याद है 
जब हम टीले की ऊँचाई से 
शहर को देखा करते थे 
तो अपना उत्तरजीवन निर्धारित करते 
लाल पेंट वाला घर, नहीं! वो गुंबद वाला, 
अरे नहीं! वो हाइवे के किनारे वाला घर 
इतनी ऊँचाई पर बैठे हुए भी 
मुकम्मल होने की तलाश करते। 
तब हम प्यार को भी कमरों में बाँटा करते 
किचन, बेडरूम, लॉन, छत, हॉल और 
न जाने इसी तरह कितने टाइप वाले प्यार। 
आज एक ही कमरा है 
छोटे क्षेत्र में प्यार का दायरा बड़ा है 
दुख, गुस्से और प्यार को 
छिपाने या जताने की 
कोई अलग जगह नहीं 
सब एक दूसरे के सामने 
जिस कारण से हमारे भाव 
इन चार दीवारों से 
दो भागों में बाँटकर 
हमारे बीच ही रह जाते हैं 
इसी कमरे में ही।

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