एक्सट्रा वर्जिन | ज़ेब अख्तर
एक्सट्रा वर्जिन | ज़ेब अख्तर

एक्सट्रा वर्जिन | ज़ेब अख्तर – Extra Virgin

एक्सट्रा वर्जिन | ज़ेब अख्तर

जैसे कोई पिल्ला पहियों के नीचे आ गया हो। और चिच्यूयय… की जानी पहचानी आवाज के साथ रोमिला की लंबी सी सफेद कार नर्सिंग होम के सामने आकर रुकी।

बेसिन में हाथ धोते हुए खिडकी से ही साउल ने उसे देख लिया। अब हो गई चार-पाँच घंटे की देरी। उसने दीदी मैम को बता दिया था कि आज उसे जल्दी जाना है। बल्कि पिछले आठ-दस दिनों से वह दीदी मैम को यह कहती आ रही थी। दीदी मैम ने कहा भी था चली जाने को। लेकिन ऐन निकलने के वक्त कोई गंभीर रोगी आ जाता या रोमिला मैम की तरह कोई रसूख वाली। ऊँची हस्ती। गंदगी साफ कराने। फिर उसे रुकना पड़ जाता।

मिसिल नर्सिंग होम के बाहर रोज उसकी राह देख कर लौट जाता। वह तो खैर था कि उसे गुस्सा कम आता था। बेचारा चुपचाप लौट जाता था। वह साउल की मजबूरी समझता था। साउल के बाबा को पैसों को सख्त जरूरत थी। गाँव के ही कुछ दलालों ने उसकी जमीन को एक कंपनी को बेच दिया था। ऐसा कई-कई लोगों के साथ हुआ था। वहाँ एक बड़ा कारखाना लगाने की बात चल रही थी। कहा जा रहा था, लोगों को यही रोजगार मिलेगा। फिर मजदूरी के लिए हरियाणा, पंजाब और दिल्ली जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। फिर भी गाँव वाले अपनी जमीन को छोड़ने के लिए तैयार नही हो रहे थे। मामला अदालत में चला गया था। बाबा ने एक दिन वहाँ से लौटते हुए कहा था, निचली अदालत ने कंपनी के हक में फैसला दे दिया है। अब ऊपरी आदलत में अपील करनी होगी। इसके लिए काफी पैसे की जरूरत पड़ेगी। शायद 20-30 हजार। हो सकता है दिल्ली भी जाना पड़े। साउल सुन रही थी सब। उसका इकलौता भाई विवाह के बाद पत्नी और दारू का हो कर रह गया था। तब उसने खुद आगे बढ़कर बाबा की मदद करने की सोची थी। अपनी जमीन बचाने की सोची थी। भला हो दीदी मैम का जिसने उसे ऐसे समय में सहारा दिया था। नर्सिंग होम में उसे नौकरी मिल गई थी। 2500 रुपए का वेतन और यहीं रहने का मुफ्त बंदोबस्त। मिसिल ने जब यह जानकारी दी तो उसने तुरंत मंजूर कर लिया था। वह गाँव से शहर आ गई थी।

कितनी खुश थी वह यह नौकरी पा कर। उसने अपने आप को निहारा था। आइने के सामने खड़े होकर सफेद यूनिफार्म में। सफेद स्कट, सफेद कोट जैसी शर्ट और सर पर सफेद स्कार्फ में वह पुलकित हो उठी थी। इस सफेदी में उसका काला रंग और गोल चेहरा और निखर गया था। माथे पर तीन बिंदुओं का काला काले तिल जैसा निशान उसे अलग से मोहक और मादक बना रहे थे। हालाँकि वह इस निशान से कभी-कभी झुँझला उठती थी। पिछले साल ही जब इंटर की पढ़ाई के लिए कॉलेज जाने लगी तब सोचा था, ऑपरेशन कर इसे मिटा देगी। तब माँ ने सझाते हुए कहा था, पगली यह हमारा प्राकृतिक श्रृंगार है। इसे हम से कोई नहीं छीन सकता, मृत्यु के दिन तक साथ रहेगा यह श्रृंगार। यह पहचान है हमारी। तब माँ की बातों का मर्म समझ सकी थी वह।

पहले से काम करने वाली सिस्टर सविता ने उसे धीरे-धीरे काम समझाना और सिखाना शुरू कर दिया था। साथ ही कई नए शब्द सीखे थे उसने…आरएच फैक्टर, थैलेसिमिया, हीमोफीलिया, रेटिनोब्लासटोमा, अल्ट्रासाउंडस, पल्विक अल्ट्रासाउंड, सोनोग्राफी। बड़ी तेजी से वह सब सीखने लगी थी। फिलहाल उसके हिस्से आया था इंजेक्शन देना, चार्ट देख कर दवाई देना, आपरेशन के समय पेशेंट के पैर सीधा करना, कराहने चिल्लाने पर उसे सँभालना। और आखिर में शरीर से निकला कचरा और खून ले लथपथ लोथड़ों को उठाकर फेंकने का काम। सफाई के बाद कई बार स्टील के पेन में वह लाल लोथड़ा कुछ हरकत करता दिखाई पड़ता। कुछ कुलबुलाता जैसा। और कई बार एक साबूत बच्चा भी होता। दीदी मैम की उँगलियाँ उसे बड़ी सफाई से नींद का इंजेक्शन देकर सुला देती थी। इन सभी को उठा कर नर्सिंग होम के पिछवाड़े फेंकते-फेंकते अब वह इसकी आदी हो गई थी। शुरू में कैसे उल्टियाँ और उबकाई आती थी, उसे याद है। लेकिन धीरे-धीरे उसने सब बर्दाश्त करना सीख लिया था। आश्चर्य के समय फैलती आँख की पुतलियों को नियंत्रित करना सीख लिया था। क्योंकि दीदी मैम ने एक बार उसकी इस हरकत पर डाँटते हुए कहा था, इट्स नाट अ गुड मैनर… अ नर्स शुड बी नॉर्मल इन एनी सिचुएशन…

सिस्टर सविता ने तब अपना-मुँह बनाते हुए कहा था, हुँह नर्स… नर्स के नाम पर इन्हें गंदा खून और बदबूदार मांस फेंकने वाला एक आदमी चाहिए…

सविता दीदी दिन में एक एनजीओ में काम करती और रात को नर्सिंग होम में। कहती थी उसे अपने बेटे को पढ़ाने के लिए बहुत सारे पैसों की जरूरत थी। बेटा किसी बड़े शहर में रहकर पढ़ाई कर रहा था। उनका एनजीओ लोगों को एड्स से बचाने के लिए काम करता था। बताती थी, यह एक बड़ा एनजीओ है। देश ही नहीं विदेशों तक में फैला हुआ था इसका नेटवर्क। उन जैसी हजारों महिलाएँ और पुरुष इसमें नौकर हैं।

पहली मुलाकात में ही सिस्टर सविता ने उसे इतना बता दिया था। लेकिन बाद में चला था कि उनके पति ने उनको छोड़ दिया था और अपनी रखैल के साथ रहा था। हद तो तब हो गई थी जब सविता की ओर से विरोध करने पर कुछ महिला संगठनों ने उल्टे मनीष की रखैल का ही समर्थन किया था। अब सिस्टर सविता नर्सिंग होम के ही स्टाफ लाइन में रहती थी। किताबों से भरे अपने कमरे में। गुस्सा उनके चेहरे पर डबकते चावल की तरह खौलता रहता था।

और उस दिन उबलते हुए कहा था उन्होंने, धीरे-धीरे पता चलेगा तुम्हे यहाँ का चाल-चलन… शहर भर के लिए गटर है यह नर्सिग होम… यहाँ माएँ बच्चों पर ममता नहीं एसिड और पॉयजन छिड़कने आती हैं, दवाइयों की शक्ल में… मगर देख तुझे पैसों की जरूरत है …न …क्या बताया था, मुकदमा लड़ना है तुझे अपनी जमीन बचाने के लिए …तो चुप रहना यहाँ… खटर-खटर मत करना जगह-बेजगह… गूँगी और अंधी बन कर रहना होगा यहाँ। डॉक्टर मैम ने यह सब तुम्हें बताने के लिए कहा है मुझे…

और सचमुच कुछ ही महीनों में साउल पत्थर की मूरत बन गई थी। उसने कम बोलना भी सीख लिया था। चुप रहना सीख लिया था। चेहरे को सपाट बनाना सीख लिया था।

और अब तो नर्सिंग होम के पिछवाड़े जाने से उसे डर नहीं लगता था। हल्के धुंधलके में पसरा वहाँ का सन्नाटा उसे पहचानने लगा था। इस अहाते में श्हर के न जाने कितने राज, कितने गुनाह, कितनी जानें दफन थीं। लगता था चहारदीवारी के बाद भी इतनी जगह जान-बूझ कर छोड़ी गई थी। साउल बार-बार इस पिछवाड़े की तुलना नर्सिंग होम के चमचमाते, साफ-सुथरे रिसिप्शन और वहाँ लगे सफेद चिकने टाइल्स से करती। जो अँधेरे में भी चमकती रहती और छूने पर हमेशा ठंडी लगती। वहीं पर एक कोने में एक बड़ा एक्वेरियम रखा हुआ था। उसमें तरह-तरह की रंगीन मछलियाँ थीं। छोटी-छोटी और बहुत प्यारी, नाजुक मछलियाँ। गोड़ामिन, किसिंग फिश, ईगल, टाइगर फिश, इंडियन गलैशिश, सकर माउथ कैट फिश, गोल्ड फिश, टैक्सा सीचाइल्ड, जिन्हें हाथ में लेकर छूने का मन करता था। और वही था एक बड़ा सा लंबे आकार का स्टील फ्रेम। इस पर बाज और सिंरिंज से लिपटा नाग था। किसी दवा बनाने वाली कंपनी का लोगो। काले रंग का यह नाग इतना सजीव दिखाई पड़ता था कि अचानक इस पर नजर पड़ने पर साउल कई बार डर चुकी थी। लेकिन यह बात सिर्फ वही जानती थी। वो बार-बार सोचती इन सबमें ज्यादा असली कौन है। दीदी मैम, नाग, मछलियाँ, सविता सिस्टर, पिछवाड़ा या रिसिप्शन की चमक। लेकिन वह बार-बार गड़बड़ा जाती। कुछ घालमेल हो जाता। फिर अपने आप झल्ला जाती। उसे क्या वाले अंदाज में। फिर उसे बाबा का ख्याल आ जाता। उसकी जमीन का टुकड़ा सामने आ जाता और वह ये सब भूल कर इस महीने बचाए पैसों का हिसाब जोड़ने लगती। उँगलियों पर।

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और हर बार निराशा ही हाथ लगती। इतने कम पैसों में शायद ही कभी उनकी जमीन बच पाए। रात के एकांत में नर्सिग होम के अपने स्टैक्टर नुमा बिस्तर लेटी-लेटी वह रुआँसी हो जाती। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों से एक धार बहने लगती। कांची जैसी। जो उसके गाँव से हो कर गुजरती थी।

ऐसे ही समय में उसने अखबार में पढ़ा था। मुख्यमंत्री कन्या दान योजना के बारे में। उन जैसे गरीब, आदिवासी परिवारों को सरकार विवाह के लिए दस हजार रुपये दे रही थी। बिजली की तरह उसका दिमाग में कौंधा था। इतने पैसे और उसके पास बचा कर रखे पैसों से बाबा आसानी मुकदमा लड़ सकते थे। लेकिन यह इतना आसान भी नहीं था। मिसिल ने बताया था, जाति, आवासीय और बीपीएल कार्ड की जरूरत पड़ती थी इसके लिए। तभी साबित होगा कि तुम गरीब हो… फिर जरा नजदीक आते हुए मिसिल ने कहा था, और फिर एक लड़के की भी जरूरत पड़ेगी इसके लिए।

दूर हटो… उसे झिटकते हुए साउल ने कहा था। यह बताओ यह कागजात बनने में कितने दिन लगेंगे।

पंद्रह-बीस दिनों की लगातार भागदौड़ के बाद यह कागजात भी बन गए थे। यहाँ वहाँ बाबुओं को को ले-देकर कुल चौदह-पंद्रह सौ रुपये का खर्च पड़ा था। यह पैसे साउल ने दिए थे। दीदी मैम से एडवांस माँग कर। इन्हें अब ब्लाक आफिस में जमा करना था। सचमुच का नहीं तो दिखावे का विवाह तो हो ही सकता था। मिसिल फिर काम आया था। वह इसके लिए तैयार हो गया था। दोस्ती या मेलजोल जैसा था भी दोनों के बीच।

लेकिन पहले ब्लाक में यह आवेदन जमा तो हो। साउल ने एक लंबी उसाँस भरी। फिर जैसे अपने आप से कहा, आज फिर नहीं जा सकेगी वह। हाथ धोते हुए ही उसने पीछे मुड़कर देखा। रोमिला मैम नर्सिंग होम की सीढ़ियाँ चढ़ रही थी। धीमी मगर एक मदमस्त चाल। उसके पीछे-पीछे थुल-थुल शरीर वाला सक्सेना इंटरेंस की सीढ़ियाँ चढ़ रहा था। साउल जब भी उसे फिर से हैरत होने लगती। लगता वह नशे में है। कितनी बेफिक्री से आती है सफाई करवाने। और दीदी मैम भी कितने अच्छे से मिलती है उससे। जैसे वह बुखार, सर्दी या मामूली चोट का इलाज करवाने आती थी।

उसे याद है, जब पहली बार रोमिला नर्सिंग होम आई थी, तो उसके साथ एक लड़का भी था। लड़का भी रोमिला जैसा ही खूब गोरा रुई के फाहे जैसा मुलायम चमड़ी वाला। वह बहुत घबराया हुआ था। उसके घुँघराले बालों के नीचे से पसीने की बूँदें रिस रही थीं। दीदी मैम ने उसे सोफे पर बैठने के लिए कह कर नर्वस होने से मना किया था।

टेक इट इजी… टेक इजी माइ ब्वाई… आइ विल किलियर इट वेरी स्मूथली… दिस इज वैरी नॉर्मल यू नो…

लेकिन आंटी… हकलाने लगा था वह लड़का, दिस इज टू लेट… इट्स मोर देन थ्री मंथ…

आइ सी… आई सी माइ सन… डोंट बोदर…

तभी दीदी मैम की मोबाइल भर्रा उठी थी। दीदी मैम का का मोबाईल हमेशा वाइब्रेशन मोड में रहता था।

यस… यस खन्ना साहब… दोनों पहुँच गए हैं… मैं देख लेती हू… मैंने कभी मना किया आपको… नो सर नो… आपको आने की जरूरत नहीं… हो जाएगा सब… जी राहुल है… ओके सर… लीजिए… मैं बात करवाती हूँ…

कहते हुए दीदी मैम ने लड़के की ओर मोबाइल बढ़ा दिया था। वह घबराते हुए दीदी मैम को देखने लगा था। तब उन्होंने कहा था, अरे लो… तुम्हारे पापा का कॉल है… कुछ ज्यादा ही परेशान हो रहे हैं…

धीमी आवाज में सिसकती रोमिला तब तक चुप हो गई थी। दीदी मैम ने दोनों को फ्रीज से फ्रूटी निकाल कर पीने को दिया था। अपने हाथों से। और फिर अगले तीन-चार घंटों में सब कुछ सामान्य हो गया था। सफाई के बाद स्टैक्चर पर से बेहोश रोमिला को बाहर लाते हुए दीदी मैम ने लड़के से कहा था, अब तुम जा सकते हो, कुछ देर में रोमिला होश में आ जाएगी, बट यू आर लकी… कि आपको खन्ना साहब जैसे पापा मिले हैं।

जाते-जाते राहुल ने एक नजर भर देखा था मुर्दा-सी पड़ी रोमिला को। होश में आने पर रोमिला भी चली गई थी। देखने में उसका चेहरा किसी प्लस्टिक की गुड़िया की तरह मासूम लग रहा था। किसी बहुत अच्छे बच्चे की तरह वह अपने कपड़े उठा कर खुद ही पहनने लगी थी। फिर दीदी मैम की गाड़ी गई थी उसे घर छोड़ने।

और कुछ ही महीनों के बाद रोमिला फिर आई थी। लेकिन इस बार उसके साथ राहुल नहीं यह अधेड़ आदमी था उसके साथ था। सोफे पर पसरा हुआ। गले और हाथों में सोने की मोटी चैन। फुटबाल की तरह निकली तोंद। बड़ा सा चेहरा और उसपर मोटी-मोटी मूँछें। ठुड्डी तक झूलती हुईं।

साउल ने सिस्टर सविता से चुहल करते हुए कहा था, सिस्टर यह आदमी तो टीवी में दिखाए जा रहे ड्रामे के रावण जैसा लगता है…

चुप शैतान, यह शहर का जाना-माना बिजनस मैम सक्सेना साहब है। साउल ने पलट कर देखा था सक्सेना की तरफ। वह परेशान दिख रही रोमिला को दीदी मैम के सामने ही चूमे जा रहा था, यू आर अपसेट… ओह नो …नाउ यू आर ब्रांड एंबेस्डर ऑफ माइ कंपनी।

सिस्टर सविता ने साउल के कान में फुसफुसाते हुए कहा था, पटा लिया है रोमिला ने इस गेंडे को। हैरत से खुली रह गई थी साउल की आँखें। सक्सेना को वह अब तक रोमिला का पिता मान रही थी।

सिस्टर सविता ने आगे कहा था, आए थे रोमिला के पापा देहली से बेटी को ले जाने। लेकिन रोमिला ने ही मना कर दिया?

मना कर दिया… लेकिन क्यों?

वो अपनी जिंदगी जीना चाहती है… अपने ही तरीके से…

इस मोटे के साथ …?

हाँ, रोमिला को इसी तोंदिल में स्कोप दिखा…

और राहुल…?

डार्लिंग …राहुल से शादी करने का मतलब होता… मि. खन्ना से बैर लेकर रोज-रोज की चिख-चिख… घर से ही निकाल देते मि. खन्ना दोनों तोता मैना को… बेदखल भी कर सकते थे प्रापर्टी से… इसका मतलब होता सारी सुविधाओं से वनवास… तो अब कौन सीता बन कर वनवास की पीड़ा झेलता है… तो तोड़ दी गई लक्ष्मण की खींची रेखा… रोमिला ने देख लिया उसके लिए सक्सेना… उसके लिए रावण नहीं बल्कि एक सुनहरा अवसर है… राहुल से कहीं ज्यादा स्कोप …कैरियर, पैसा, बुलंदी, ग्लैमर

कहते हुए अपने काम में लग गई थी सिस्टर सविता। ठगी सी खड़ी रह गई थी साउल। उसके मोटे दिमाग में कुछ अटा, कुछ छिटक कर बाहर, दूर जा गिरा था। जैसे पानी से निकल कर मछली छटपटाती हो।

इधर सक्सेना दीदी मैम के साथ बातें करने लगा था। बहुत सामान्य हो कर। एक सफल कारोबारी की तरह वह दीदी मैम से फीस के पैसे के लिए बारगेन कर रहा था। बातों के बीच उसने भरपूर नजरों से देखा था साउल की ओर, और बहुत भद्दे तरीके से एक आँख दबा दिया था। फिर दीदी मैम की ओर देखते हुए मुस्करा कर कहा था, ‘इंडियन ब्यूटी का भी जवाब नहीं डॉक्टर… मैं फोरेन में हर जगह कहता हूँ… कि वेस्टर्न की बिकनी से ज्यादा अपील यहाँ की साड़ी और सलवार में है। अगर एक बार ये इंटरनेशनल मार्केट में उतर जाएँ तो छा जाएँगी विदेशी मॉडलों पर।’

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साउल वहाँ से हट गई थी और दीदी मैम झेंप कर थैक्स… थैक्स करने लगी थी।

जाते-जाते दीदी मैम को एक कार्ड दिया था सक्सेना ने। सुनहले रंग का। जैसे सोने की परत चढ़ी हो उस पर। अकेले में साउल ने खोल कर देखा था उसे। किसी बड़ी पार्टी का निमंत्रण कार्ड था वह। अंदर रोमिला की एक मोहक तसवीर छपी थी। नाभि दर्शना पीली साड़ी और पूरी बाँह वाली ब्लाउज में। हाथों भरी-भरी चूड़ियाँ और लंबे-लंबे बाल। पूजा की मुद्रा में बैठी। सामने भगवान की मूर्ति और जलती अगरबत्ती की लंबी सी लौ। जिन्होंने रोमिला के पूरे शरीर पर कई चक्करों में घेरा बना रखा था। वहीं मोटे अच्छरों में हिंदी में लिखा हुआ था, श्रद्धा और पवित्रता का प्रतीक… श्रद्धा धूप और अगरबत्ती। स्पांसर्ड बाई यूएस इंटरनेशनल फ्राजरेंस। फिर देखते-देखते यह विज्ञापन शहर, राज्य और फिर देश भर के टीवी चैनलों पर छा गया था। मगर रोमिला का नर्सिग होम में आना जारी रहा। हाँ, समय का अंतराल घटता-बढ़ता रहता।

और आज रोमिला फिर आई थी। होर्डिंग्स और पोस्टर से निकलकर वह उसके सामने खड़ी थी। मिसिल ने बताया था, सक्सेना ने उसे अपनी कंपनी से अलग कर दिया था। रोमिला ने उन पर मुकदमा कर दिया था। कैसे-कैसे तो आरोप थे। और अब उसने सक्सेना से भी बड़ी एक कंपनी के साथ एग्रीमेंट किया था। राजधानी के एक पाँच सितारा होटल में इसकी ग्रैंड पार्टी दी गई थी। स्थानीय अखबारों ने उसे – जिन पर है गर्व वाले कॉलम में छापा। एक अखबार में पूरे पन्ने का परिशिष्ट ही निकाला था रोमिला की उपलब्धियों पर। वही रोमिला इस समय जींस और तंग टीशर्ट में उसके सामने थी। एक बार दीवारों से पूछा था, साउल ने कि इतने तंग कपड़े ये लोग बदन में डालते कैसे हैं… उसका आदिम मन जंगल में भटकने लगता, जहाँ सब कुछ खुला और अनावृत होता था। आसमान में उड़ते पंक्षी की तरह। उसने सोफे पर लदी रोमिला को फिर से देखा। उसे घुटन सी होने लगी। मगर आदत के मुताबिक खुद को नार्मल किया और दीदी मैम को बुलाने अंदर चली गई।

मिसिल को उसने लौटने के लिए कह दिया था। कल फिर आने की मिन्नत के साथ। लेकिन तीसरे ही दिन उसे छुट्टी मिल गई थी। दरअसल उस दिन दीदी मैम ने कोई व्रत रखा था। पूरे नर्सिग होम को धोया और साफ किया गया था। शाम की पूजा और हवन के लिए।

बस से उतरते ही साउल ने अपने नथुनों को पर जोर देकर ढेर जोर ढेर सारी खुशबू को अपने अंदर भरने की कोशिश की। अपने मिट्टी की खुशबू। सोंधी-सोंधी। उड़हुल के फूल और बेला के साथ भींगी मिट्टी की इस खुशबू के लिए वह पिछले दस महीनों से तरस रही थी। उसे मिट्टी की यह खुशबू प्यारी थी। अभी-अभी बारिश हुई थी। फिर हल्की धूप निकली थी। जिसने इस खुशबू का प्रवाह और बढ़ा दिया था।

मिसिल मुस्कराया। उसका बचपना नहीं गया था। लेकिन यही तो पसंद था, मिसिल को। जब साउल हँसती तो लगता उसके सफेद दाँत मोतियाँ बरसा रहे हैं। माथे और गाल पर छोटा सा तिल अलग से मन मोहते। जूड़ों का खोपा और उसमें लगी बाँस की घिरनी। साउल किसी सुंदर मूर्ति की तरह की लगती थी। काली मिट्टी से बनी। यह सब मिसिल को पसंद थे।

और ब्लाक के बाहर खड़े मिसिल को अभी भी कई युवा इसी ईर्ष्या के साथ देख रहे थे। यहाँ विवाह का आवेदन देने के लिए लड़के-लड़कियों की भीड़ लगी हुई थी। एक ओर खड़ी साउल इस वक्त भी अपने ही ख्यालों में खोई थी। वह बाबा लेकर शहर जा रही है। अस्पताल पहुँचती है। बाबा का ऑपरेशन होता है। फिर वो अपने पैरों पर चलते हुए गाँव लौटते हैं। सभी बाबा का हालचाल पूछते हैं। साउल की पीठ थपथपाते हैं। और साउल मरी जा रही है, चेहरे पर का काला तिल और बड़ा होकर चमक उठता है।

तभी अचानक पता चला कि आवेदन देने वाली लड़कियों का टेस्ट होगा।

किस लिए? कई ने पूछा था एक साथ, अचरज से भर कर।

चेक किया जाएगा कि लड़की कुँआरी है या नहीं? क्योंकि यह योजना सिर्फ कुँआरियों के लिए है…

तब तो लड़कों का भी टेस्ट होगा?

नहीं? उनका टेस्ट नहीं होगा।

यानी वो कुछ भी कर लें कुँआंरे ही बने रहेंगे।

अब जो हो, अभी तो साहब ने यही कहा है कि लड़कियों का टेस्ट होगा तभी आवदेन जमा लिया जाएगा।

पिछली बार कई विवाहित लड़कियों ने आवेदन देकर सरकार से मिलनेवाला पैसा उठा लिया था। अबकी बार पैसा सिर्फ कुँआरे जोड़ों को मिले इसके लिए ऐसा किया जा रहा है।

हल्की सर्दी के बावजूद कई लड़कियों के चेहरे पर पसीने की बूँदें छलक आई थीं। दुल्हन बनने के सपनों के बीच जैसे कोई खूँखार जानवर आ गया था। जंगल से निकल कर। लड़कियाँ शर्म से गड़ी जा रही थी। किसी की आँखों में आँसू छलक आए तो किसी ने दीवार में ही छिपाने की कोशिश की खुद को। उसी दीवार में जिस पर राज्य के मुख्यमंत्री की बड़ी सी तस्वीर बनी थी, बेटियों के पाँव धोते हुए। वर्ष को बेटियों के नाम करते हुए। लेकिन इस पर शायद ही किसी की नजर थी। सस्ते और हल्के मेकअप में जो लड़कियाँ कुछ देर पहले एक दूसरे को छेड़ रही थीं, पैर के अँगूठे से घास कुरेद रहीं थी, उनके उत्साह को इस नई सूचना ने रौंद कर रख दिया था। साउल भी इसी भीड़ में शामिल थी। अगर किसी कारण से डॉक्टरनी ने उसे पास नहीं किया तो?

उसी के गाँव से आई सरिता बता रही थी, सारे कपड़े उतार कर होगा टेस्ट…

अभी-अभी एक निजी कंपनी ने नौकरी के लिए दो दर्जन लड़कियों का प्रेगनेन्सी टेस्ट लिया है

और कहाँ तो राज्य ने इस साल को बेटियों का वर्ष घोषित किया है।

हे भगवान मैं तो नहीं कराऊँगी मैं यह टेस्ट…।

सुनने में आ रहा है लेडिज डाक्टरनी आई है शहर से इसके लिए…।

वहाँ और कोई नहीं रहेगा।

क्या पता लेडिज के साथ कोई मरद भी हो तो…।

इन सबसे अलग एक तीखी आवाज उभरी थी, मिसिल की, भीख देने के लिए भिखारी होने का सबूत माँग रहे हैं।

गुस्से से उबलने लगा था वो। साउल से साफ-साफ शब्दों में कहा था वापस चलने के लिए। मगर साउल हाँ या ना की स्थिति में खड़ी थी। कई लड़कियाँ वापस लौट भी गई थी। कहाँ तो उनके यहाँ वर पक्ष ही वधू पक्ष को उपहार और मयसार देता था। खुद बाबा ने दिया था भाई के विवाह में, दो जोड़ी बैल और दो बछिया। यही नहीं सिड़ुम यानी, हाथ जोड़ने की प्रथा है वधू पक्ष के घर आकर। मिन्नत समाजत करता था अगुवा। कई-कई दिन और महीने लग जाते थे, तब कहीं जाकर विवाह के लिए लड़की वाले तैयार होते थे। यहाँ उसके उलटे दहेज और शादी का खर्च के नाम पर लड़कियों को जमा किया गया। कैसा-कैसा तो हो आया था साउल का मन। सारा उत्साह बर्फ बन पिघलने लगा था। और तैर गया था उसमें उनकी जमीन का टुकड़ा। मिसिल अलग से मिला था बड़ा बाबू से। कि शायद कुछ ले देकर टेस्ट टाला जा सके। तंबाकू वाले गंदे दाँतों को चमकाते हुए बड़ा बाबू ने सामने बैठी साउल का एक ही नजर में एक्स-रे जैसा कर लिया था। लोलुप दृष्टि से साउल की ओर देखते हुए दो दिनों के बाद आने के लिए कहा था।

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मिसिल को लेकर वापस बस अड्डे पर आ गई थी साउल। मुरझाए, उदास और हारे हुए चेहरे के साथ।

बस में अभी देरी थी। मिसिल साउल को लेकर पास के एक सस्ते होटल में आ गया था। चाय पीते हुए वहीं अखबार उठा लिया था मिसिल ने। उसका गुस्सा अब कम होने लगा था। पढ़ते-पढ़ते शरारत से देखने लगा था वह साउल की ओर। हुड़क कर उसके हाथों से अखबार ले लिया था साउल ने। फिर आदत के अनुसार बुदबुदा कर पढ़ने लगी थी, …एक डेवलप कंट्री की छात्रा ने अपने वर्जिनिटी की बेचने के लिए इंटरनेट पर ऑफर जारी किया है… और इसकी कीमत लगी है दस हजार डॉलर…।

उसने मिसिल की ओर देखा था। वह अभी तक शरारत से मुस्करा रहा था। लेकिन साउल कहीं और खो गई थी। गालों पर एक एक उँगली टिका कर माथे पर लिए बल के साथ उसने पूछा था, दस हजार डॉलर में कितने रूपए कितने होंगे… इतने में तो उसके बाबा आराम से मुकदमा लड़ सकते थे। पूरे गाँव के तरफ से दिया जा सकता था मुकदमे का खर्च। बच सकती थी उन सबकी जमीन। मगर ये वर्जिनिटी टेस्ट… यह जमीन के साथ उनकी अस्मिता को भी लूटने में पड़ा हुआ था। सोच रही थी बस की सीट पर उदास बैठी साउल। और खिड़की से दिखाई पड़ रहे थे सड़क के दोनों ओर लगे बड़े-बड़े होर्डिंग्स। और खूबसूरत बाथ टब में ढेर सारे झाग के बीच अधनंगी लेटी रोमिला। मादक मुस्कान बिखेरती हुई। और वहीं लिखा हुआ था, आपकी मुलायम त्वचा के लिए… एक्सट्रा वर्जिन शैंपू और फाइंडेशन। एक्सट्रा वर्जिन। बहुत देर तक साउल के ओठों से चिपके रहे ये शब्द। बिना किसी के कहे कानों में ध्वनि बनकर गूँजते रहे ये शब्द। कई दिनों तक ये शब्द साउल का पीछा करते रहे, प्रेत बनकर। उसे बेचैन करते रहे। और उस रात भी वो सो नहीं पाई थी।

उसने एक डरावना सपना देखा था उनींदी आँखों से। कैलेंडर वाला साँप कैलेंडर से निकलकर रेंगते हुए उसके पास पहुच गया था। धीरे-धीरे वह उसके शरीर पर रेंगने लगा था। घबरा कर उठ बैठी थी वह। सुराही से निकाल कर पानी पिया था। अँधेरे में ही। स्विज ऑन किया था, लेकिन बिजली गई हुई थी। डर कर वह सविता दीदी के कमरे में आ गई थी। सविता दीदी उसी दिन लौटी थी तीन दिन के दौरे के बाद। अलग-अलग शहरों के दौरे पर गई थीं वो। एड्स के खिलाफ प्रचार के लिए। तनाव में डूबी साउल ने कंबल में सिमटते हुए सिस्टर सविता से पूछा था,

क्या वर्जिनिटी का इनके लिए कोई मतलब नहीं है दीदी…?

सिस्टर सविता ने लंबी उसाँस लेकर कहा था, सभी ने अपने लिए अलग-अलग लक्ष्मण रेखा खींच रखे हैं।

तो क्या हमें भी ऐसा ही करना चाहिए… क्योंकि देखने में यही लोग हम से ज्यादा खुश और आजाद दिखाई पड़ते हैं… सीधा-सा सवाल था साउल का।

नहीं, बस दिखाई पड़ता है… ऐसा है नहीं… दरअसल ये बाजार के शिकंजे में हैं… रोमिला जैसी लड़कियाँ इस्तेमाल हो रही हैं… इनका सारा सौदर्य… सारा मेकअप भोग और प्रोडक्ट बेचने का जरिया भर हैं… और इनको कंट्रोल करने वाला रिमोट उसी पुरुषवादी मानसिकता वाले बाजार के हाथों में है… इसलिए यह मत कहो कि यह आजाद हैं…

थैले से लाल तिकोने छाप वाले पैकेट निकाल कर आलमारी में रखते हुए सिस्टर सविता ने कहा,

तुम्हें जानकर हैरत होगी …इस देश में एड्स के उतने मरीज नहीं हैं जितने कि इसको भगाने के नाम पर संस्थाएँ और एनजीओ हैं… दरअसल एड्स और कंडोम के आवरण में लिपटा यह उसी बाजार का प्रचार-प्रसार है जहाँ स्त्री को …उसकी देह को… वर्जनामुक्त बना देना है… सेक्स को सहज सुलभ और पारदर्शी बना देना है…

इसका विरोध नहीं करता कोई?

विरोध को आधुनिकता के विरुद्ध वर्जना कहकर कुचल दिया जाता है।

फिर उन्होंने थोड़ा रुक कर कहा था, उस दिन अखबार में तुमने जिस वेबसाईट और विदेशी लड़की के बारे में पढ़ा था उसका मतलब समझती हो?

जवाब में साउल के छोटे से माथे पर कुछ और लकीरें गहरा आई थीं। दीदी ने तब आगे कहा था, इसका मतलब हुआ माल का बाजार में सीधा पहुँचना… बीच में कोई दलाल, बिचौलिया या एजेंट नहीं… कोई, खन्ना… सक्सेना-वक्सेना या राहुल नहीं… और अब तो इस तरह के वेबसाइट अपने देश में खुल गए हैं… और खूब चल रही है यह दुकानदारी…

फिर उन्होंने साउल के गले में खुदे गोदने पर हाथ फेरेते हुए कहा था, तुम ट्राइबल हो न… तुमने तो देखा होगा …आदिवासियों की भूख गरीबी और विस्थापन की उतनी बात नहीं होती जितनी कि उन्हें मुख्यधारा लाने की बेचैनी दिखाई पड़ती है… और पता है यह मुख्य धारा क्या है…?

पता नहीं फिर कब सो गई थी साउल। सविता दीदी ने उसे ध्यान से देखा। उसका सारा शरीर काँप रहा था। साउल को फिर उसी डरावने सपने ने धर दबोचा था। साँप कैलेंडर से निकलकर उसके शरीर पर रेंगने लगा था। उसके एक-एक कपड़े उतारता है। फन की जगह उसकी लंबी जीभ लपलपाती है और वह उसके पूरे शरीर को आद्र करने लगता है। अपनी लिजलिजी जीभ से। साउल खुली आँखों से उसे देखती है। अपने शरीर को धीरे-धीरे साँप की गिरफ्त में जाते हुए। घेरा क्रमशः सख्त होता जाता है और फिर वह साँस भी नहीं ले पाती। वह चीखना चाहती है और चीख नहीं पाती। बोलना चाहती पर कुछ बोल नहीं पाती। दूर पहाड़ों के पार से बाबा उसे बुलाते हैं। माँ उसे उठाती है। वह उठ नहीं पाती। बगलों से निकल कर साँप उसके सख्त वक्षों के बीच से अपना रास्ता बनाता है और कमर से उतरते हुए नीचे गहराइयों में गुम हो जाता है। साउल का दम घुटता है। साँप कुछ और और आगे बढ़ता है। शनैः शनैः बढ़ती पीड़ा आकार लेने लगती है। लेकिन वह इसे पहचान नहीं पाती।

ब्लाक के बड़ा बाबू का घिनौना शरीर, सक्सेना का बेडौल आकार, राहुल का चिकना चेहरा या दीदी मैम का दस्तानों वाला पंजा सब एक साथ गड़मड़ होते हैं। जैसे किसी बनैले भैसे ने कीचड़ को मथ दिया हो। बहुत जोर लगाती है साउल। ठीक इसी समय दिमाग में चट से कुछ टूटता है। और वह चीखने में कामयाब हो पाती है। आधी रात के सन्नाटे में उसकी चीख नर्सिंग होम की तीन मंजिला इमारत के हर तल्ले पर गूँजती है। और साउल कमरे से निकल कर गेट की ओर बेतहाशा दौड़ती है। बहुत तेज, अस्त-व्यस्त कपड़ों में, जैसे खुद से भागना चाहती हो। उसके पीछे सिस्टर सविता और चारों नाइट गाड्स दौड़ते हैं। बाल्कनी से घबराई हुई दीदी मैम चिल्लाती हैं, मूव फास्ट… पिक हर… एट एनी कॉस्ट…

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एक्सट्रा वर्जिन – Extra Virgin

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