पाता नहीं कब सेभीतर एक भय है बाहर बहुत जय है जय है बहुत सेबढ़ जाता हैभीतर का भय भीतर का भयऔर बाहर बहुत जयदिखाई देने लगे हैं –इतने एककि हमें –अपने ही विश्वास मेंघुटन महसूस होती है।