बहुत से लोग
मैं नहीं चाहता जिन्‍हें देखना और मिलना
वे मेरे सामने
खड़े हैं सवालों के साथ
तनावी खिंचावों को सकेले
कुछ परदर्शी छोटे झूठ के साथ

आनंद की अन्‍य दुर्घटनाओं के बीच भी तटस्‍थ
उनके विचारों में झाँककर पढ़ता हूँ
भीतर छुपी हुई चतुर दुष्‍टता
मैं कहता हूँ मित्र ! तुम पहले ऐसे कभी न थे
सचमुच ! मैं तुमसे सच्‍चाई कहँ
मैं सोचता हूँ तुम वास्‍तव में महान हो
इस कारण मैं तुमसे बात कर रहा हूँ
कहकर उन्‍हें अनपेक्षित आश्‍चर्य में धकेल देता हूँ

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और अनुपस्थित दिमाग से
नदी के साथ-साथ
कोहरा ओढे़ तट पर होता हूँ।
वे एक दूसरी कविता लिख रहे हैं
दूर खडे़ होकर बर्दाश्‍त से बाहर की
उपेक्षा जीत हुए
और इस तरह से मीठे तरीके से
वे मुझे स्‍वतंत्र करते हैं
फिर से एक पराधीनता के बाद।