बाजी | अमिताभ शंकर राय चौधरी
बाजी | अमिताभ शंकर राय चौधरी

बाजी | अमिताभ शंकर राय चौधरी – Baji

बाजी | अमिताभ शंकर राय चौधरी

”म्याँ, लगी चवन्नी की शर्त!” यह तो भादो खाँ का तकिया कलाम बन गया था। बहस चाहे किसी बात पर हो – चने का भाव क्या है या ‘बाबर की बेटी’ फिल्म का वह गाना किसने गाया? सुरैया ने? या गीता दत्त ने? वैसे इस महँगाई में घोड़े को चना खिलाता कौन? सिर्फ चोकर, भूसा और घास के दम पर ही आज की बाजी को रफ्तार की बाजी लगानी पड़ती है। फिर भी बहस के दौरान गरम होकर भादो मियाँ तपाक से कह ही देता है, ”शर्त लगी चवन्नी की!”

अब तो ‘रानी का तबेला’ अस्तबल के छोकरे, टेंपो ड्राइवर या रिक्शेवाले कह देते हैं, ”चचा, आजकल तो चवन्नी चलती भी नहीं। कुछ तो रेट बढ़ाओ!”

तो भादो तिरछी नजर से उन्हें देखकर पान को गाल के नीचे दबाकर जबाब देते, ”मेरे मरहूम उस्ताद कहा करते थे – ”शर्त इतने की लगाओ कि वह जुआ न बन जाए।” खैर तेरी बात सही निकली तो दो रुपया ही सही -!”

कहते हुए वह अपनी घोड़ी शाहजादी की पीठ को मालिश करता या उसकी गर्दन पर के अयाल के बालों को उँगलियों से सहलाता, ”क्यों मेरी बच्ची, तू क्या कहती है?”

शाहजादी अपना सर हिला देती। उसके गले के घुँघरू झन झन कर बज उठते। ”देखो, देखो, यह भी तुम्हारी बातों को सुनकर हँस रही है।”

शहर के दूसरे अस्तबल तो कब के हटा दिए गए। चौक थाने की बगल से, और स्टेशन से। महापालिका की कृपा से अत्रिकुंडवाले तांगास्टैंड पर तो अब फ्लैट्स खड़े हैं। रोज सबेरे जो दस बीस तांगा या इक्कावाले आज भी यहाँ हाजिर हो जाते हैं, भादो खाँ उनमें से एक है। किसी जमाने में इंदौर की रानी ने इसे बनवाया था। इसकी जमीन भी तांगास्टैंड के नाम से ही रजिस्ट्री की गई थी। तभी तो महापालिका के अफसरान चाह कर भी इसे छू नहीं सकते। रानी सूर्योदय के पहले ही गंगास्नान के लिए आतीं तो उनकी बग्घी यहीं ठहरती थी। सबकुछ उन्हीं का दान है। ऊँचे ऊँचे खंभों पर बनी छत के नीचे कभी हाथी भी ठहरा करते थे। मगर आज तो आटो और रिक्शावाले इस तरह सामने खड़े रहते हैं कि यात्रिओं के लिए तांगेवालों को उनसे झगड़ना पड़ता है।

सुबह से सब बैठे हुए हैं कि सवारी मिले। आते हुए दो लोगों को देखकर एक आटोवाला गाड़ी को उधर बढ़ा दिया, ”कचहरी? स्टेटबैंक?” दो सवारी भी मिल जाए तो ये रवाना हो जाते हैं, रास्ते में और लोगों को बैठा जो लेंगे। मगर तांगावाले क्या करें? इनकी उम्मीद तो सिर्फ तीर्थयात्री ही हैं। दक्षिण, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, उत्तराखंड या नेपाल से आनेवाले बड़े चाव से तांगे पर जा बैठते हैं। चाहे यूनिवर्सिटी जाएँ या पारसनाथ। जब नन्हा भादो अपने अब्बा कलीमुल्लाह के साथ घोड़ा हाँकता था, तो बिसबिद्दालय तक छह रुपया सवारी अवती जवती से ही काम बन जाता था। और आज? पाँच सौ मिले, तो भी क्या खाए घोड़ा और क्या खाए तांगेवाला? पर आज हुआ क्या है? सुबह के नौ बजनेवाले हैं, भादो ने पन्ने की दुकान से और एक बार चाय भी पी ली, मगर कौनो माई का लाल अभी तक झाँकने भी न आया।

कचौड़ीगली का अफरोज अपने टेंपो की ड्राइविंग सीट पर बैठे बैठे आँख मटका कर उलाहना देने लगा ”अरे चचा, कब से कह रहा हूँ, अब इ तांगा वांगा छोड़ो। इ सब बेच बाच के तुम भी एक टेंपो ले लो। बैंक से लोन भी मिल जाएगा। अब इसका जमाना गया।”

”अबे, क्या तेरी अम्माँ के खसम से मेरी शाहजादी चना-दाना माँगने जा रही है? तुझे क्यों कीड़े काट रहे हैं?”बस, शुरू हो गया। रोज का तमाशा।

भादोखान को ताव आ गया। क्या इसी को जमाना बदलना कहते हैं? रानी के अस्तबल के पास जो पीपल का पेड़ था, उसे काट दिया गया। क्यों? शहर के सुंदरीकरण के नाम पर। वहाँ बना क्या? कूड़ाघर। पहले तो दरवाजे का रंग हरा था, मगर दो चार महीने में काला हो गया। वो भी चित्तीदार। मारे महक के सुबह सुबह यहाँ बैठना मुश्किल। गंगा नहाकर आने जानेवाले या तीर्थयात्री क्या सोचते होंगे! उसके बचपन में जहाँ सुबह शाम भिस्ती पानी के छींटे देते थे, आज उसका कोई पुरसाँ हाल नहीं। खाली बड़े बड़े मॉल बाजार बन रहे हैं। भीतर भीड़ बाहर शोर। शहर की शान गंगा भी तो अब काले नाले में तब्दील हो गई हैं। यह कैसा जमाना है म्याँ?

कई दिनों से उसकी घरवाली सलीमुन कह रही थी, ”अब रमजान खतम होने को है। इस बार ईद के पहले मेरे लिए एक कपड़ा सिलवा दो।” सुबह चाय के बाद शाहजादी को लेकर निकलते समय भी आज उसने याद दिलाई थी।

”कितने लग जाएँगे?”

”यही कुल पाँच छह सौ तो लगेंगे ही। थोड़ी कढ़ाईदार हो तो आठ सौ से कम क्या होगा?”

भादो को लगा जल्द से जल्द वह इस परिवार नामक मैदाने जंग से भाग निकले। मियाँ बीवी और शाहजादी – तीन पेट। फिर बचता ही कितना है कि वह अपनी बीवी के लिए इतना महँगा सलवार कमीज खरीदे? वह खुद तो वही पुरानी लुंगी और एक ही कुर्ता पहन कर हर साल ईद मना ले रहा है। फिर भी सलीमुन अपने कपड़े और कितना सीये? भादो भी क्या करे? किसी किसी दिन तो सुबह से शाम तक बैठे रहो, तब कहीं जाकर सवारियों की एक खेप मिलती है। यह तो गनीमत है कि हाजी साहब अपने मकान के पिछवाड़े एक टीन शेड के नीचे उन्हें रहने देते हैं। वरना अगर किराये के मकान में रहना पड़ता तो -?

भादो भी तो यहीं पैदा हुआ था। जिस रात दुख्तर बेगम को दर्द उठा था, उस दिन शाम से ही मूसलाधार पानी बरस रहा था। सामने सड़क पर घुटना भर पानी जम गया। मियाँ कलीमुल्लाह अपनी बीवी को अस्पताल ले न जा सके। न मुहल्ले की दाई अतवारी को ही लिवा सके। आखिर उस रात उन्हें खुद अपने बेटे का नाल काटना पड़ा था। भादो की उस बारिश में वह पैदा हुआ था, तभी तो सब उसे भादो खान कहकर पुकारते हैं। हाँ, उसके अब्बा या अम्मीं उसके असली नाम फैज बख्श के बदले उसे फैजू कहकर जरूर बुला लेते थे।

मियाँ फैज बख्श अपनी उधेड़ बुन में खोया ही था कि एक आदमी ने आकर पूछा, ”क्यों भादोखान, बाहर के टूरिस्ट हैं। पारसनाथ ले जाओगे?”

फैजू ने इसे दो चार बार देखा है। गाइड का काम करता है। उसने सलाम करते हुए कहा, ”क्यों नहीं ले चलेंगे? इस जमाने में घोड़े और कोचवान को पूछता ही कौन है? मगर हमारा भी पेट है कि नहीं?”

भाड़ा पाँच सौ में तय हो गया। गाइड ने कहा, ”वहाँ तक इन्हें पहॅुचा दो, बस। पारसनाथ में हमारी टूरिस्ट बस खड़ी है। ये उसी से होटल वापस आएँगे।”

शाहजादी की पीठ को सहलाते हुए तांगे के आगे लगा बाँस के बम को पकड़ कर भादो रानी के तबेले से बाहर निकल आया। वे पति पत्नी अपने दोनों बच्चों को लेकर तांगे पर बैठ गए। छोटा लड़का डर रहा था। मराठी में माँ से कुछ कह रहा था।

”सिट, सिट।” भादो खाँ अंग्रेजीदाँ बन कर उसे तसल्ली देने लगा। ”गुड हार्स। हर नेम इज शाहजादी। शाहजादी यू नो? प्रिन्सेस। डरने की कोई बात नहीं। सिट।”

शाहजादी को पुचकारते हुए वह उसे हाँकने लगा। टप् टप् टप्। वह चल पड़ी। हिचकोले खाते हुए तांगे के पहियों से आवाज निकलने लगी। उस आदमी ने खालिस हिंदी में कहा, ”मैं पूने के छत्रपति विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाता हूँ। मेरा नाम है चंद्रकांत महादेव बांदिवडेकर। अपने बच्चों को तुम्हारा शहर दिखाने लाया हूँ।”

”जरूर साब। छोटे नवाबों को खूब दिखलाइए। यह शहर कैसा था, और कैसा हो गया! वरना एक जमाना ऐसा था कि इक्का और तांगावाले सुबह बोहनी के बाद अपने घोड़े को जलेबी खिलाया करते थे।”

घोड़ेगाड़ी के साथ बात गाड़ी भी चल पड़ी।

”है…ट् ट्…!” तालू से जीभ को सटाकर एक विचित्र आवाज करता हुआ वह शाहजादी को हाँक रहा था। सामने कोई रिक्शावाला आ जाए तो आवाज देता, ”भईया, जरा बचके।” और कोई बाइकवाला सामने से दन्न से लहरा कर निकल जाता तो कहता, ”अरे राजा हिंदुस्तानी, यह सर्कस नहीं, सड़क है।” फिर पीछे मुड़ कर कहने लगा, ”हम लोगों का हाल पूछनेवाला कोई नहीं। टेंपो के लिए भी बैंक लोन देता है। मगर, खुदा न करे घोड़े को अगर कुछ हो जाए, तो महाजन के आगे हाथ फैलाने के अलावा हमारा कोई चारा नहीं। फिर कर्ज चुकाते चुकाते तुम भी कबर की ओर अपना कदम बढ़ा लो। अरे छब्बीस जनवरी के दिन आज भी राष्ट्रपति बग्घी पर ही सवारी करते है। तो? उसी घोड़ेवालों का दर्द कोई नहीं सुनता?”

छोटा लड़का माँ की गोद में बैठा था। उठ कर सामने आ गया। फैज बख्श को जोश आ गया, ”उस चौराहे के पास करवा चौथवाले दिन नक्कटैया का मेला लगता है। कभी दस बीस लाख की भीड़ होती थी। खूब चिउड़ा और रेवड़ी बिकते हैं। मगर आजकल तो दुकानदार सिर्फ हाथ पर हाथ धरे बैठे ही रहते हैं।” शहर पीछे छोड़कर वे हाईवे पर आ गए। ”और वहाँ जहाँ ऊँचे ऊँचे फ्लैट्स बने हैं, हमारे बचपन में वहाँ आम के बगीचे थे।”

हाईवे पर एक फ्लाईओवर बन रहा था। जगह जगह खुदाई के कारण गड्ढों के बीच से तांगे को हाँकना शाम के वक्त सड़कछाप छोकरों की नजर बचाकर किसी खूबसूरत लड़की का राह चलना हो गया है।

आखिर मंजिल आ ही गई। चंद्रक्रांत ने उसे ऊपर से पचास बख्शीस में दिए। वह झुककर आदाब करता रहा। भादो खान खुश था – चलो, आज ईद के चाँद दिखने के पहले खुदा ने कुछ तो सुन लिया।

पारसनाथ मंदिर के सामने एक खोमचेवाले के यहाँ खुद पानी पीकर और शाहजादी को थोड़ा चोकर और घास खिलाकर वह वापस चल पड़ा। रास्ते में कोई मिल जाता है तो वह बैठा लेगा, वरना यहाँ सवारी मिलना मुश्किल है। सभी आने जाने का भाड़ा तय करके ही यहाँ तक घूमने आते हैं।

तांगा वापस लौट चला। फैज बख्श धीरे धीरे गुनगुनाने लगा, ”सैयाँ मेले में जइयो, हरा दुपट्टा ले अइयो रे!”

”चचा, आज हो ही जाए – एक बाजी।” इतने में बगल से आटोवाला अफरोज फटफटाने लगा, ”बहुत दिनों की ख्वाहिश है। पुराने जमाने के साथ नए जमाने की दौड़! क्यों?”

”चल भाग। फालतू में दिमाग खराब मत कर।”

”अरे चचा, खाली ही तो जा रहे हो। देखो मेरे आटो में चार सवारी बैठे हैं। आ जाओ -”

”तू भागता है कि इसी चाबुक से तेरी खबर लूँ?” फैज बख्श ने टेंपो की ओर चाबुक को लहराया।

घर्रर्…घर्रर्… अफरोज उसके साथ चलते हुए हँसता रहा, ”चलो, आज एक हाथ बाजी हो जाए।”

इतने में उनके दोनों तरफ से चार मोटरबाइक दौड़ने लगीं। सब पर गागल्स और बिना कॉलर की टी शर्ट पहने मॉड छोकरे बैठे हुए थे। सबके हाव भाव में जवानी का जोश और दुनिया को मजा चखाने का अंदाज हिलोरे भर रहा था। उनमें से एक ने कहा, ”आ जाओ चचा। सब तो कहते हैं तुम लोगों ने देसी घी खाया था। हम तो इस जमाने का रिफाइंड खाते हैं। तो हो जाए -!”

भादो खाँ का मुँह भादो के आकाश की तरह तमतमा रहा था। अचानक उसने चाबुक से तांगे के बम पर दे मारा, ”शाहजादी, चल। दिखा दे आजकल के इन छोकरों को – तेरी अम्माँ ने तुझे अपना ही दूध पिलाया था।”

”हो हो हो -!” चिल्लाते हुए अपनी अपनी बाइक को बल खाते हुए वे चारों फैजू के दोनों ओर से चलने लगे। फैज बख्श भी अपना तांगा तेज भगाने लगा। हवा को चीर कर तांगा दौड़ रहा था। सामने से आती हवा शाहजादी के अयालों को छूकर भादो खान के कानों में कह रही थी, ”शाबाश !”

टक् टक् खट् खट् – शाहजादी की टापों की आवाज के साथ साथ पुराने तांगे के पहियों की भी आवाज हो रही थी। किसी गढ्ढे में पहिआ उछल जाए तो फैज बख्श को इन सड़क बनानेवालों पर गुस्सा आ रहा था।

काफी दूर तक यह रेस चलती रही। लड़के हँस रहे थे। उसे उकसा रहे थे। अफरोज इनके पीछे पीछे आटो लेकर चला आ रहा था। अचानक शाहजादी का अगला दायाँ पैर एक गड्ढे में घुस गया। हिनहिनाते हुए बेचारी लड़खड़ाकर गिर गई। तांगा सामने की ओर लुढ़क गया।

वे चारों सवार हँसते हुए इनके इर्द गिर्द चक्कर काटने लगे।

अफरोज आटो रोक कर दौड़ा आया, ”यह क्या हुआ, चचा?”

फैजू ने तेज निगाह से उसकी ओर देखा, बस। कहा कुछ नहीं। किसी सूरत से तांगे से बाहर निकल कर वह शाहजादी को खड़ा करने लगा तो देखा तांगे का दाहिना पहिया धूरे से अलग होकर आगे जा गिरा है। अब वह कैसे घर वापस लौटे?

वे लड़के ठहाका लगाते हुए ”थ्री चीयर्स फॉर तांगेवाले अंकल!” कहते हुए थोड़ी देर चक्कर काटते रहे। फिर रफ्तार तेज करते हुए शहर की ओर निकल गए।

अफरोज को अपनी सवारी पहुँचानी थी। वह भी धीरे से खिसक गया।

एक पहिये के तांगे को किसी तरह सड़क के एक किनारे रखकर एक हाथ से शाहजादी का लगाम थामे दूसरे हाथ से अभिमन्यु की तरह कंधे पर पहिये को उठाए फैज बख्श घर की ओर चल पड़ा। अब कल सबेरे ही किसी बढ़ई को साथ में ले आकर तांगे को ठीक करना है।

घर पहुँचते पहुँचते दिन ने रात का नकाब ओढ़ लिया। गली के मोड़ पर सेंवई, खजूर और कपड़ों की दुकानों के सामने भीड़ उमड़ पड़ी थी। औरतें भी खूब खरीदारी कर रही थी। इनमें कहीं सलीमुन भी होती तो? लोग मस्जिद के चौतरे पर बैठे यही पूछ रहे थे कि कब चाँद का दीदार होगा?

इन सबसे बेखबर फैज बख्श भारी कदमों से हाजी साहब के मकान की ओर चला जा रहा था। रास्ते में किसी ने सलाम किया, उसने धीरे से जबाब दे दिया। किसी ने पूछ लिया, ”अरे भादो, तांगे का क्या हो गया?”

”बस, यह पहिया टूट गया।” कहकर एक अजीब ढंग से मुस्कराते हुए वह आगे निकल गया।

घर पहुँचकर पहिये को दीवार के सहारे खड़ा करके वह चुपके से शाहजादी को खूँटे से बॉध दिया। घर पहुँचने की खुशी में वह पैर पटक कर हिनहिनाने लगी।

”अभी आया, बच्ची। बस, तेरे लिए चना लेकर अभी आया।” कहकर उसकी पीठ थपथपाते हुए वह टीन के शेडवाले अपने कमरे में दाखिल हो गया।

सलीमुन अपने फटे हुए कपड़ों की सिलाई कर रही थी। उसे देखते ही उठ खड़ी हो गई, ”चाँद दिखा? और मेरे सलवार कुरता -?”

उसने चुपचाप कुर्ते की जेब से वे पाँच सौ पचास रुपये निकालकर उसके हाथ में रख दिए। सलीमुन मानो सोलह साल की हो गई, ”आज रात तक दुकानें खुली रहेंगी। चलो, कम से कम एक कुर्ता तो ले ही लें।”

”पहले शाहजादी को कुछ खिला तो लें।”हाथ में चना और गुड़ लेकर वह बाहर निकला और शाहजादी के खाने के डब्बे में उन्हें डाल दिया।”

”यह क्या!” तब तक उसके पीछे आकर सलीमुन खड़ी हो गई थी, ”तांगा -?”

भादो खान ने चुपचाप इशारे से उस पहिये को दिखाया, ”पारसनाथ के रास्ते औंधे मुँह पड़ा हुआ है।”

सलीमुन बारी बारी से एक बार उस पहिये को, एकबार भादो खाँ को, एक बार शाहजादी को और एक बार अपने हाथ के उन रुपयों को देख रही थी, ”तो? इन रुपयों से का का कर लोगे? फिर कल ईद है। कम से कम सेंवई तो -”

भादो खाँ चुपचाप शाहजादी की बगल में खड़ा था। अचानक उसकी आँखों से आँसू की दो बूँदें शाहजादी की पीठ पर गिर गईं। शाहजादी की खाल पर मानो ममता की लहरें दौड़ने लगीं। भादो खाँ अपना चेहरा उसकी पीठ पर रगड़ने लगा, ”अरे मेरी बच्ची, तू क्यों घबड़ाती है?”

सलीमुन ने उसका हाथ थाम लिया, ”चलो अंदर। पहले चाय तो पी लो।”

कमरे के अंदर जाते हुए फैज बख्श के पैर अचानक ठिठक गए। सलीमुन ने पूछा, ”क्या हुआ?”

”चाँद का दीदार हो गया क्या?”

सलीमुन भी बाहर निकल आई। मियाँ बीवी दोनों आकाश की ओर ताकते हुए किसी अनदेखे चाँद को ढूँढ़ने लगे….

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