गया। जब तक हास्टल में रहना अनिवार्य न हो जाए तब तक के लिए जोखू प्रसाद ने शहर में एक कमरा किराए पर ले लिया। तिवारी जी ने खाना बनाने, कपड़े धोने और इसी तरह की सेवाओं के लिए एक नौकर साथ कर दिया। पढ़ाई के पीछे भूत की तरह लगे जोखू प्रसाद को नहाने-खाने की भी सुध नहीं रहती। पढ़ते-पढ़ते जब उनको आँखों से दिखाई देना बंद होने लगता और बैठे-बैठे कमर टूटने-टूटने को हो आती तो वह जरा देर के लिए बालकनी में खड़े हो कर सड़क पर आती-जाती सवारियों को देखते या सेवेन टाइम्स खेल रहे बच्चों के साथ जरा देर उछल-कूद करके ताजादम हो जाते और फिर अपने को कमरे में कैद कर लेते।

ऐसे ही एक दिन पढ़ते-पढ़ते बुरी तरह थक जाने के बाद जोखू प्रसाद अपनी बालकनी में खड़े थे तो नीचे के हिस्से में रहने वाले डॉक्टर विनय कुमार पांडे लॉन में तखत पर बैठे पंखा झलते हुए दीख पड़े। बिजली चली गई थी और उतर आए अँधेरे और गर्मी ने जोखू प्रसाद को कमरे से बाहर निकलने की मोहलत दे दी। जोखू प्रसाद नीचे उतर कर डॉक्टर पांडे के पास पहुँचे।

‘प्रणाम डाक्साब’ जोखू प्रसाद ने अपने से एक बहुत सीनियर डॉक्टर को सम्मान देते हुए कहा।

‘प्रणाम-प्रणाम’ डॉक्टर पांडे, जो जिला चिकित्सालय में क्षय रोग विशेषज्ञ थे, ने हाथ के पंखे से अपनी नंगी पीठ पर बैठे मच्छर को मारते हुए प्रणाम का जवाब प्रणाम से दिया।

‘मैं ऊपर रहता हूँ। आपकी नेमप्लेट कई बार देखी, मिलने का सौभाग्य आज मिला’, जोखू प्रसाद ने बात आगे बढ़ाई।

‘आपका कौन सा विभाग हुआ?’ डा. पांडे ने पूछा।

‘मैं एम.बी.बी.एस. कर रहा हूँ।’

‘अच्छा-अच्छा,कौन सा इयर?’

‘अभी तो फर्स्ट इयर है।’

‘अच्छा-अच्छा, क्या नाम हुआ आपका?’ डॉक्टर पांडे ने पूछा।

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‘जी,जोखू प्रसाद’, जोखू ने बताया और तखत के एक कोने पर बैठ गए।

‘कोटे से हुआ एडमिशन?’ डॉक्टर पांडे ने अँधेरे में जोखू प्रसाद को गहरी निगाहों से देखने की कोशिश की। उन्हें जोखू प्रसाद के इस तरह तखत पर बैठने से बेचैनी महसूस हुई।

‘जी नहीं।’

‘जोखू प्रसाद के आगे क्या लिखते हैं?’ डॉक्टर पांडे की आवाज में एक तल्खी आ गई जिसे उन्होंने दबाने की कोशिश नहीं की।

‘ब्राह्मण हूँ।’ इस बार बेचैनी जोखू प्रसाद ने महसूस की।

‘आस्पद बोलिये,आस्पद।’ डॉक्टर पांडे ने थानेदार की तरह पूछा।

‘तिवारी… जोखू प्रसाद तिवारी।’ जोखू प्रसाद ने बताया जैसे कोई गुनाह कुबूल करते हों।

‘घर कहाँ हुआ आपका?’ जिरह अभी पूरी नहीं हुई थी।

‘जी कानपुर।’ जोखू प्रसाद ने बताया।

‘ओह, कनौजिया हैं।’ डा. पांडे ने अफसोस भरे स्वर में कहा।

‘जी।’ जोखू प्रसाद ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया।

‘क्या जमाना आ गया है। किसी सरयूपारीण के सामने कोई कनौजिया खड़े होने की हिम्मत नहीं कर पाता था और आज आप मेरे बराबर, मेरे ही घर में, मेरे तखत पर बैठे हैं…’ डॉक्टर पांडे ने खराब समय को पूरे दुःख के साथ कोसते हुए कहा।

जोखू प्रसाद को लकड़ी के तखत में बिजली का तेज करंट दौड़ता हुआ-सा महसूस हुआ। वह तुरन्त उठ कर खड़े हो गए। उन्होंने अपने आप को बुरी तरह अपमानित महसूस किया। वह कसैला-सा कुछ कह कर चल देना चाहते थे।

‘एक हिसाब से देखा जाए तो आप लोग तो रावन की पूजा करने वाले हुए।’ डॉक्टर पांडे कोई दूर की कौड़ी लाए।

‘कैसे भला?’ जोखू प्रसाद ने अपमान की चोट सहलाई और वापस लौटने लगे अपने पैरों को जरा देर के लिए रोक लिया।

‘काहे भाई? राजा रामचन्दर जी रावन का बध करके अजुध्याजी लौटे तो आप लोगन ही न उनके अस्वमेध जज्ञ का बहिस्कार किए थे।’ डा. पांडे ने जोखू प्रसाद को उनके रावण पूजक होने का प्रमाण दिया।

‘अश्वमेध नहीं, राजसूय यज्ञ।’ जोखू प्रसाद ने डा. पांडे की भूल सुधारी।

‘हाँ-हाँ, वही-वही।’ डा. पांडे ने अपनी टेक बनाए रखी।

‘और आप लोगों ने उनका साथ दिया तो सरयूपार का इलाका आपको इनाम में मिल गया।’ जोखू प्रसाद ने डा. पांडे को चिढ़ाने के भाव से कहा।

‘हाँ तो, राजा रामचन्दर जी एक अत्ताचारी राच्छस को मारे थे, उनका साथ हम काहे नहीं देते भला? क्या आप लोगन की तरह अपने कुतर्क पर अड़े रहते कि रावन बाम्हन था इसलिए जज्ञ से पहले राजा रामचन्दरजी ब्रम्हहत्ता के लिए प्रास्चित्त करें?’ डा. पांडे ने बिना चिढ़े जरा रोष के साथ कहा।

‘किस जमाने में रहते हैं विमल जी, पांडे जी, पंडितजी, क्षय रोग दूर करनेवाले डॉक्टर साहेब?’ जोखू प्रसाद ने डॉक्टर पांडे के लिए एक-एक संबोधन को क्रमशः आवाज ऊँची करते हुए कहा और अंतिम संबोधन को लगभग चीखने की ऊँचाई तक पहुँचा कर वापस अपने कमरे में लौट आए।

उस रात काफी देर तक किताब सामने खुली रही लेकिन जोखू प्रसाद, डॉक्टर पांडे से हुई बातचीत के बारे में ही सोचते रहे, उनसे मिलने जाने के अपने निर्णय पर पछताते रहे।

जोखू प्रसाद, डॉक्टर जोखू प्रसाद तिवारी हुए तो इसलिए नहीं कि किसी आई.ए.एस. के पी.एस. के एक फोन पर हाथ बांधे उसकी कोठी पर हाजिर हो जाएँ।एम.एस.करने के बाद एफ.आर.सी.एस. करने के लिए दिए गए इम्तिहान में वह पास हो गए थे।

डॉक्टर जोखू प्रसाद तिवारी यू.के. गए तो थे एफ.आर.सी.एस. करने लेकिन वहाँ की सुख-सुविधाओं ने उन्हें एक वर्ष का कोर्स पूरा होते-होते ऐसा मोह लिया कि फिर वह अपने देस नहीं लौटे। डॉक्टर जोखू, ग्रेट ब्रिटेन के नागरिक हो कर स्कॉटलैंड के किसी शहर में बस गए।

वहाँ जाने के बाद उन्होंने एक बार टिकट भेज कर तिवारी जी और श्रीमती तिवारी को अपने पास बुलाया। हीथ्रो पर उतरने के बाद तिवारी जी का जी, जोखू की लिमोसिन देख कर ही जुड़ा गया जिसको चलाने के लिए एक अंगरेज लड़का ड्राइवर था। तिवारी जी के मन से जोखू के आई.ए.एस. न बनने का अफसोस काफी हद तक कम हो गया। जोखू प्रसाद का वातानुकूलित घर देख कर वह मुग्ध हो गए। घर के बाहर फुटबॉल के मैदान जितना बड़ा खुला अहाता देख कर तिवारी जी को अपनी आँखों पर सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। पूरे घर में बिछी मुलायम कालीन में धँसते पैरों को सँभालते तिवारी जी ने सोचा कि बाकी सब तो ठीक है लेकिन यह मोर यू.के. के जंगल में न नाच कर अगर इंडिया के कानपुर में नाचता तो बात ही कुछ और होती।

एक दिन जोखू प्रसाद, तिवारी जी और श्रीमती तिवारी को म्यूजियम दिखाने ले गए। भीतर जाते समय स्थिति कुछ ऐसी बनी कि जोखू प्रसाद, तिवारी जी और श्रीमती तिवारी के साथ एक अंगरेज महिला भी दरवाजे के ठीक सामने आ खड़ी हुई। जोखू प्रसाद अभी कुछ सोचते कि तिवारी जी और श्रीमती तिवारी दरवाजे से भीतर चले गए। जोखू प्रसाद और वह अंगरेज महिला दरवाजे के बाहर ही रह गए। जोखू प्रसाद शिष्टाचारवश और महिलाओं को प्राथमिकता देने के एटीकेट के तहत अपनी कमर को जरा सा खम देते हुए झुके, दरवाजे की ओर हाथ से इशारा किया और अंगरेज महिला को अपने से आगे चलने देने के लिए रुके रहे। तब तक तिवारी जी और श्रीमती तिवारी थोड़ा आगे निकल गए थे। अंगरेज महिला ने मुस्करा कर जोखू से ‘थैक यू’ कहा और तिवारी जी और श्रीमती तिवारी की ओर इशारा करते हुए घृणा से बोली – ‘आई हेट दीज इंडियंस।’

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डॉक्टर जोखू प्रसाद पुलक से भर उठे। अपने अंगरेज जैसा दिखने का पता तो उन्हें पहले से था। कभी भारत आते तो इस बारे में लोगों की टिप्पणियाँ सुनते-सुनते उनके कान पक जाते थे लेकिन उस अंगरेज महिला ने उनके पूरे व्यक्तित्व पर अंगरेज होने की जैसे पक्की मोहर लगा दी थी।

डॉक्टर जोखू प्रसाद दो-तीन साल में अपने देस आते तो वहाँ यू.के. में उनका रहन-सहन देख चुके तिवारी जी और श्रीमती तिवारी के लिए वह मुअज्जिज मेहमान जैसे होते। डॉक्टर जोखू प्रसाद ज्यादातर मामलों में यहाँ की रोजमर्रा की दिक्कतों को जिज्ञासु भाव से सुनते और ‘ओऽ आई सी’ जैसा कुछ बोल कर चुप हो रहते। अंगरेजी वह पहले भी अंगरेजों की ही तरह बोलते थे, कुछ वर्षों बाद कंधों के उचकने, हाथों के संचलन और किसी छोटी सी बात पर भी उनके मुँह से निकलनेवाली आह्लादकारी चीखों ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी थी। वह किसी साधारण सी बात को भी आश्चर्य से आँखें फैला कर सुनने लगे थे, थाली में रोटी रखे जाने जैसे किसी छोटे से काम के एवज में भी आरोह-अवरोह के साथ ‘थैंक यू’ बोलने लगे थे और सड़कों पर घूम रहे कुत्तों और गायों को देख कर इस बात को निश्चित तौर पर कहने लगे थे कि इंडिया का कुछ नहीं हो सकता। उनके पर्स से रुपये निकालने, पेन पकड़ने और यहाँ तक कि छींकने के बाद रूमाल से नाक साफ करके ‘एक्सक्यूज मी’ कहने की भी उनकी अपनी अलग अदा हो गई थी।

उस बार डॉक्टर जोखू प्रसाद भारत आए तो छोटे क्लासों में साथ पढ़ चुके साथियों ने पकड़ लिया। वे सब एक शाम डॉक्टर जोखू के साथ बिताना चाहते थे। वे सब वहाँ की जिन्दगी, वहाँ के समाज और खुद डॉक्टर जोखू के जीवन के बारे में जानने को उत्सुक थे। उन्होंने डॉक्टर जोखू प्रसाद की प्रतिष्ठा और रुचि के हिसाब से एक अच्छे होटल के एक कमरे में उनके साथ मिल बैठने की व्यवस्था की।

अपने साथियों के बीच अलग से चमक रहे डॉक्टर जोखू प्रसाद होटल के रिसेप्शन से लेकर कमरे में आ-जा रहे वेटरों तक के बीच फुसफुसाहट और तरह-तरह के अनुमानों के केन्द्र-बिन्दु बने हुए थे। जिन वेटरों की उस कमरे में ड्यूटी नहीं थी वे भी इस कमरे के वेटरों से सुन कर किसी न किसी बहाने कमरे में आते और जोखू प्रसाद को एक निगाह देख जाते।

जाम लबरेज थे। जोखू प्रसाद सहित छः लोगों की अँगुलियाँ अपने-अपने गिलास थामे थीं, पर पीने का होश किसी को नहीं था। सब जोखू प्रसाद को सुन कम देख ज्यादा रहे थे।

‘ यूनाइटेड किंगडम में इंग्लैंड के पास कोयले और लोहे के सिवाय और था ही क्या? और आयरलैंड के लोग? एकदम असभ्य, अनकल्चर्ड, आवारा और बेशऊर। ग्रेट ब्रिटेन का सूरज जो कभी अस्त नहीं हुआ करता था, उसका एकमात्र कारण था – स्कॉटलैंड। स्कॉटिश यानी ‘ब्ल्यू ब्लड’। राज परिवार का एकदम शुद्ध,बगैर किसी मिलावट का, एकदम खाँटी योद्धाओं का, शासकों का और अपने होने को सिद्ध और सार्थक करनेवाला खून। महान लार्ड क्लाइव स्कॉटलैंड का ही था जिसने इस देश में अंगरेजी शासन की नींव रखी। पूरे ग्रेट ब्रिटेन को राजा देने वाला – स्कॉटलैंड। स्कॉटलैंड जिसने अपनी बुद्धि और सूझबूझ से दुनिया में जासूसी करने वाली सबसे बड़ी संस्था खड़ी की, स्कॅाटलैंड यार्ड और स्कॉटलैंड जिसने दुनिया को दी, यह अनमोल स्कॉच व्हिस्की। तो गाइज, उसी स्काटलैंड के नाम पर ‘चियर्स’। डॉक्टर जोखू प्रसाद ने अपना गिलास उठाया तो चारों ओर से पाँच गिलास उठे और उन्होंने खनकदार हँसी के साथ जोखू प्रसाद के स्कॉटलैंड को चूम लिया।

तभी होटल के एक वेटर ने मेजबान के कान में फुसफुसा कर कुछ पूछा।

‘जरा हम भी तो सुने, क्या कह रहे हैं आप चुपके-चुपके?’ हमेशा खिलंदड़े और खिले-खिले मूड में रहने वाले डॉक्टर जोखू प्रसाद ने वेटर से पूछा।

‘ये पूछ रहा है कि क्या साहब अंगरेज हैं?’ मेजबान ने मुग्ध-भाव से जोखू प्रसाद की ओर देखते हुए बताया।

‘अरे यार, तुमने तो मेरी इन्सल्ट कर दी, गाली दे दी तुमने मुझे’, डॉक्टर जोखू प्रसाद ने ‘ठक्’ की आवाज के साथ गिलास मेज पर रखते हुए कहा।

महफिल में सन्नाटा खिंच गया। लोग गंभीर हो गए। वेटर सकपका गया। सभी लोगों को लगा कि एक भारतीय को अपने आप को अंगरेज कहे जाने से तकलीफ पहुँची है, उसने अपने आप को अपमानित महसूस किया है।

‘नहीं मेरे दोस्त, मैं अंगरेज नहीं हूँ, मैं स्कॅाटिश हूँ।’

जोखू प्रसाद, जेपी, बीस बिस्वा की आँक वाले चट्टू के तिवारी, कनौजिया बाभन, डॉ0 जोखू प्रसाद तिवारी ने वेटर को उसकी भूल सुधारते हुए बताया। और ऐसा करते समय उनके जरा सा मुस्करा देने से चेहरे पर चढ़ गए गुस्से के मुखौटे पर दरार-सी पड़ती दिखाई दी जिससे पता लगता था कि उन्होंने वेटर को उसके इस अपराध के लिए क्षमा कर दिया है।

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