बेहतर लड़का तलाश करते-करते बहन पच्चीस पार कर गई, तो मैंने गाँव-जवार की तरफ जाना ही छोड़ दिया। पिता जी ने कस्बे के एक परिचित व्यक्ति के माध्यम से आढ़त पर काम करने वाले एक दुहेजू मुनीम को वर के रूप में तलाश कर लिया और मुझे कई बार खत लिखा कि मैं ‘लड़के’ को एक बार देख जरूर लूँ। मगर मेरे लिए यह एक दुखदायी स्थिति थी। मैं स्वयं एम.ए. पास था; बहन भी थोड़ा-बहुत पढ़ चुकी थी, लेकिन वह मुनीम मुंडी हिंदी की मामूली समझ से अपनी गाड़ी घसीट रहा था। उस आदमी को अपने बहनोई के रूप में देखना मेरे लिए मरण स्वीकार करने के समान था। मैंने इस संबंध में दूर तक सोचा और बहन के लिए कोई अच्छा वर खोजने के बारे में विचार करने लगा। मुझे ‘अपनी आवाज’ साप्ताहिक में काम करते हुए लगभग दो माह हो चुके थे, मगर अपने साथ काम करने वाले सहसंपादकों-उपसंपादकों के बारे में मुझे कुछ भी मालूम नहीं था।
उन चार-छह लोगों में अवस्थी ही कुछ कम उम्र का लगता था जो शायद अविवाहित है। बाकी तो सब उम्रदराज और खुर्राट मालूम पड़ते थे। अगले दिन दफ्तर पहुँच कर मैंने अवस्थी को परोक्ष में टटोला, ‘अवस्थी जी, क्या आप यहीं के रहनेवाले हैं?’ उसने मेरे प्रश्न का सीधा उत्तर नहीं दिया। वह दार्शनिक लहजे में बोला, ‘अब तो मैं कहीं का रहनेवाला नहीं हूँ। मुझे नहीं लगता कि कोई भी इस देश का रहनेवाला है। अपने ‘स्वाइल’ (जमीन) से यहाँ जुड़ा ही कौन है? बेवजह जब कोई फलसफा बघारने लगता है, तो मैं घबरा उठता हूँ। वह आदमी मुझे पागलपन के निकट पहुँचा हुआ लगने लगता है। मैंने अपना मंतव्य दूसरे ढंग से प्रकट किया, क्योंकि मेरा उद्देश्य तो महज यह जानना था कि वह कुँवारा है अथवा विवाहित । मैंने कहा, ‘भाई-जान, आप सोचते बहुत हैं।
घर बसा कर आराम से रहोगे, तो यह बड़े-बड़े सवाल आपके दिमाग को खराब नहीं करेंगे। शादीशुदा आदमी के पास फजूल की खुराफात पंख भी नहीं फड़फड़ा सकती।’ अवस्थी मेरी सलाह पर ठठा कर हँस पड़ा। उसने मुझसे ही उल्टे पूछ लिया, ‘अच्छा यह बात है? तब तो आप बड़े सुखी होगे, कितना अर्सा हो गया आपकी शादी हुए? आपको इतना संयत देख कर तो यही लगता है कि आप बाल-बच्चेदार और खासे दुनियादार सयाने हैं।’ मैंने बात को खत्म करने के इरादे से कहा, ‘भाई, मुझे इस दिशा में सोचने का अभी अवसर ही नहीं मिला।’ मेरा उत्तर सुन कर वह बेनियाजी से हँसा, ‘अरे यह तो गजब हो जाएगा, शर्मा जी! तब तो दुनिया जहान के बड़े-बड़े सवाल आपके दिमाग को किसी काम का नहीं छोड़ेंगे। मेरी शुभकामना लीजिए और आप यह मांगलिक कार्य तत्काल संपन्न कर डालिए। और कुछ न सही, बैठे-ठाले शादी ही सही।’ चूँकि सही स्थिति का कुछ पता नहीं चल पा रहा था, इसलिए मैंने मजाक का लहजा पैदा किया, ‘यार अवस्थी, कुछ क्रांति तो होनी ही चाहिए।
हम लोग और कोई बड़ा काम नहीं कर सकते, तो क्या विवाह भी नहीं कर सकते?’ ‘जरूर कर सकते हैं। मगर अपना नहीं, आपका। मैं तो इस तोंक में अपनी गर्दन पहले ही फँसा चुका हूँ।’ अवस्थी की इस सूचना ने मेरी आशा को एक ही झटके में तोड़ डाला। मैंने उस बात को झटकते हुए कहा, ‘मगर कमाल यह है कि एक शादीशुदा आदमी हो कर भी तुम महीन बातें करते हो, दाल-रोटी के चक्कर ने अभी तुम्हें गुमराह नहीं किया है शायद?’ मेरी बात सुन कर वह यकायक गंभीर हो गया और उसकी आँखें कहीं दूर चली गई। उसने कहना आरंभ किया, ‘तुमने कभी यह भी सोचा है कि सोचना कितना अजीब रोग है? मेरा सारा तखमीना ही गलत हो गया। मैं इस सड़ी-गली लाश की मानिंद जिंदगी को बगैर जरूरत ढोता घूम रहा हूँ। आपको शायद मालूम नहीं, मैं बहुत दिनों से कविता लिखता चला आ रहा हूँ। मैंने हमेशा यही चाहा कि समर्पित हो कर लिखूँ, मगर होता हमेशा उल्टा है। यह कितनी बड़ी ट्रेजेडी होती है कि आप कुछ करने के लिए गंभीर हों, पर आपको करने के लिए जो काम मिले, उसकी सिर्फ ‘नेगेटिव वैल्यू’ हो। इस ‘डबल रोल’ में आदमी मारा जाता है। इसमें न तो वह साधारण दुनियादार बन कर सामान्य जीवन में लिप्त हो पाता है और न वह स्वयं में इतनी महानता ला पाता है कि शिखर पर पहुँच जाए। मेरे दोस्त! शायद तुम नहीं जानते, दोनों तरफ से निर्वासित होना कितना भयानक है। इसीको मोटे शब्दों में कहा जाता है ‘न खुदा ही मिला ना विसाले सनम।’ मैं अवस्थी के घोर आत्मालाप से सिहर उठा।
वह धाराप्रवाह बोले चला जा रहा था, ‘जिस आपाधापी में दिन कट रहे हैं, उसमें मुझे अपनी पत्नी और बच्चा परम शत्रु दिखलाई पड़ते हैं। मैं इतनी कम उम्र में भी सिर उठा कर नहीं चल सकता। स्वामी रामतीर्थ के इस कथन पर भी कभी-कभी मुझे संदेह होता है कि बचपन और जवानी पार किए बिना किसी को बुढ़ापा नहीं आ सकता। मुझे देखो। रामतीर्थ मेरे सामने होते, तो मैं उनसे पूछता, ‘मेरा बचपन कहाँ गया? मैं जवान कब हुआ? मैं तो चिर बूढ़ा ही इस संसार में आया हूँ, स्वामी जी महाराज ।’ मैं ध्यान से उसकी बातें सुन रहा था। मुझ पर जादू का-सा असर होने लगा था। वह कहे जा रहा था, ‘इतनी थोड़ी उम्र में मैं सिर उठा कर नहीं चल सकता। इस संसार में सुख-समृद्धि और लाखों नियामतें हैं। लेकिन वे मेरे-तुम्हारे लिए नहीं हैं। पता नहीं यह कैसा षड्यंत्र है कि आदमी अपने-आपसे ही बेगाना होता चला जाता है।’ सहसा अवस्थी ने मुझसे सवाल किया, ‘क्या आप बतला सकते हैं कि मैं जीवित क्यों हूँ?’ उसके सवाल से मैं भीतर तक दहल गया। मुझसे कोई उत्तर देते न बन पड़ा। मैंने अवस्थी को प्राय: शांत और संयत देखा था, पर आज उसके सारे व्यक्तित्व पर विचित्र आक्रोश छाया था। वह सरगोशी में बुदबुदाने लगा, ‘यहाँ कुछ नहीं हो सकता। यह वह पिंजड़ा है, जिसमें घुट कर मर जाने के सिवा कुछ नहीं होगा।’ थोड़ी देर बाद उसकी बड़बड़ाहट खामोशी में बदल गई और उसका सिर मेज पर झुक गया। शायद वह अखबार के लिए कोई लेख लिखने में जुट गया था। अवस्थी फिर उस दिन गंभीर ही बना रहा।
उसने मुझसे कोई बात नहीं की। अक्सर मैं पाँच बजते ही दफ्तर छोड़ कर चला जाता था, लेकिन उस दिन मैं अँधेरा घिर आने पर भी बैठा रहा। जब अवस्थी अपने कागज समेट कर मेज की दराज में डाल कर उठा और खूँटी से किरमिच का बैग उतार कर कमरे से बाहर जाने लगा, तो मैं भी उसके साथ लग लिया। बस स्टाप पर पहुँच कर मैंने उससे कहा, ‘अगर तुम्हें एतराज न हो तो मैं तुम्हारे घर चलूँ। मैं शहर में अकेला रहता हूँ। पता नहीं, आज घर की मुझे क्यों याद आ रही। तुम्हारे घर एक प्याला चाय पी कर लौट आऊँगा।’ अवस्थी ने ध्यान से मेरा चेहरा देखा और बोला, ‘आपको अपने साथ ले जाने में मुझे संकोच नहीं है, लेकिन मैं किसी अच्छी बस्ती में नहीं रहता। वहाँ का माहौल इतना गलीज और सड़ांध-भरा है कि आपको कोई खुशी मयस्सर नहीं होगी। और सीमा यही नहीं है। विडंबना यह भी है कि मेरे पास रहने की अपनी कोई जगह नहीं है। मैं अपने एक ‘पेंटर’ दोस्त के साथ रहता हूँ। उसके पास ‘अनआथराइज्ड’ कालोनी में एक टूटा-फूटा कमरा और लकड़ी का खोखा है। वह हमेशा बीमार रहता हैं, लेकिन दिल का बहुत नेक है।
अगर आप इतने पर भी चलना चाहें, तो आपका हार्दिक स्वागत है।’ थोड़ी देर बाद उस इलाके की तरफ जाने वाली बस आई और मैं भीड़-भड़क्के के रेले में बस के भीतर पहुँच गया। अवस्थी और मैं बमुश्किल एक पैर पर ही खड़े-खड़े गंतव्य तक पहुँचे। शहर के गुंजान इलाके से निकल कर बस एक लंबे पुल को पार करके कहीं ठहर गई। अवस्थी ने मुझसे उतरने को कहा और आगे बढ़ गया। एक नाला पार करके हम लोग एक बीहड़-सी बस्ती में पहुँच गए। उस तरफ ज्यादातर मेहनत-मजदूरी करनेवाले लोग ही रहते थे। कुछ मिस्कीन किस्म के बाबू टाइप भी इधर-उधर आते-जाते नजर आ रहे थे। नाले के समानांतर यह बस्ती काफी आगे तक फैली हुई थी। वहाँ गंदगी और फूहड़पन की कोई सीमा नहीं थी। झोंपड़ीनुमा कच्चे मकान एक-दूसरे से सटे हुए थे। गलियों में गंदा पानी बह रहा था और जगह-ब-जगह कचरे के ढेर लगे हुए थे। मुझे यह देख कर अजहद तकलीफ हुई कि अवस्थी अपनी पत्नी और बच्चे के साथ इतनी गंदगी में रहता था। गहरा अँधेरा घिर आया था। गलियों में प्रकाश की कोई व्यवस्था नहीं थी। कहीं कहीं ढिबरी या लालटेन जलती नजर आ जाती थी और इक्का-दुक्का आदमी गली में ही आग जलाए बैठे बतिया रहे थे। गलियों में नंग-धड़ंग बच्चे गोल बाँधे ऊधम मचा रहे थे। मैंने अवस्थी से पूछा, ‘ये बच्चे स्कूल नहीं जाते?’ अवस्थी मेरे अज्ञान पर विद्रूप से मुस्कराया होगा। अँधेरे में उसका चेहरा मुझे नहीं दिखा, लेकिन उसके स्वर में गहरा उपहास था। यह बोला, ‘शर्मा साहेब! आप समझते हैं, ये बच्चे पढ़ाई की तरफ जाएँगे? इनमें से कुछ जेबकतरे बनेंगे। कुछ जूतों पर पालिश करेंगे। और जिन्हें हम जोर-जबरदस्ती धकिया कर स्कूल भेजेंगे, बहुत होगा, तो एक-दो किसी दफ्तर में चपरासी लग जाएँगे।’ बातें करते-करते मैं और अवस्थी एक तंग-सी गली में पहुँच गए। गली के अंत में लोहे की जंग खाई चादरें, लकड़ी के फट्टे और पुराने सड़े-गले टाट को जोड़ कर एक खोखा खड़ा किया गया था – जिसमें से धुएँ का गुबार फूट कर बाहर निकल रहा था। सारे माहौल में धुआँ, प्याज-लहसुन और जलते तेल की गंध भरी थी। इधर-उधर से तरह-तरह की आवाजें उठ कर कानों से टकरा रही थीं। अवस्थी उस खोखे के सामने जा कर एक क्षण के लिए ठिठक कर खड़ा रहा और फिर बोला ‘शर्मा भाई, यही है अपना आशियाना।’ अपना वाक्य समाप्त करके उसने लकड़ी का दरवाजा हल्के से हिलाया जो तत्काल खुल गया। अंदर घुसते हुए अवस्थी बोला, ‘अब आ ही गए हो, तो अंदर भी आ जाओ।’ मैं चुपचाप अवस्थी के पीछे हो लिया। उस खोखे में इधर-उधर अंगड़-खंगड़ सामान बिखरा पड़ा था। लकड़ी के चौकोर फ्रेमों पर टाट और मारकीन जड़ा हुआ था। दो-तीन जंग खाई तामचीनी की प्लेटें और ब्रुश इधर-उधर पड़े थे। रंगों के डिब्बे यों ही अलट-पलट पड़े थे।
पूरी दीवारों को क्रास करती हुई सन की रस्सियाँ बँधी हुई थीं, जिनपर मैले-कुचैले तहमद और बनियान वगैरह झूल रहे थे। अवस्थी उस स्थान पर ज्यादा समय तक नहीं ठहरा। वह आगे बढ़ गया। आगे जा कर एक तंग-सा सहन था, जिसमें पत्थर के कोयलों की अँगीठी धुआँ दे रही थी और एक महिला जमीन तक झुक कर उसे दहकाने की कोशिश कर रही थी। मेरी और अवस्थी की पदचाप सुन कर वह महिला उठ खड़ी हुई। मैंने अँगीठी से उठते प्रकाश में देखा, एक निहायत पतली-दुबली गोरे रंग और तीखे नाक-नक्श वाली लड़की मैली चीकट धोती में लिपटी खड़ी है। कभी उसका रंग खूब गोरा रहा होगा, लेकिन लाल रोशनी के बावजूद उसका चेहरा खून की कमी से सफेद नजर आ रहा था। जो कष्ट उसे इस माहौल में मिले थे, सारे उसके व्यक्तित्व पर नक्श हुए लगते थे। दुबलेपन के कारण वह अपनी उम्र से कहीं छोटी, महज एक बच्ची जैसी दिखाई पड़ रही थी। अवस्थी के साथ मुझे देख कर वह संकोच में पड़ गई। अगर उस मकान में किसी अन्य मार्ग से पहुँचना संभव हुआ होता, तो शायद अवस्थी मुझे सहन में लाता ही नहीं, पर दुर्भाग्य से कहीं टिक सकने के स्थान पर हम अभी तक भी नहीं पहुँचे थे। अवस्थी ने उसके संकोच को अनदेखा करके कहा, ‘मेरे साथ दफ्तर में काम करते हैं। शर्मा जी हैं। यहीं खाना खाएँगे। अँगीठी बाद में जलती रहेगी। तुम बत्तीवाला स्टोव जला कर पहले दो प्याली चाय बना डालो।’ और सहसा जैसे उसे कुछ याद आ गया, ‘माइकेल अंकल किधर है?’ ‘अंकल बीरू को साथ ले कर सब्जी लेने गए हैं। बस, आते होंगे।’ ‘ठीक है, तब चाय बनाओ,’ कह कर अवस्थी दूसरी तरफ एक कोठरी में चला गया। शायद यही वह कोठरी थी जिसका एक भाग टूटा हुआ था और सहन में लकड़ी के दो खंभों पर ‘टिनशेड’ डाल कर सोने की व्यवस्था की गई थी। अपना किरमिच वाला थैला कोठरी में रख कर अवस्थी मेरे पास लौट आया और दीवार के सहारे खड़ी चारपाई को बिछाते हुए बोला, ‘चलो, आपकी यहाँ आने की तमन्ना पूरी हो गई। जिस जगह आप आए हैं यह बस्ती बड़े शहर का कोढ़ है। जितने नाजायज धंधे हो सकते हैं, वे सब यहाँ मौजूद हैं। दुनिया का कोई भी श्रेष्ठ उद्देश्य यहाँ रहनेवालों के लिए नहीं बना। कोई भी उच्च प्रेरणा यहाँ निष्फल है। गांधी जी गरीब हरिजनों की बस्ती में जा कर रहे, लेकिन क्या इन बस्तियों का वास्तव में कभी सुधार हो पाया? यहाँ रहनेवालों की जिंदगी जानवरों से भी गई-बीती है।’ अपनी बात कहते-कहते अवस्थी ठहर गया ओर घृणापूर्वक हँस कर बोला, ‘और मजे की बात यह है कि मुझे यहीं ठिकाना मिला है। मैं पत्रकारिता करता हूँ। भाड़े पर तीन कौड़ी के सड़े हुए राजनीतिक लेख लिखता हूँ।’ अवस्थी का आवेश सहसा दुख में बदल गया और उसके चेहरे को एक निरीह विवशता ने घेर लिया। अवस्थी की पत्नी चाय तैयार करके ले आई और स्टूल डाल कर चाय के प्याले हम दोनों के सामने रख दिए।
हैंडिल उखड़े प्याले ही उठा कर अवस्थी बोला, ‘शर्मा जी, मैं अपने साथ दफ्तर के किसी आदमी को आज तक यहाँ ले कर नहीं आया। आप पहले व्यक्ति हैं जिसके आग्रह को मैं टाल नहीं पाया।’ मैंने लापरवाही दिखाते हुए कहा, ‘जो भी हालात हैं, उनसे मुँह चुराने का सवाल ही नहीं उठता। हम सब एक ही नाव पर सवार हैं। आप मुझे अपने से बेहतर न समझें। मैं जिस जगह रहता हूँ, वह भी कोई खास अच्छी नहीं है।’ इसी समय खोखे का दरवाजा खड़खड़ाया और एक अधेड़ आदमी ढाई-तीन साल के बच्चे को गोद में उठाए सहन में दाखिल हुआ। काले रंग का वह आदमी चारखाने का तहमद लपेटे था और बदन पर उसका ढीला बनियान काफी नीचे तक लटक रहा था। उसे देखते ही अवस्थी बोला, ‘मैं आज अपने दोस्त शर्मा साहब को आपसे मिलाने लाया हूँ।’ बच्चे को सँभाले वह शख्स मेरी तरफ बढ़ आया और सब्जी के थैले को जमीन पर टिका कर वोला, ‘गुड ईवनिंग सर! हमारी खुशकिस्मती है जनाब, कि आप तशरीफ लाए।’ मैं चारपाई छोड़ कर उठ खड़ा हुआ। मैंने माइकेल से हाथ मिला कर प्रसन्नता अनुभव की और बोला, ‘अवस्थी आपकी बहुत प्रशंसा करते हैं।’ माइकेल बोला, ‘मैं किस काबिल हूँ साहब।’ इसके बाद वह अवस्थी से बोला, ‘डाक्टर बोलता है, बाबा के गले में गिल्टियाँ उभर रही हैं। इन्जेक्शन भी लगेंगे और खाने की दवाइयाँ भी देनी पड़ेंगी।’ अब मैंने बच्चे की तरफ गौर किया।
माइकेल ने उसे गोद से उतार-कर जमीन पर खड़ा कर दिया था। वह अजहद सूखा हुआ लंबा-लंबा नजर आ रहा था। उसकी शक्ल-सूरत अच्छी-खासी थी, मगर चेहरे पर सिर्फ आँखें ही आँखें दिखलाई पड़ती थीं। माइकेल की इस सूचना पर कहीं कोई सिहरन नहीं उभरी। अवस्थी की पत्नी सिर झुकाए थैले से सब्जी निकालती रही। अवस्थी भी चुपचाप चाय पीता रहा। मुझे लगा, इस घर के प्राणी शायद बुरी से बुरी खबर सुनने के लिए तैयार हैं। अब तक अँगीठी दहक उठी थी। उसकी लपटें दीवारों पर अजीबो-गरीब परछाइयाँ बना रही थीं। माइकेल ने उस तंग से सहन में इधर-उधर घूमना शुरू कर दिया। उस घर में इस समय पाँच जीवित प्राणी मौजूद थे, लेकिन कोई भी किसी से बातें नहीं कर रहा था। जीवन की शिराओं में बजने वाला मादक संगीत इस घर की आत्मा से निकल गई थी। गुनगुनाने की उम्र उदासी में कट रही थी। पता नहीं, हम किसके लिए जी रहे थे; हमारा संघर्ष किसके लिए था? माइकेल ने जिस बच्चे को अभी थोड़ी देर पहले सीने से लगा रखा था, वह उसका खून नहीं था, लेकिन अवस्थी के बच्चे की बीमारी उसके भीतर तक उतर गई थी। लगता था उतावली में इधर-उधर चक्कर काटता माइकेल बच्चे के बारे में सोच रहा था। शायद हम सब लोग परस्पर बातें कर रहे थे, पर वह भाषा किताबी ज्ञान से एकदम अलग थी। उस मर्म को समझना और समझाना कठिन था। इसी समय मैंने नोट किया, माइकेल टहलते हुए ठहर गया था और बच्चे के सीने के सामने उँगलियों से क्रास का संकेत कर रहा था। मुझे अजीब-सी बेचैनी ने घेर लिया था। सहसा मैं चारपाई से उठ कर खड़ा हो गया और बोला, ‘अवस्थी भाई! अब मैं चलूँगा। आपका ठिकाना तो मैंने देख ही लिया है।
जल्दी ही फिर कभी आऊँगा।’ मेरी बात से अवस्थी की तंद्रा भंग हो गई। बोला, ‘कहाँ जा रहे हो? खाना खा कर जाना।’ ‘नहीं, आज नहीं। फिर कभी छुट्टी के दिन आऊँगा। तभी खाना खाऊँगा।’ मैंने जल्दबाजी में कहा। इसके बाद अवस्थी ने विशेष आग्रह नहीं किया। मैं तेजी से मकान के बाहर निकल कर गली में पहुँच गया। गली में आगे जा कर लालटेन की रोशनी नजर आई। एक औरत कर्कश स्वर में चीख रही थी, ‘मैं दाढ़ीजार से पहले ही कहती थी… को…कोठरी किराए पर मत दे। यहाँ किसी का धर्म-ईमान नहीं है। छोरा के सहारे बुढ़ापा कट जाता। पर तू कहाँ माने था। ले गई अब तेरे सुग्गा को उड़ा के – बैठा बंसरी बजा।’ भीड़ में से कोई चटखारा ले कर बोला, ‘अरे ठगनी नार का क्या भरोसा। चार दिन में तेरे छोरा कू भी धक्का दे जाएगी, क्यूँ परेसान हौवे है?’ मैंने गली से बाहर निकलते हुए घरघराते कंठ वाले एक बुड्ढे की मरियल-सी आवाज सुनी, जो अपनी पत्नी और भीड़ को सफाई दे रहा था। ऐसा लगता था कि कोई औरत बुड्ढे-बुढ़िया के बेटे को ले कर चंपत हो गई थी और वह आपस में एक-दूसरे को इसके लिए अपराधी घोषित कर रहे थे। मैं चीख-पुकार-भरे उस वातावरण से बाहर आया, तो मुझे अवस्थी और उसके परिवार की दुर्दशा याद आने लगी। एक शाम किसी के साथ अच्छे ढंग से बिताने आया था, लेकिन हुआ उसका एकदम उल्टा। मन सहसा इतना भारी हो गया कि पैरों में गहरी थकान महसूस होने लगी। पुल पार करके मैं एक चाय की दुकान पर बैठ गया, कोई बस आए तो आगे बढ़ूँ।