घुटनों घुटनो धूप | प्रेमशंकर मिश्र
घुटनों घुटनो धूप | प्रेमशंकर मिश्र

घुटनों घुटनो धूप | प्रेमशंकर मिश्र

घुटनों घुटनो धूप | प्रेमशंकर मिश्र

घुटनों घुटनों धूप
धूप में बिखरा पीला रूप
कि जैसे हेमंती दुप‍हरियाँ।

थाली पर की बूँद सुरीली
टपके और फट जाए
सरकारी कागज पर जैसे
नाम चढ़े कट जाए।
अँजुरी अँजुरी प्‍यास
प्‍यास से कही अधिक विश्‍वास
कि रीति भरि भरि जाए गगरिया… घुटनों… ।
बाती जरे नेह के सँग-सँग
दुनिया काम चलाए
ऐसी महके देह कि जैसे
कुछ करके पछिताए।
खट्टी-मीठी बात
बात ज्‍यों फटे ढाक के पात
कि मैली धुलि-धुलि जाए चुनरिया… घुटनों… ।
आग लगे सोने के घर में
कोयला तपे अँगारा

अपनी-अपनी भाप
कि पँछी मुरझे खेल तुम्‍हारा
वन वन ढूँढ़े गंध
गंध का अंतर से संबंध
कि घायल सूँघत फिरे डगरिया।
घुटनों घुटनों धूप… ।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *