दो लाख किसानों के लिए एक कविता | मृत्युंजय
दो लाख किसानों के लिए एक कविता | मृत्युंजय

दो लाख किसानों के लिए एक कविता | मृत्युंजय

दो लाख किसानों के लिए एक कविता | मृत्युंजय

(पी. साईंनाथ और मैनेजर पांडेय को पढ़ते-सुनते)

तुम्हारा छोटा बेटा
एक विचित्र सपने में फँस चुका है
गोसाईं पवार।

उसने सीधी कर ली है हल की फाल
हरिस सँभल नहीं रही है
उसकी रीढ़ पोरों में गड़ गई है
लोहे की मजबूत सइल मूठ तक दोनों कंधों में पैवस्त है
गरुआए बोझ से गर्दन मुचड़ गई है
दहिनवारी जोत रहे हैं बाएँ नाटे को मिस्टर च
पूँछ उमेठ कर तोड़ दी जा रही है
और छह जोड़ी हलवाहे एक ही फंदे में गर्दन फँसा रहे हैं।

एक सूखा कुआँ उफना आया है लाशों से बेतरह
सारे पुराने पेड़ों से रस्सी के टुकड़े लटक रहे हैं
सल्फास की गोलियाँ बिखरी हैं सब तरफ
दिल्ली-मुंबई में बनाया गया है यवतमाल का पुतला
उसे जादुई आँकड़ों की कीलों से भेद रहे हैं मिस्टर म

और लाशें विदर्भ में चू रही हैं टप-टप
सूदखोरों के आँगन में
कफन की कपास में मुचड़ी हुई टोपियाँ।
‘ठगिनी क्यों नैना झमकावे!’

आत्महत्या के बाद की सबसे जरूरी चीजें सहेजी जा रही हैं
पिता के पीछे कतार बाँध कर खड़े हैं बच्चा लोग
अंतिम विदाई से पहले
तैयारी में हैं गोसाईं पवार
उतरे हैं भेड़िए झुंड बाँध
सती प्रथा के नए मसविदे के साथ
मिसेज एस की मुहर के साथ
कारों की फ्लीट पर
बीस सूत्र का वारिस
महाकाल नरसिंह नाच रहा
जाँघों पर पटक रहा प्रिय मातृभूमि को
जगह-जगह चिटक गई देह
चीर रहा पेट, अति बर्बर नाखूनों से
खसखस सी ढाढी में पगड़ी पर
शोभती हैं बूँदें
लिप्सा से ताक रहे भेड़िए
सौम्य मुस्कान से बरजता है
रुको अभी
मिलने दो आँकड़े

आँकड़े…
आत्महत्या से लिपे-पुते दो लाख घरों की
कहाँ गईं
भागी हुई लडकियाँ?
देशी कपास के साँवले बीजों सी
पाँच से पच्चीस साल, अजुगत सलोनी उमर
ब्रूनो की
लाखों अभागी वे बेटियाँ
कहाँ गईं?
कहाँ गए मुस्काते
और गाते नौजवान
रहने का जीने का मरने का जिनका
कोई नहीं था ठौर ?

धोती की फटी हुई लांग को समेटे हुए
बूढ़े किसान की आँखों में बिला गया सूरज
गुलशने बरार में
दो लाख लाशों की जैविक खाद है तयार
श्मसान उर्वर हुए
उर्वर हुई पार्लमेंट
लहलह कर लहक रही नई अर्थ-नीति
कारखाने फास्फोरस के हड्डी की ऊर्जा से लहक उठे
महक उठा दिग-दिगंत जलती हुई चर्बी से
धुआँ धुआँ

तुम्हारा छोटा बेटा
एक विचित्र किस्से में फँस चुका है गोसाईं पवार !
धरती के सीने में दस हाथ चौड़ी दरार में
लाशें दफना कर लौटा है रोज-रोज
दुनिया की आखिरी बची हुई
सहूलियत है उसके लिए
मिट्टी सा कड़ा लाल
गड्ढों का चेहरा है
किधर जाए, करे क्या,
जूझ पड़े, मरे क्या
लड़े क्या?

लाशों की परत परत लहर लहर आती है सुबह
सीढ़ियों पर चढ़कर
और सरकार की ओर से अभी जारी
मुफ्त शताब्दी कैलेंडर मेरी खोपड़ी में घुसड़ जाता है
कैलेंडर में लाशों की तिथियाँ हैं
सत्तावन के आस पास नीम के विशाल वृक्ष से लटकी हैं तीन सौ लाशें
थोड़ी ही देर बाद अवध के नक्शे पर लाशों की शतरंज बिछी पड़ी है
तेभागा में एक विराट बंदूक की संगीन से गूँथ दी गई हैं
पाँच सौ जुझारू औरतें
और नक्सलबाड़ी है
एक युवा चेहरे को
सिगरेट के टोंटे की तरह मसलते बूटों के
तस्मे से लटकाई गई जुबान के माफिक

दो लाख लाशों को जमीन पर हमवार सुला दूँ मैं
तो कितने गज जमीन की जरूरत होगी?
क्या इतनी लाशों से पाटा जा सकता है
संसद भवन ?
चार लाख आँखें क्या वित्तमंत्री के ब्रीफकेस में बंद
रक्षा बजट के कागज पर दर्ज अक्षरों को ढँक सकेंगी?
दो लाख लाशों की त्वचाओं के तंबू में
कितना अनाज बच सकेगा?
दो लाख रीढ़ की चिमड़ी हड्डियों से
कोई हथियार बन सकेगा क्या?

राष्ट्रनायकों,
चाहे सपने की इस हकीकत में
गाड़ दो उसे
सात परतों में साढ़े तीन हाथ नीचे
काले पड़ रहे खून में डोब दो चाहे
पर अभी उसे गोसाईं पवारों का
कफन दफन करने जाना है।
मरने भी तो जाना है।

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