तोहार नाम की छै? | अमिताभ शंकर राय चौधरी
तोहार नाम की छै? | अमिताभ शंकर राय चौधरी

तोहार नाम की छै? | अमिताभ शंकर राय चौधरी – Tohar Nam Ki Che

तोहार नाम की छै? | अमिताभ शंकर राय चौधरी

बस टेशन पहुँचते पहुँचते रात काफी हो गई। आखिरी बस भी कब की छूट चुकी थी। सुगीबा ने रमललवा से पूछा, ”तो अब?”

रमललवा फिल्मी इसटाइल में कंधा उचका कर गमछा घूमा घूमा कर हवाखोरी करने लगा।

चारों तरफ घुप अन्हार। टिकस बाबू की खिड़की बंद। उसके सामने लंगड़ी बिरिंच पर दू जने चित्त पड़े हैं। उधर सड़क पर चाय की दुकान में किरासिन लम्फ भक् भक् कर रहा है। बगल के ”चाची के होटल”में इनवर्टर की लाइट अपनी पीली रोशनी से फाग खेल रही है।

दोनों को घर पहुँचना है। वैसे रमललवा ने फोन करके पता लगा लिया था कि भले ही कोसका मैया रोज ब रोज सेठ साहु की पुतोहू की तरह फूल रही हैं, मगर पनार का पानी अभी इतना नहीं बढ़ा है कि इनके गाँव तक घुस आए। फिर इनका घर भी तो पनार के कछार से दूर बेनीगंजवाली सड़क के पास है।

”चल, पहिले चाय तो पी लें। फिर सोचेंगे।” रमललवा ने ही कप्तानी सँभाली। वैसे वह स्वभाव से ही ऐसा है। औकात चवन्नी ताव बीस आना। शहर में ट्राली चलाता है। दोपहर में खाना खाने के बाद घंटा आधा घंटा चित हो जाता है। उस समय अगर सेठजी बुला भेजे -”रमललवा से बोलिए इ गाटर मलदहियाटोला पहुँचा आवे -”, तो वह टका सा जबाब दे देता है, ”हम तो घंटे भर बाद ही पहुँचेंगे भैया। बहुत जल्दी हो तो और किसी से-”

कोई अगर भाड़े में दस रुपया कम करने को कहता है तो वह सीधे मुँह फेर कर ‘बचानू टी स्टाल’ में चाय का आर्डर दे डालता है। आदमी है रंगबाज और रसीला भी। दीवारों पर लगे फिलम के पोस्टरों को मुस्किया मुस्किया कर देखता रहता है।

सुगीबा बेचारा गनपत साव के यहाँ भाड़े का रिक्शा चलाता है। गनपत ने ही उसे सूचना दी थी : ”अरे टीवी पर दिखा रहा था कोसी में उफान आ गया है। तेरे देस का हाल का है? जरा पता तो कर ले।”

सुनते ही जैसे बेचारे के पैर के नीचे की जमीन ही खिसक गई। माँ का चेहरा टीवी की तस्वीर की तरह आँखों के सामने आ गया। वह किसे फोन करता? दौड़ा रमललवा के पास। उसकी शादी सुगीबा के गाँव में हुई थी, इसलिए वह उसे सालाबाबू कहकर बुलाता था। दोनों अगल बगल गाँव के थे। इसलिए अगर रमललवा के बेनीगंज में पनार का पानी घुसता है तो सुगीबा का गाँव सुजाबाद में भी आएगा। वरना फिकर की कोई बात नहीं। रमललवा ने बेनीगंज हाट के बजाज के यहाँ फोन मिलाकर हाल चाल पूछ लिया। ”लो सालाबाबू, घबराने की कोई बात नहीं। मगर कल गाँव चले चलो -”

”हाँ वही ठीक रहेगा”। उसको लगा उसकी मैया उसे बुला रही है। ठीक उसी तरह जैसे अन्हार लगने पर बुलाया करती थी – ”सुगीबा ह-”

गाँव में खेतजोत के नाम पर इनकी कुछ भी नहीं थी। बाबू दूसरों के खेत में मेहनत मजदूरी कर लेते थे। कुछ अनाज मजदूरी में मिल जाता था। पता नहीं माँ कैसे सबका पेट भरती थी! फिर तो बड़का भैया काम करने सुजाबाद जाने लगे और बाबू और कई लोगों के साथ जम्मू पहुँच गए। बारामुल्ला के पास खेत में मजदूरी करने। मगर फिर एक रात कुछ लोग काले कपड़ों से मुँह ढक कर वहाँ आ धमके। हर एक के हाथ में ए.के. फिफ्टी सेवेन थे। इन लोगों को चुन चुन कर बाहर एक दीवार के पास खड़ा कर दिया गया। फिर? सुगीबा ने न देखा था, न सुना था। शायद दीवाल पर बप्पा के खून के छींटे पड़े थे। जम्मू से संदेशा आया कि उन सभी का दाह संस्कार झेलम के किनारे एक साथ कर दिया गया है….

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अब क्या था? सुगीबा गाँव में ही मेहनत मजदूरी करने लगा। भैया निकल गए मुंबई। वहाँ भी वही कहानी दोहराई गई। बस, कुछ दूसरे ढंग से। छठ के समय इन लोगों को चुन चुन कर मारा पीटा गया। सब किसी तरह जान बचा कर घर भाग आए। स्टेशन के प्लेटफार्म तक इनका पीछा किया गया। डराया धमकाया गया – ‘फिर कभी यहाँ पैर धरे तो -”। फर्क इतना था वहाँ इंडियन और काफिर का तमगा लगाकर इसके बप्पा को भून दिया गया था, और मुंबई से भैया को बिहारी का तमगा लगा कर लात घूँसे से मार पीट कर भगाया गया। हाँ, जान बख्श दी गई।

दो भाई और एक बहन। भैया की शादी हो गई थी। गौना हो गया। अब बहन को बिदा करने की जिम्मेदारी दोनों भाइओं पर थी। भैया खेत में मजदूरी करने लगे। सुगीबा घर से निकल पड़ा। किसान का बेटा मजूरा बन गया। बैल हाँकनेवाले हाथ रिक्शा हाँकने लगे।

मैया नहीं आने देना चाहती थी। खूब रोई। मगर मजबूरी भी तो ऐसी अंधी गली है कि कहीं कोई रोशनी दिखती ही नहीं।

छोटा बेटा ऐसे ही माँ का दुलारा ज्यादा होता है। बचपन में वह रोटी खा लेने के बाद गुड़ के लिए रोज मैया से कन्ना रोहट करने लगता। भैया मुस्कुराकर रह जाते। छुटकिआ जरूर हिस्सा माँगने आती। उँगली भर गुड़ लेकर वह एक बार चूसता, एक बार उसे देखता रहता। लेखा की पुतोहू ताना देती – ‘परेता में धागा नै, गुड्डी उड़े आसमान!”

अब तो मैया बस उसकी राह जोहती। छठ के पहले टिकुआ बना कर रखती। घर आ जाए तो सुगीबा को खुद सामने बैठ कर खिलाती। घर आने पर दो दिन में सुगीबा का बदन इतना चिक्कन हो जाता कि अंगोछा भी फिसलने लगता!

चाय की गुमटी पर बैठे बैठे सुगीबा व्याकुल हो रहा था – मैया, छुटकी, भौजी, भतीजा सब कैसे हैं? जै हो कोसका, उनकी रक्षा करना! अब कोसका के नाम में ही कोई अभिशाप है क्या? कहा जाता है सावर्णि मन्वंतर के सप्तर्षिओं में से एक ऋषि का नाम था कौशिक। इनके सात पुत्र थे। एक बार दुर्भिक्ष पड़ने पर ये सातों भाई अपने गुरु की गौ को मार कर श्राद्ध कर स्वयम् खा गए। इस पाप के कारण ये पाँच बार जन्म लेने के पश्चात ही मुक्त हो सके। यह भी कहा जाता है कि कौशिक यानी गुस्सैल ऋषि विश्वामित्र की बड़ी दीदी सत्यवती अपने देहांत के बाद यही कोसी नदी बनकर बहने लगी। तभी तो बीच बीच में वह ऐसी कहर बरपाने लगती है। जैसे तैसे घर लौटते समय आज सुगीबा अपना जमाया हुआ चार हजार तीन सौ सात रुपया गनपत साव से लेकर चल पड़ा है। गनपत ने होशियार कर दिया था ”सँभल के रहना। रास्ता ठीक नहीं है। रात हो जाए तो कहीं रुक जाना -”

”देखो सालाबाबू, आज रात तो हिंअई ठहरना पड़ेगा। चलो, कुछ खा लेवें।” रमललवा उसे लेकर चाची के होटल की ओर चल पड़ा। आर्डर देते समय उसने ताव से कहा भी, ”ऐ बबुआ, दाल कैनरा फ्राय कैर दिहौ!”

दोनों ने अपने अपने पैसे दे दिए। थोड़ी देर वहीं चुपचाप बैठे रहे। तभी रमललवा ने आँख नचाकर पूछा ”सारी रात का मच्छरों के संग गुजारे के? चल,तनिका मौज मस्ती कैंइ ले!”

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”कहाँ?”

”अरे चल न -”

ऊबड़ खाबड़ गड्ढेदार अँधेरी सड़क पर दोनों आगे बढ़ गए। आगे सड़क की गुमटिओं के पीछे पुलिस चौकी की बगल से एक रास्ता दाहिने मुड़ गया है। रमललवा उसे लेकर उधर ही चल पड़ा…

”इ केवै जाय छै? कहीं कउनो गड़बड़ी न होय जाए -”। उसने देखा दारू की दुकान के सामने पड़ी बोतलों को कुत्ते सूँघ रहे हैं।

”अरे छोड़ो -”

इतने में दो लोग आते दिखाई पड़ गए। सुगीबा ने देखा सभी की हालत अंटा गुड़गुड़ है। पैर लड़खड़ा रहे हैं। आगे दो चार पक्के मकानों की सीढ़ियों पर, उनके बरामदे पर दो चार औरतें खड़ी थीं। बदकिस्मती और बेबसी पर लिपस्टिक और पाउडर की बेशर्मी की चादर ओढ़े। हर एक के साथ कोई न कोई था। बातें हो रही थीं। हँसी ठिठोली और झगड़ा भी। किसी कमरे में टेप रिकार्डर बज रहा था। खिड़की से आवाज आ रही थी – ”गगरी में आइल बा का कोसका क बाढ़ ह रानी? जब चलेलू त छलकेला तोर कमरिया पे पानी!”

सीढ़ी के ऊपर बरामदे में एक दरवाजा खुल गया। दरवाजे पर खड़ा एक आदमी को भीतर से एक औरत ने धकिया के निकाल बाहर किया, ”हर चीज में हराम के मुँह मारै के आदत पैड़ गैल छै? अरे कोसी के जल लोग के घर में ढुक रहल छै, त बाढ़ क पैसा तोरा घर में! फिर भी हियाँ फोकट में मजा चाही?”

बगल से एक आदमी ने मुसकुराकर पूछा, ”क्यों यादवजी, ‘जून लूट’ के चेक अखनी नै आयल छै?”बाढ़ राहत के नाम पर आनेवाला अनुदान का यही नाम है! यह सज्जन शायद सिंचाई या जल विभाग के बड़े बाबू हैं, या मंत्रीजी के साढ़ू भाई के बहनोई के भतीजे के साले का चचेरा भाई…

सुगीबा का पैर पथरा गया, ‘ए रमललवा, इ कहाँ लै आए हमको?”

”अरे डरपोक, मरद हो, मरद की तरह सीना तान के रहो। चलो। हमको हियाँ सबै जानते हैं। ज्यादा हुकुर पुकुर न करो।”

उसे खींचते हुए रमललवा सीढ़ी से ऊपर चढ़ गया। जाकर दोनों एक कमरे में बैठ गए। बिस्तर पर मैली सी चादर बिछी थी। एक तरफ दीवार पर हनुमानजी और माता शेरावाली की तस्वीर तो बगल की दीवार पर फिल्मी हीरो हीरोइनों की। रमललवा ने जोर से एक हीरोइन का नाम लेकर किसी को पुकारा। एक नेपाली औरत ने आकर बेंच पर एक बोतल और दो गिलास रख दिए। फिर सुगीबा की ओर आँख नचाकर उसने पूछा, ”क्यों नया नया नशा चढ़ा है?”

सुगीबा को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। सिर के अंदर कोसी की शाखा पनार का पानी उफान मार रहा था।

‘लो, पी लो -”। रमललवा ने दो एक बार कहा। वह सिर हिलाता रहा। ‘तो फिर हमार मजा किरकिरा मत करो, साला बाबू! एकरै साथ जाओ-”

वह औरत उसे बगल के कमरे में छोड़ कर चली आई।

वहाँ एक दूसरी औरत बैठी थी। होठों पर बीड़ी दबाए, बिस्तर पर एक टाँग उठाकर। उसकी ओर नजर उठाकर सुगीबा देख भी नहीं पा रहा था। कमरा वैसा ही था। एक टूटा हुआ आईना और उसके सामने लठवा सिंदूर। पूरे माहौल से एक बास आ रही थी।

”क्या है? खाली बैठे ही रहोगे? कुछ पीना है तो बताओ -”। उस औरत ने पूछा।

सुगीबा थेाड़ी देर चुप रहा। फिर धीरे से पूछा, ‘तोहार की नाम छै? तुमरा नाम का है?’

”क्यों? मेरे नाम का क्या करना है?” उसकी आवाज तीखी हो गई। – ”घरवाली बनानी है या पुतोहू?”

सुगीबा बिल्कुल हक्का बक्का रह गया।

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”जो आता है, दुख बाँटने चला आता है।” वह उठ कर खड़ी हो गई, ”अपनी नाक रगड़ने आए हो। वह रगड़ो। दाम दो और चलता बनो -।”

तभी धम्म् धम्म्… आवाज होने लगी। दरवाजे को पीटते हुए किसी बुढ़िया ने आवाज लगाई, ”महुआ, जल्दी से गाहक से निपट ले। फौरन बाहर निकल। तोर ससुराल के गाम में पानी ढूक गैल। लोचाबाबू खबर लै आए हैं -”

वह औरत एक पल के लिए मानो पथरा गई। वह दाँत पीस कर बुदबुदा रही थी, ”स्साली ससुराल! ओ साल भी कोसी में बाढ़ कि अएलै कि पूरा गाम तबाह भा गैल! उन लोगों ने गौना कराके हमको बेच दिया। फिर भी हाथ फैलाने में कउनो शरम नहीं! छिः, सिर्फ भिखमंगा नहीं, कोढ़ी भी!”

आँधी में ताड़ के पेड़ की तरह सुगीबा बगल में खड़ा काँप रहा था। बाढ़ के दिनों दोपहर की धूप में कोसी के पानी की तरह उसकी आँखें चमक रही थीं। अब नजरें उठाकर उसने फिर से पूछा, ”तोहार नाम का है?”

गरम तवे पर मानो पानी की बूँद गिरी। वह औरत बिल्कुल झल्ला उठी, ”क्यों? हमार नाम का ताबीज पहनोगे? क्यों दिमाग चाट रहे हो?”

सुगीबा ने हाथ बढ़ाकर दरवाजा खोल दिया। वह कमरे से निकलने लगी तो उसने उसकी कलाई पकड़ ली, ”तुम्हारा नाम महुआ है?”

”हाँ। तो?” वह औरत मानो उग्र हो उठी, ”ऐ देखो,मेरा हाथ मत थामो। छोड़ो। वरना -।” फिर वह गला फाड़ कर चिल्लाने लगी, ”ऐ सल्लो! जरा चाँद मिया को बुलाना। पता नहीं कहाँ कहाँ से गँवार भुच्चड़ चले आते हैं झगड़ा टंटा करने!”

इतने में उसका हाथ छोड़ कर सुगीबा दौड़ा और लगा बगल के कमरे का दरवाजा पीटने – ”रमललवा, दरवाजा खोल -”

ज्यों रमललवा बाहर निकला वह पागल बरद की तरह उस पर टूट पड़ा। लगा दोनों हाथों से उसके सीने पर घूसा मारने –

”अरे की करै छी? बौरा गया है क्या?” रमललवा ने उसका बाल पकड़ लिया।

इतने में चाँद मियाँ और दो चार लोग ऊपर आ गए, ”अरे की भैलो? क्या बात है, महुआ?” मामला समझते देर नहीं लगी कि चाँद मियाँ की गर्मजोशी में चार चाँद लग गए। सुगीबा की पीठ पर लातें बरसने लगीं। वह छिटक कर गिर गया सीढ़ी के पास….

”अबे हुआ का है – बताएगा?” रमललवा समझ नहीं पा रहा था इसे अचानक किस पागल कुक्कुर ने काट लिया!

चाँद वगैरह फिर से अपने हाथ की गर्मी उतारने लगे तो रमललवा ने उनको रोक लिया, ”अबे हुआ क्या बताएगा भी?”

सुगीबा के होंठ उसके अपने दाँत से कट गए थे। खून बह रहा था। उसने हथेली से खून को पोंछ लिया, फिर अचानक दोनों हाथों से अपनी छाती पीटते हुए चिल्लाने लगा, ”अरे रमललवा, मेरी मैया का नाम महुआ है रे -”

रमललवा और चाँद मियाँ वगैरह को मानो काठ मार गया था। सभी पेड़ के ठूँठ की तरह खड़े रहे। केवल महुआ की आँखों के काजल के कछार पर मानो कारी कोसी का पानी उफान मारने लगा…

धर्…धर्..धर्… – वह सीढ़ी से उतर कर नीचे भागा… सड़क के अन्हार की ओर…. दौड़ते दौड़ते वह टटोलने लगा – रुपये तो ठीक हैं न? उसे लगा पनार का पानी उसके आँगन में घुस आया है। उसकी माँ, भाभी, छुटकी और भतीजा सभी उसे बुला रहे हैं। वह बुदबुदाने लगा, ”कोसका मैया, तुमने आज अधरम से मुझको बचा लिया! अब इनकी रक्षा करना हे मैया -!”

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