तुम मुझे पूछते हो ‘जाऊँ’? 
मैं क्या जवाब दूँ, तुम्हीं कहो! 
‘जा।।।’ कहते रुकती है जबान 
किस मुँह से तुमसे कहूँ ‘रहो’!!

सेवा करना था जहाँ मुझे 
कुछ भक्ति-भाव दरसाना था। 
उन कृपा-कटाक्षों का बदला 
बलि होकर जहाँ चुकाना था।।

मैं सदा रूठती ही आई, 
प्रिय! तुम्हें न मैंने पहचाना। 
वह मान बाण-सा चुभता है, 
अब देख तुम्हारा यह जाना।।

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