उन्‍हें फिर से बच्‍चों की बहुत याद आ रही है। सुनते ही मैंने सिर कूट लिया। सिर कूटने की बात ही थी। अभी साल भी तो पूरा नहीं हुआ, संदीले में आए ही थे। एक-दो नहीं, पूरे छह महीने रहकर गए। वह भी क्‍या कभी अपने से जाते भला! मैंने ही अक्‍ल और तिकड़म भिड़ाई कि गाँव जाकर अपनी जगह-जमीन देखिए, इस तरह ज्‍यादा दिन तक छोड़ देंगे तो काश्‍तकार बेदखल कर हड़प बैठेंगे – बैठे-बिठाए हजारों का नुकसान। सो बीच-बीच में निगरानी बनाए रखनी चाहिए।

तब कहीं बात उनके दिमाग में बैठी। बोरिया-बिस्‍तर बँधा। तो भी जाते-जाते, जीप में बैठने के बाद भी, मुड़-मुड़कर पीछे छूटते बच्‍चों को देखते जा रहे थे। खीझकर ललित को कहना पड़ा, ‘बच्‍चे अंदर गए, अब सीधे बैठिए।’

तब भी पनीली आँखें अँगोछे से सहलाते एक ही बात – अब तो पका-पकाया फल हूँ, अब गिरा कि तब – पता नहीं इस जिंदगी में बच्‍चों के चेहरे देख भी पाऊँगा या नहीं। अकेले आना-जाना भी तो अब अपने बस का नहीं, हाथ-पैर बेकार होते जा रहे हैं। वह तो बहू सयानी है कि घर-गाँव, खेत-खलिहान की सुध लेने की सलाह दी। सब तरफ खयाल रखती है। भगवान उसकी बुद्धि ऐसी ही रखें। बस किलक ही कि तुम सबसे दूर अब कहाँ देख पाऊँगा!’

‘अरे देखेंगे, देखेंगे। ऐसी भी क्‍या बात?’

सिगरेट की तलब पर काबू पाते ललित ने लापरवाही से एक चालू फिकरा कसा और कल्‍पना में ही एक भरपूर कश खींचकर राख बाहर झाड़ दी।

घर लौटकर यह सब बताते हुए ललित ठठाकर हँसे थे, “जानती हो, उस वक्‍त मैं क्‍या सोच रहा था? सोच रहा था कि बाऊजी की इस मोह-मुद्रा पर अगर एक सच्‍चे पितृभक्‍त पुत्र की भाँति मैं पसीजकर कह दूँ कि ‘आपका मन नहीं कर रहा तो मत जाइए। गोली मारिए उस हील-हुज्‍जतों भरे जमीन के टुकड़े पर। चलिए घर वापस, बच्‍चों के पास।’ तो उनको वापस देख तुम्‍हारी क्‍या हालत होती – हा-हा-हा! लेकिन उसकी जगह एक सच्‍चे पत्‍नीभक्‍त की तरह मैंने कहा, ‘अरे-अरे, आ पाएँगे आप’।’

यह कहते हुए ललित ने जरुर ईश्‍वर से माफी माँगी होगी, ‘हे भगवान! माफ करना, यह सब कुछ जान-बूझकर भी बाप को यह झूठी दिलासा देने, बहलाने के लिए, वरना यह तो मैं भी खूब अच्‍छी तरह जानता हूँ कि अब के गए, इतने घिसे कल-पुरजेवाली देह लिए कहाँ फिर वापस आनेवाले हैं।’

लेकिन नहीं साइब, सारी हिलती-डुलती चूलें सहेजे चले आ रहे हैं बाऊजी। हमें खुद पूरा पखवारा भी नहीं बीता इस नए शहर में आए और बाऊजी बच्‍चों का मुँह देखने को तरसने लगे। गुजरे डेढ़ बरस उन्‍हें ‘जुगों’ से बढ़कर लग रहे हैं। हर समय बच्‍चों का चेहरा उनकी आँखों के आगे टँगा रहता है। (पूछो, तब आने की क्‍या जरुरत? सोते, जागते, उठते, बैठते बच्‍चों की बातें, उन्‍हीं का खयाल – यानी सारे विरह-वियोग की छुट्टी) सो अब उठो और करो बाऊजी के आगमन की तैयारी।

पता नहीं ये बूढे़ लोग मोह-माया का इतना ओवर स्‍टॉक क्यों भरे रहते हैं अपने दिल में। जब देखो तब उलीचने को तैयार। उनके दिल न हुए, मोह-माया के दलदल हो गए, जीना हराम!

ललित टोकते हैं, ”क्‍या? जीना हराम, तुम्‍हारा? यह तो भई ज्‍यादती है तुम्‍हारी। सारे दिन कभी इस कोने में, कभी उस कोने में सिर गाड़े बैठे रहते हैं। चाय पिएँगे? पी लेंगे। खाना खाएँगे? खा लेंगे। जो खाना दो, खा लेंगे। जब खाने को दो, खा लेंगे। कपड़े अपने खुद धोकर, मैले-कुचैले जैसे भी बन पड़े, फैला देंगे।”

”बेशक, लेकिन कहाँ?” मुझे तैश में आकर बिफरने का मौका मिला – ”सीधे बाहरी बरामदे के आर-पार-गमछे, धोती, बनियाइनों के बंदनवार सजाकर न। तब कौन उन्‍हें वापस अंदर फैलवाता है? ऊपर से गाँव के कोल्‍हू में पेरे तिल का कटोरी भर तेल रोज सिर में चुपड़ने से चीकट हुआ तकिया फटक-फटककर गरम पानी से कौन धुलवाता है? अरे पूरे कमरे में ही तिल, सरसों के तेल की बास ऐसी बसी रहती है जैसे कोल्‍हू यहीं कमरे में ही चलता रहा हो।”

ललित की मुझे चिढ़ाने में बहुत मजा आता है, “तो क्‍या, काम कुछ नहीं करते तुम्‍हारा? दोनों वक्‍त कुरता-धोती पहने, छतरी ताने, शानू-शौनक का उँगली पकड़ाए स्‍कूल ले जाना और ले आना। धूप हो, बारिश हो, सुस्‍ती हो, हरारत हो, पिछवाड़े क्‍यारियाँ खोद-खोदकर कितने टमाटर बैंगन भिंडी पालक लगाए थे कि नहीं? और कुछ नहीं तो महीनों में हजारों रुपये का तो बाजार से सौदा-सुलफ…।”

“ऊँह…!” मैं तिनगी, “उसमें से पचासों रुपये तो हिसाब-किताब को गड़बड़ की वज‍ह से दुकानदार ने झटक लिए होंगे या फिर जेब से गिरा-खिसका दिए होंगे। और, उन्‍हें महरी के साथ राशन की दुकान भेजती थी तो किसलिए? दुकान से ही मुट्ठ-दो मुट्ठी झटक लेने की जो चालाकी बरतती है महरी, उस पर बाऊजी जरूर निगरानी रखेंगे। लेकिन हुआ क्‍या? महरी तो उलटे और बेशरमी से जैसे मुझे बिराती-सी हँसती-हँसती आई। पता चला, अब तो राशन लेने के बाद वह खुद ही बाऊजी से पूछ लेती – ‘बाऊजी, दो मुट्ठी शक्‍कर अपने खूँट में बाँध लूँ, बच्‍चन के वास्‍ते?’ और बाऊजी कहेंगे, ‘अरे दो क्‍या, चार मुट्ठी डाल ले, इसमें पूछने की क्‍या बात!ʼ “

लेकिन ललित छेड़ने से कहाँ बाज आनेवाला। मोरचे पर डटे हैं – “बड़ी अहसान-फरामोश औरत है भाई। लेकिन कसूर तुम्‍हारा नहीं, बीवी बहस पर ही जीती और जीतती आई है सदियों से। सुनते-सुनते ही आदमी बेचारे का भेजा खाली हो जाता है। बोलने का दम ही नहीं रहा जाता। बहरहाल, इतना समझ लो कि ऐसा कोई उपाय नहीं जिसमें बाऊजी को यहाँ आने से रोका जा सके।”

बात सही थी। मुँह लटक गया मेरा। लेकिन दिमाग का चौकस घोड़ा चारों दिशाओं में एड लगता रहा कि चलो, ठीक है। अब जब आ ही रहे हैं तो मन के संतोष के लिए ही सही, बाऊजी का कुछ तो उपयोग हो। उनके यहाँ रखने, रहने के एवज में कोई तो सहूलियत… लेकिन यहाँ तो माली भी आता है, एक दिन छोड़कर घंटे-पौना घंटे को। उसके काम में दखल न दें तो ही अच्‍छा। बच्‍चे भी अब ललित के प्रमोशन के बाद से हिंदी स्‍कूल से नाम कटवाकर क्‍वीन मेरी कॉन्‍वेंट जाते हैं रिक्‍शे पर। उन्‍हें पहुँचाने, लाने के लिए भी किसी बाऊजी की जरूरत नहीं। चाहती थी, सुबह-शाम की सेवा-टहल के लिए कोई छोकरा या दरबान टाइप मिल जाता कि ललित शाम को जीप से आए तो लपककर सलाम मार के फाटक खोल दिया। आए-गए को चाय-पानी सर्व कर दिया। वक्‍त-जरूरत को चौमुहानी तक लपककर थोड़े बियर-सोडा की खरीदारी-साहबी का रुतबा इसी बात पर तो कायम रहता है। लेकिन बाऊजी इस मसरफ के भी नहीं। फिर भी, कुछ उपाय तो सोचना ही है, कुछ-न-कुछ काम के लायक तो बनाना ही है इन बेमसरफ बाऊजी को।

इसी उधेड़बुन में दोपहर में सोने की जगह सोचती, जुगत बैठाती रही बाऊजी को लेकर। बड़ी मुश्किल से नींद लगी।

आधा घंटा ही हुआ होगा कि छत पर धू-धड़ाम, धाड़-धूड़, धर-पकड़ और चिल्‍ला रही-सी वहशी आवाजें। चौंककर उठी तो ललित पहले ही खिड़की पर। जाकर जो नजारा देखा तो काटो तो खून नहीं। समूचा घर बीस-पच्‍चीस छोटे-बड़े बंदरों को उछल-कूद और चिंचियाहटों की गिरफ्त में।

मकान के एक ओर गली, दूसरी और खाली पड़ा प्‍लॉट, सिर्फ पीछे के कलईवाले की गुप्‍ताइन कई आवाजें लगाने पर बड़े इत्‍मीनान से बोलीं, “आप लोग नए आए हो न! बंदर तो आते ही रहते हैं ऐसे ही बीसों-पच्‍चीसों के झुंड में कभी दो-चार हफ्ते तो कभी दो-चार रोज पर ही, कुछ ठिकाना नहीं। कनिया जात और बच्‍चों से तो डरते भी नहीं न… वैसे घर की साँकल चढ़ाए रहिए तो ज्‍यादा नुकसान क्‍या करेंगे, पर ठहरे तो आखिर बंदर ही – पेड़-पालव, फूल-पत्ते तो तहस-नहस करेंगे ही। इसी तो हम फूल-पत्तों के झंझट में पड़े ही नहीं। आपने तो देखती हूँ, एक माली रखा है न। बंद कर दो कल से। बस्‍स, किटकिट खतम।”

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हुँह, कलईवाली के कहने से। हमारा माली तो सरकारी है, फोकट का। हम भला क्‍यों बंद करने जाएँ उसे! अहमकपने की बात। वह एक दिन छोड़कर सुबह आएगा-ही-आएगा और फल-पत्ते लगाएगा-ही-लगाएगा। लेकिन कभी भी झुंड-के-झुंड इन आनेवाले बंदरों को भगाएगा कौन?

सहसा दिमाग में बिजली-सी कौंधी –

हाँऽऽऽठीक, बाऊजी…।

और बाऊजी के आने के नाम से दिन पर जो मनों बोझ लदा चला जा रहा था, कुछ हलका-सा हो गया।

बोझ और भी हलका हो आया, जब अगले पूरे हफ्ते में तीन बार बंदरों ने धावा बोला। हर दो-तीन दिनों में अचानक ही कभी भी देखो तो मकान के चारों तरफ औघराए हुए हैं। बगल के खाली पड़े प्‍लॉट में एक – दूसरे पर खौंखियाते, छीना-झपटी करते भाग रहे हैं, अमरूद की डालियाँ झिंझोड़ रहे है, टमाटर और बैंगन के पौधे नोच-उखाड़ रहे हैं। अकेली मैं और शानू-शौनक छोटे-छोटे। एकाध बार खिड़की के पीछे से डंडी दिखाई भी तो ऐसे दाँत किटकिटाए कि अंदर तक रूह काँप गई। न डर पर काबू, न गुस्‍से पर। बारी-बारी हर खिड़की-रोशनदान से लगी आपने नए-नए बगीचे की बरबादी देखती, खुद ही पिंजरे में बंदर की तरह खौंखियाती रही। कई-कई बार तो घंटो घर का दरवाजा ही नहीं खुल पाया, चारों तरफ खौंखियाते बंदरों की वजह से। तब बाऊजी के आने के खयाल से मन हलका हो आया।

तो बाऊजी आए। (खैर, वे तो आते-ही-आते) शानू, शौनक ने आते-ही-आते उन्‍हें वह छड़ी दिखाई।

“जानते हैं, यह क्‍या है? यह छड़ी है, मम्‍मी ने रखी है आपके लिए।”

“हाँ¨।” बाऊजी सिर हिलाते प्रसन्‍नचित्त छड़ी का मुआयना करने लगे, “इसे लेकर टहलने जाया करूँगा, कभी-कभी कुत्ते लग जाते हैं पीछे।”

“दुत! कुत्तों को मारने के लिए थोड़ी न, बंदर को भगाने के लिए। इससे आप बंदरों को भगाया करेंगे।”

“बंदर! बंदर कहाँ हैं?” बाऊजी ने कौतुक से पूछा।

“आते हैं, बहुत सारे, कभी-कभी। तब हम दोनों को और मम्‍मी को बहुत डर लगता है; लेकिन मजा भी खूब आता है, जब वे पिछवाड़े के प्‍लॉट पर कलमुंडियाँ खाते हैं और एक-दूसरे के ऊपर खौंखियाते हुए झपटते हैं। आप देखेंगे तो आपको भी खूब मजा आएगा, है न शानू?”

“लेकिन अपनी ऐनक सँभालकर रखिएगा।” शानु ने हिदायत दी।

“अच्‍छा-अच्‍छा!” वह बड़े चाव से बच्‍चों की बातें सुनते हें। फिर बक्‍सा खोलकर उसी चाव से प्‍लास्टिक से मढ़ी की एक फोटो और काले कपड़े का एक हाथी निकालकर बच्‍चों को ‘देखो, मैं तुम्‍हारे लिए क्‍या लाया हूँ’ के अंदाज में थमा देते हैं। बच्‍चे दोनों चीजें लापरवाही से उछालते हुए कहते हैं, “इसका हम क्‍या करेंगे? अमिताभ बच्‍चन की फोटो नहीं थी आपके पास?”

बाऊजी अपनी रौ में बच्‍चों को हनुमानजी की महिमा समझाने लगते हैं।

शौनक चिढ़ाते हुए कहता है, “जानते हैं, सारे बंदर न, पीपलवाले हनुमान मंदिर के अहाते से ही आते हैं। सारी खुराफत उन्‍हीं हनुमानजी की है।”

बाऊजी बच्‍चों की बातों से निहाल, मगन-मन बक्‍से में से सब्जियों के बीजों की कुछ पोटलियाँ निकालते हैं। बच्‍चे देखते ही फिर चहकने लगते हैं, “वापस रखिए, वापस। कुछ नहीं बोना-शोना है अब। आपको पता नहीं? पापा का प्रमोशन हो गया है। अब हमारे यहाँ माली आता है। आपको अब सिर्फ बंदर भगाने हैं और कुछ नहीं, समझे!”

क्‍या खाक समझे! तीसरे दिन ही मेरी और बच्‍चों की नजरें बचाकर माली के पास पहुँच गए। दुआ-सलाम, जान-पहचान हुई। क्‍यारी बनाने में चूक होती देख हथेलियों में खलबली तो मचेगी ही। अब बारी-बारी कुदाल, खुरपी, फावड़ा लिए भरभरी मिटटीवाली क्‍यारी सँवार रहे हैं और माली जामुन के पेड़ के साए में बैठा बीड़ी फूँक रहा है। सिर पीट लिया कि फोकट का न रहा होता माली तो फौरन छुड़वाकर सौ-पचास रुपयों का नफा करती।

शाम को बहाने-बहाने से झल्‍लाई। उनकी बुढ़ौती और उनके बेटे की अफसरी का हवाला दिया कि अब इतने बूढ़े हुए, कुछ तो अक्‍ल से काम लें।

सुनते हुए इस तरह आज्ञाकारी भाव से सिर हिलाते रहे जैसे मैं उन पर नहीं, किसी हद दर्जे के निकम्‍मे, नकारा पर झल्‍ला रही होऊँ और वह खुद उस आदमी की बेगैरती और नासमझी पर तरस खाते मेरे हाँ-में-हाँ मिला रहे हों।

अगले दिन खासा बेसब्री से कटा उनका। बार-बार बच्‍चों से पूछते, “माली नहीं आया?”

बच्‍चे भी खीझे – “आपसे कहा न, माली एक दिन छोड़कर आता है। आज नहीं, कल आएगा।”

तीसरे दिन माली आया तो अँगोछे से सिर ढाँपे सो रहे थे। बच्‍चे होमवर्क पर। मैंने राहत की साँस ली। लेकिन आधे घंटे बाद ही बच्‍चे बेतहाशा चिल्‍लाते हुए आए – “मम्‍मी-मम्‍मी! बाऊजी ने झाड़ी काटनेवाली कैंची से हाथ काट लिया, फलाफल खून बह रहा है।”

भागकर देखा तो सिर झुकाए नल के नीचे हाथ से रिसती खून की धारा धोए जा रहे हैं। मुझे देखते ही धोती के छोर से उँगली का जख्‍म छुपाए सहमे बच्‍चे की तरह अपने कमरे की तरफ भागे।

पीछे-पीछे शोर मचाते बच्‍चे, “हाँ, अब मजा आया न! तब तो कैसे खुश होकर खचा-खच्‍च, खचा-खच्‍च झाड़ी काटे जा रहे थे! हमारे मना करने पर कहते थे – अरे, कुछ नहीं होगा… अब? बोलिए जी?”

वह उसी तरह खिसियाई हँसी के साथ उँगली धोती के छोर से दबाए-दबाए ही शौनक से अपने हजामत के डिब्‍बे से फिटकरी की डली निकालने के लिए कहते रहे, जिससे रिसता खून रुक जाए।

अब अपना मन कहाँ मानता है। हार-झींककर मरहम-पट्टी करनी ही पड़ी, नहीं तो गुस्‍सा तो इतना आया था कि बस्‍स…।

आखिर चौथे दिन बंदर आए। मुझे चैन पड़ा। बच्‍चे थे उस वक्‍त घर पर। देखते ही चिल्‍लाए – “बंदर आए, बंदर आए, बाऊजी। चलिए छड़ी लेकर बंदर भगाइए।”

बाऊजी ने सचमुच आज्ञाकारी बच्‍चे की तरह छड़ी तजबीजी और बच्‍चों के साथ बरामदे तक गए, जैसे बच्‍चों का कोई नया खिलवाड़ हो।

लेकिन बरामदे में जो चारों तरफ का नजारा देखा तो चौंककर सहम से गए। बाहरी मुँड़ेर के हर कँगूरे पर एक बंदर या बँदरिया छोटी-बड़ी औलादों के साथ एक-दूसरे की पीठ खुजाने, धौल जमाने, दुम खींच-खींचकर भागने या लगातार टहनियों से फल-पत्ते नोच-नोचकर खाने, फेंकने जैसे क्रिया-कलापों में व्‍यस्‍त थे। बाऊजी व बच्‍चों का पहुँचना उनकी निजी जिंदगी में जबरदस्‍त दखल था। दो बच्‍चों और एक बूढ़े को एक साथ, वह भी छोडी के साथ देखकर बंदरों ने अपनी जगह बैठे-बैठे दाँत किटकिटाकर सही मायने में बंदर-घुड़की की मुद्रा अपनाई। सहमकर बाऊजी की छड़ी आप-से-आप नीचे आ गिरी और बच्‍चे किलकिलाते अंदर कमरे में भागे। खौफ और मजा एक साथ। अंदर आते ही बाऊजी को आगे करते चिल्‍लाए बच्‍चे –

“भगाइए बाऊजी, भगाइए न! डरिए नहीं, आपको काटेंगे थोड़े ही। ये सब तो सिर्फ मम्मियों और बच्‍चों को झूठ-मूठ डराते हैं। आदमियों से तो डरते हैं, आपको नहीं काटेंगे।”

बाबूजी फिर निकले। उन्‍हेांने सहमे-सहमे थोड़ी सी छड़ी ठकठकाई बंदर अपनी जगह निश्चिंत बैठे रहे। बच्‍चों के लिए इतना भी कम उत्‍साहप्रद नहीं था, क्‍योंकि अब तक तो हमेशा बंदरों की भनक लगते ही दहलकर भागती मैं सारे दरवाजे बंद कर दुबक लेती। बच्‍चों को खिड़की से झाँकते देखकर भी दिल धड़क उठता था। लेकिन आज बच्‍चों को बाऊजी की मौजूदगी का सुकून था। खूब उछल-उछलकर चिढ़ाते और आवाजें कर रहे थे। थोड़ी देर में बंदर जैसे तंग आकर दूसरी मुँड़ेरों की तरफ चले गए और शानू-शौनक गला फाड़-फाड़कर चिल्‍लाने लगे, “भाग गए बंदर! भाग गए, सारे-के-सारे!”

तृप्ति और संतुष्टि फूल-पत्ते बचने से ज्‍यादा बाऊजी के हो पाए उपयोग की थी। अपनी इस कामयाबी से उत्‍साहित होकर दिमाग के घोड़े पर वापस चाबुक लगाया। इसी तरह के और भी उपयोग इन बाऊजी के खोजे जाने चाहिए।

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लेकिन हफ्ता बीतते-बीतते जबरदस्‍त मोहभंग हो गया। सारी उम्‍मीदों पर पानी फिर गया। हुआ चह कि पाँचवें दिन ही बंदर फिर आए। एक-दो नहीं, पूरे-का-पूरा कुनबा, कबीले-का-कबीला-बाहरी बरामदे से, अगवाड़े, पिछवाड़े, जीने और छत की टंकी तक-एंटीने पर जिमनास्टिक और कपड़े फैलान की रस्‍सी पर, ट्रेपीज, क्‍यारियों-की-क्‍यारियाँ उछल-कूद, मार-झपट्टे में रौंद दी गईं। आँखों में खून उतर आया, “अरे बाऊजी! अभी तक भगाए नहीं बंदर आपने? आप भी बच्‍चों की तरह खिड़की से ताका-झाँकी करते मजे ले रहे हैं। अरे भगाइए, भगाइए भी जल्‍दी। जब सारी क्‍यारियाँ उजड़ ही जाएँगी तब भागने का फायदा?”

लेकिन बाऊजी कई बार मेरे उकसाने पर छड़ी लेकर धीरे-धीरे बाहर निकले भी तो ऐन सामने बैठे किसी बंदर के दाँत किटकिटाते ही हड़बड़ाकर वापस अंदर भागे। भागने में धोती का सिरा भी मुँड़ेर में निकली कील में फँसकर फड़वाते आए। उसके बाद तो लाख उकसाया, अंदर से ही हिट्ट-हुट्ट करते रहे और ऊपर से मजा यह कि ‘खदेड़ दिया है’, ‘खुद ही चले जाएँगे’, ‘कुछ नुकसान नहीं कर रहे’, ‘मैं देख रहा हूँ’, ‘जैसे ही कुछ नुकसान पर उतारू होंगे, हँकाल दूँगा’ जैसे जुमले कह-कहकर मुझे चकमा देने की कोशिश करते रहे।

उससे अगले हफ्तों तो बात एकदम साफ हो गई। मैं दो-तीन घंटों के लिए खरीदारी करने गई थी। लौटकर आई तो बाहरी सीढ़ी पर दो-तीन गमले लुढ़के पड़े थे ओर अंदर कदम रखते ही फूल-पत्तों और टूटी टहनियों से सारा बगीचा तहस-नहस।

मेरी आँखों में जैसे खून उतर आया। उधर बाऊजी मुझे देखते ही सरपट पहले गुसलखाने में, फिर जल्‍दी से माला लेकर ठाकुरजी के सामने बैठ गए।

बच्‍चे भी छोटे सही, पर इतनी अक्‍ल तो थी ही, बाऊजी को देखते ही चिल्‍लाने लगे, “आहा! अब मक्‍कड़ साध रहे हैं, मम्‍मी के डर से। बंदरों को नहीं भगा पाए न, इसलिए। हमने इतना कहा कि जाइए, भगाइए, आप डरिएगा तो बंदर और भी ज्‍यादा डराएँगे। जाइए, कोशिश तो कीजिए; लेकिन हमारी बात ही नहीं मानते।”

मैं होंठ भींचे, गुस्‍से, क्रोध और झल्‍लाहट से उबलती एक हिकारत भरी नजर डालती अंदर चली गई।

ललित से कुछ कहना तो भैंस के आगे बीन बजाना था। सिर्फ मसखरी, सिर्फ टिहकारी। उबाल उतरा बच्‍चों पर होमवर्क कराते-कराते। मुद्दा बच्‍चों ने ही उठाया, “बगीचा कितना खराब हो गया न! तुम तो कहती थीं, बाऊजी बंदरों को भगा दिया करेंगे, लेकिन वह तो खुद ही कितना डरते हैं।”

गुस्‍सा भभका अब पूरे उफान के साथ, “इतना डरते हैं तो जाएँ वापस गाँव और उड़ाएँ जाकर खेत में चील-कौए, हमारे किस काम के। वही कहावत कि…”

कहावत तो बच्‍चों का खयाल कर मुँह-के-मुँह जब्‍त कर गई पर मम्‍मी की उबाल खाई मुखमुद्रा और कुछ गाँव वापस जाने जैसी भनक बाऊजी तक पहुँचाई उन्‍होंने जरूर। वैसे भी मेरा से ‘डायरेक्‍ट कम्‍यूनिकेशन’ सिर्फ चाय-पीनी, नास्‍ते-खाने के पूछने तक ही होता था। बाकी सब ललित और बच्‍चों के माध्‍यम से, जैसे – ‘अँगोछा वहाँ न फैलाया कीजिए’, ‘तेल इतना न डाला कीजिए’, बाहर से आने पर पायदान पर चप्‍पलें खूब रगड़ लिया कीजिए।ʼ

इन सारी हिदायतों पर इधर जरूरत से ज्‍यादा ही अमल किया जाने लगा। मुझे दिखा-दिखाकर पैर पायदान पर खूब रगड़े जाने लगे। अँगोछा फैलाते-फैलाते ही अचानक ध्‍यान आ जाता और उसे उतार लिया जाता। बच्‍चों से कहा जाता कि “अब मैं तेल ज्‍यादा नहीं डालता। बस्‍साता है न!” और इससे भी बढ़कर शानू-शौनक को अगर बगल की दुकान पर रबर, पैंसिल भी लानी होती तो फौरन छतरी उठाकर धीरे से कहते, “लाओ, मैं लाए देता हूँ । मम्मी से पूछो और भी कुछ लाना है, सौदा-सुलफ तो मैं लाए देता हूँ।” इतना ही नहीं, माली के आने से पहले वह जी-जान से तहस-नहस पौधे, क्‍यारियाँ सुधारने भी लगे थे।

लेकिन बंदर फिर आए चार-छह दिनों पर। फिर उजाड़ीं क्‍यारियाँ उन्‍होंने और फूल-पत्ते नोच डाले। मैं कमरे की खिड़की से झाँकते, होंठ काटती, कमरे में चहलकदमी करती रहती। बाऊजी की विचित्र हालत, सही मायने में बगलें झाँकनेवाली। यों मुझे दिखाने के लिए ही बाहर निकलने को दरवाजा जरा सा खोल, झाँकने-झूँकने की कोशिश भी करते। लेकिन बंदरों के जरा सा दाँत निकालते ही खौफ खाए-से दरवाजा बंद कर लेते। फिर मेरे सामने पड़ने से कतराते; बहाने से किसी कोने में दुबके रहते। मेरी खीझ और झल्‍लाहट अब बौखलाहट में तब्‍दील होने लगती। अजब दाँत पीसती बेबसी का आलम था।

इस आलम में सबसे ज्‍यादा आंतरिक संतुष्टि तभी मिलती, जब बच्‍चे बाऊजी को ‘डरपोक’ कहकर चिढ़ाते होते।

असल में मेरा तो पूरा प्‍लान ही फ्लॉप हो रहा था न। ऊपर से न दिखाने पर भी मेरी बेसब्री, बेरुखी बाऊजी के सामने साफ हो गई थी। यों तो पहले भी बाऊजी से मुझको कौन सी बड़ी अपनापे भरी बात करनी होती थी। लेकिन अब तो जैसे पूरी किलेबंदी। वह अपनी तरफ, मैं अपनी तरफ। नाश्‍ता रखा है, खाना लगा है। नाश्‍ता-खाना उन्‍हें दिया नहीं जाता, उनके सामने डाल दिया जाता है। वह खुद भी चुपचाप खा लेते और खिसक जाते।

एक दिन होवमर्क करते-करते बच्‍चों ने कहा, “अब तो आप अपने गाँव चले जाएँगे न?”

“क्‍यों?”

“क्‍योंकि आप तो बंदरों को भगा नहीं पाते, उनसे डरते है।”

बाऊजी थोड़ी देर हक्‍के-बक्‍के से बैठे रहे। उनकी समझ में ही न आया कि अपने बचाव या सफाई में क्‍या कहें? कुछ लमहों बाद जैसे बच्‍चों को कुछ नई बात बताने के-से अंदाज में बोले, “बंदर हनुमानजी के अवतार होते हैं।”

इस पर बच्‍चे खिलखिलाकर हँसने लगे। बाऊजी बौड़म की तरह उनका मुँह देखते रहे। उन्‍होंने इसकी उम्‍मीद न की थी। सोचा था, बच्‍चे पक्ष में विपक्ष में कुछ तो बोलेंगे और इस तरह बात चल निकलेगी; लेकिन बच्‍चों ने खिलखिलाकर पारी समाप्ति की घोषणा कर दी। बाऊजी चुप बौड़म-से बैठे रहे। फिर उदास से उठे, छड़ी उठाई, चप्‍पलें डालों, बाहर इधर-उधर यों ही डोलने निकल गए।

फिर लौटकर वापस।

एक जगह स्थिर से बैठते भी तो नहीं – जब देखों, यहाँ से वहाँ चलायमान। बच्‍चों के पीछे-पीछे साए-से डोलते। अब तो बच्‍चे भी जैसे जान छुडा़ने की फिराक में। पहले छोटे थे तो उनकी उलटी-सीधी बातों पर हँस-हँस लिया करते, लेकिन अब फटर-फटर इंग्लिश आ गई है। तंग आकर कहते हैं – आपका जोक खतम हुआ या नहीं? और हँसने लगते हैं। अब बच्‍चे छोटे तो नहीं – पढ़ाई-लिखाई, खेल और तमाम दूसरे काम; पर होमवर्क के लिए मैं पूरी पाबंद। उसी एक समय बच्‍चे भी जरा स्थिर घर में।

बस, बच्‍चों को होमवर्क करते देखते ही बाऊजी चुपचाप एक किनारे आ बैठते। भाँपते भी रहते कि मैं आस-पास तो नहीं। फिर बच्‍चों से कुछ-न-कुछ बातें करने की कोशिश करते; जैसे – “ये जो तुम्‍हारे पापा हैं न, ये मेरे वैसे ही बेटे हैं जैसे तुम दोनों इनके। तुम्‍हारे पापा भी छोटे थे तो मैं उन्‍हें वैसे ही डाँटता था जैसे वह तुम दोनों को डाँटते हैं।”¨फिर सोचते हुए धीमे से जोड़ते – “बहुत डरता था वह मुझसे।” या फिर कभी – “जैसे वह तुम लोगों के लिए चॉकलेट, बिस्‍कुट लाते हैं, वैसे ही मैं भी लाया करता उसके लिए। मैं तो बाजार की सबसे महँगी हैट और गेटिसवाली निकर लाया था उसके लिए।”

फिर एक दिन उन्‍होंने बहुत जोड़-तोड़ बिठाकर बच्‍चों के सामने वह वाक्‍य बोल डाला, “अगर मैं गाँव चला गया तो फिर तुम लोगों को कहाँ देख पाऊँगा।” और अधीर चेहरे से बच्‍चों के जवाब का इंतजार करने लगते।

लेकिन बच्‍चों को इसमें कोई गौरतलब बात समझ में आई ही नहीं। उन्‍होंने सुना, ‘हामी’ में सिर हिलाया और पुनः झुककर होमवर्क करने लगे।

बाऊजी बैठे रहे, अचानक उठे, बड़े बिजी होने के-से अंदाज में चप्‍पलें डालीं, छतरी उठाई और निकल गए।

इधर भी किसे होश-हवाश, तमाम-तमाम जरूरी काम। काफी देर हुई तो खयाल आया। डर यह कि बूढ़ा-ढिल्‍ला शरीर, कहीं पैर ऊँचे-नीचे न पड़ गए हों। तब तक पायदान पर चप्‍पलें रगड़ते दीखे। किधर गए थे? मंदिर गए थे। भई, इतनी देर क्‍या करते रहे? कीर्तन करती मंडली के साथ बैठकर मजीरे बजाते रहे। बड़ी ठसक और उमंग के साथ जवाब दिया गया। ठीक है, बचाओ मँजीरा चाहे मृदंग, अपने से क्‍या।

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लेकिन दो-चार दिनों बाद फिर जल्‍दी लौटे और पूछा गया तो चुप्‍प – ‘बस, नहीं बताते’ जैसे अंदाज में। बाद में ललित ने हँसते हुए बताया कि वह कीर्तन मंडली चली गई और दूसरी में उनका अपना मजीरेवाला है। सो उदास हो लिए थोड़े, बस।

तो भी क्‍या, मंदिर तो है ही हनुमानजी का, पवित्र स्‍थान। जाकर बैठे रहते हैं। (क्‍या पता कभी मजीरेवाला गैर-हाजिर हो।)

फिर एक दिन महरी बोली, “कौन, बाऊजी? मंदिर में कहाँ जयादा उनका दीदा लगता है! उन्‍हें तो अकसर पुलिया पार कुंजड़ों की बैंगन-टमाटर की क्‍यारियों के पास देखती हूँ। वहीं उन सबसे बोलते-बतियाते रहते हैं – खाद-फसल, हुक्‍के-चिलम की बातें।”

ललित का गुस्‍सा जायज था, फिर भी काबू कर गए। किसी तरह बस दो-चार सख्‍त शब्‍दों में ही हिदायत दे दी कि मंदिर तक हो जाया कीजिए बस। बाकी यहाँ-वहाँ बैठकें लगाने की जरूरत नहीं। मान गए बाऊजी, बिना हील-हुज्‍जत के। जैसे बिलकुल ठीक कह रहे हों, नहीं जाएँगे कल से। बस मंदिर से घर, घर से मंदिर।

बंदर अब भी वैसे ही आते थे, पर अब बाऊजी से कोई कुछ न कहता। सारा साहबी रुतबा ताक पर रख मैं और महरी तथा बच्‍चे रहे तो बच्‍चे भी जोर-जोर से अंदर से थाली-कनस्‍तर पीटना शुरू कर देते। रास्‍ते से गुजरते लोग अचानक अचकचाकर देखते, देखकर मुस्कराते हुए आगे बढ़ जाते। हम अंदर-अंदर शर्म से पानी-पानी हो जाते, लेकिन बंदर आखिरकार आवाजों से आजिज आकर धीरे-धीरे खिसक जाते।

तब हम चैन की साँस लेकर सुस्‍ताते और बाऊजी को चिढ़ाते हुए कहते, “देखा, हमने खुद ही भगा दिए बंदर।”

अचानक ललित उस दिन हुलसते हुए आए। दस दिनों के लिए ‘साइट’ पर जाने का ऑर्डर। खुशी की बात यह कि साहब ने बीवी-बच्‍चों को ले जाने की मंजूरी दे दी। छोटी जगह, जंगल-घाटियों के बीच में। कंट्रैक्‍टर, सुपरवाइजर हाथ बाँधे खड़े रहेंगे। पैसे काटेंगे अलग। खासी पिकनिक और सबसे बढ़कर ‘घर’ की रखवाली के लिए पंद्रह रुपए रोज का चौकीदार ढूँढ़ने की जरूरत नहीं। बाऊजी तो हैं ही।

ललित ने ही समझा दिया। कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहे हैं हम सब। घर देखिएगा। होशियारी से रहिएगा। सुनकर अंदर-अंदर थोड़े सहमे-से दीखे छोटे बच्‍चे की तरह। कितने दिन लगेंगे? महीने-डेढ़ महीने को जा रहे हो तो मैं गाँव चला जाऊँ। लेकिन मैंने आँख मारी – अब एक जरा काम आया चौकीदारी का तो उससे भी कन्‍नी काट रहे हैं। ललित ने कहा, “अरे नहीं, हफ्ते भर को ही; लेकिन दो-चार दिन इधर-उधर तो हो ही सकता है। नौकरी की बात है। कोई घर की थोड़ी। और फिर तकलीफ क्‍या है यहाँ? वहाँ तो रोटी भी खुद ही ठोंकते थे। यहाँ तो हम महरी से कह जाएँगे। एक समय बना जाया करेगी। लेकिन सारे समय घर में ही रहिएगा, समझे!”

“और बंदर आएँ तो अंदर से थाली, कनस्‍तर बजा दिजिएगा।” बच्‍चों ने कहा तो ललित के साथ-साथ मैं भी खिलखिला पड़ी।

बरतन पोंछ-पोंछकर रैक पर सजाती महरी ने बड़े ठसके से ठिठोली की, “अब बाऊजी बेचारे डरते हैं वानर से तो सबके सब उनका टिहकारी लेते हैं।”

हम लोग चलने को हुए तो बाऊजी ने थोड़ी देर बेसब्री से इंतजार-सा किया। बाद में खुद ही हमें समझाते-से इस तरह कहने-समझाने लगे जैसे हम अकेला छोड़कर जाते हुए बड़े दुखी और चिंतित हैं – “मेरे लिए परेशान मत होना, मैं तो गाँव में भी महीनों-सालों से अकेला ही रहता हूँ। खाने-पीने की भी परेशानी नहीं। बदन टूटते ही पीलीवाली गोली खा लूँगा और घूटनों में भी तारपीन का तेल चुपड़ लिया करूँगा। बाकी समय मंदिर जाकर बैठ जाया करूँगा, बस्‍स।”

खैर, जो कुछ हमें कहना चाहिए था, वह सब खुद हमारी तरफ से अपने आपको कहकर प्रबोध रहे और इस बीच हमारी जीप स्‍टार्ट हो गई।

‘साइट’ पर पहुँचने के बाद तो ऐसा पासा पलटा कि न घर के रहे, न घाट के। इतने हौसले, इतने उमंग से बँधे पहुँचे थे; पर सारे हौसले ही मलबे की तरह बैठ गए। कुल दो दिनों बाद ही ‘साहब’ खुद आ धमके और उसके बाद जिस जी-हुजूरी की उम्‍मीद हम अपने जूनियर्स से कर रहे थे, उसी जमात में ललित खुद शामिल हो गए; बल्कि उन सबसे कहीं ज्‍यादा टेंस, परेशान और नर्वस से। क्‍योंकि ‘साइट’ प्रोजेक्‍ट की सारी जवाबदेही ललित की ही थी। अब दिन-के-दिन एक सुबह से गई रात तक साहब के पीछे-पीछे रजिस्‍टर, फाइलें लिए दौड़ कर रहे हैं। न नाश्‍ते की धुन, न खाने की। जो कुछ समय मिलता भी, वह भी साहब के कदमों के नीचे बने रहने और अपने सर्विस रिकॉर्ड की कलई-पॉलिश में कौड़ी के मोल लुटाया जा रहा था। साहब कहते तो भी उनके कदमों में बने रहना और गई रात देर-सबेर आकर थकान से लस्‍त-निढाल पड़ रहना। मैं और बच्‍चे तंबू में फँसे कैदखाने से बदतर, बदमजा। सर्कस के जानवरों को भी ‘शो’ दिखाने के लिए ही सही, तंबू से बाहर तो लाया जाता है। हम बाहर एक-दो चक्‍कर भी मारते तो दुबके-सहमे। बच्‍चे हजार निर्देंशों के साथ बाहर लाए जाते – कहीं सामना हो जाए तो ऐसे पेश आना, ‘गुड मॉर्निग’ कहना – तो ऐसे हो रही थी हमारी पिकनिक। बच्‍चों के साथ-साथ मेरा भी जैसे दम घुटा जा रहा था।

ऐसे में घर की याद और ज्‍यादा आती। स्‍वाभाविक ही था। चिंता, फिक्र भी सताती। घर के साथ-साथ बाऊजी भी, कहीं बीमार-ईमार न पड़े हों। लौटने पर और आफत। घर का कोई दरवाजा कहीं खुदा-ना-खास्‍ता खुला रह गया होगा तब तो और आफत। बंदरों ने अंदर-बाहर कुछ भी साबुत न छोड़ा हेागा। हे भगवान्! कहाँ आ फँसे? और बाऊजी भी तो निपट अकेले¨इतने दिन, इतने-इतने घंटे, बंदरों के आने पर क्‍या करते होंगे? अकेले कितनी थाली-कनस्‍तर बजाते होंगे? बाहर मंदिर तक जाने को भी ललित मना कर आए हैं कि कहीं चाबी गिरी-खोई तो? घर सूना देख पिछले दरवाजे-खिड़की से बैठने की कोशिश करें तो? हजार शक, हजार अंदेश, चुपचाप घर में बने रहिएगा। हमारे आने तक खाना खाइएगा और पूजा-पाठ कीजिएगा। दो हफ्ते होते क्‍या हैं!

यह तो मुझे अब पता चल रहा था। ऊब की हद एकरसता और निहायत अकेले की घुटन, घुटन और धुर तटस्‍थता, यानी उपेक्षा ही तो तमाम जरूरी काम, दौड़-धूप, भागम-भाग, जी-हुजूरी, उसमें मेरी, हमारी कहाँ सुध! कहने को तो दो के चार हफ्ते होने को आए। उफ, कब-कब खत्‍म होगा यह निर्वासन, यह घुटन, यह उपेक्षित एकरसता? कब मुक्ति मिलेगी?

सो मुक्ति मिली। साइट का काम पूरा क्‍या हुआ, जान को जहान मिला। जीप से लौटे उसी दिन। रास्‍ते में बाऊजी के विषय में सोचते हुए कि कैसे गुजारे होंगे उन्‍होंने इतने सारे दिन!

जीप रुकी, गेट खोला और मैं बेतहाशा हाँफती हुई-सी बाहर बरामदे की सीढ़ियाँ चढ़ी तो अवाक् – सन्‍न! बरामदा पूरा छोटे-बड़े बंदरों से घिरा हुआ था और बाऊजी दरवाजे से सटी चौकी पर कटोरे भर भीगे चने रखे मुट्ठी-मुट्ठी भर-भर बंदरों को खिला रहे थे। बंदरों के बच्‍चे मगन-मन अपनी खुशी का इजहार करते बाऊजी के सामने कलामुंडियों पर कलामुंडियाँ खा रहे थे और बाऊजी एकदम अभिभूत नेत्रों से उन्‍हें देखे जा रहे थे।

चौखट से टिकी महरी भी बड़े चाव, बड़े अपनापे से देख रही थी और बाऊजी उसे सगर्व समझा रहे थे – “बंदर हनुमानजी के अवतार होते हैं।”

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